चोबचीनी (Chobchini) वच जाति में से ही
है। इसी से इसे द्वीपांतरीय वच कहते है। चोबचीनी की लता बहुत विस्तार से फैलनेवाली
होती है इसका डंठल बहुत दृद्ध लगभग एक इंच की घेराई में मोटा होता है। व्यवहार में
चोबचीनी की जड़ ही आती है। चोबचीनी शब्द होने पर सर्वत्र उसकी जड़ ही लेनी चाहिये।
चोबचीनी (Chobchini) उष्णवीर्य, अग्निदीपक,
विबन्ध (कब्ज), आध्यमान (अफरा) तथा शूल को नष्ट करनेवाली, मल-मूत्रशोधक एवं वातव्याधि, अपस्मार (Epilepsy), उन्माद,
शरीर की पीड़ा दूर करती है। विशेषतया फिरंग रोग (आतशक-Syphilis) तथा उससे प्रगट होनेवाले अन्य उपद्रव को नाश करनेवाली
है।
चोबचीनी (Chobchini) धातुवर्धक (रस, रक्त,
मांस आदि), बलकारक,
तारुण्यदायक, पुष्टिकारक, वीर्यवर्धक, रसायन,
गर्भदायक तथा आध्यमान (अफरा), धातुक्षय (रस, रक्त, मांस आदि का कम होना), अग्निमांद्य, कटिग्रह (Lower Back Pain), पक्षाघात, उरुस्तम्भ (कमर के नीचे का पक्षाघात), क्षय (Tuberculosis), व्रण (घाव), गंडमाला (Scrofula), नेत्ररोग,
शुक्रदोष, रक्तविकार,
सर्वांग वात (पूरे शरीर में वात की पीड़ा), कंपवात और कुब्जवातनाशक है।
चोबचीनी (Chobchini) विशेषतः आतशी माद्य (जिसे फिरंग हो चुका है) के रोगी
को बहुत लाभ करती है। यह कुष्ठ और विसर्प नाशक है। चोबचीनी स्वेदल (पसीना लाने
वाली), उष्ण,
रसायन, फोड़ा-फुंसी, पकाव आदि के लिये उत्तम है, बहुत बार शिरशूल के लिये अनंतमूल के साथ चोबचीनी का
प्रयोग करते है। चोबचीनी, रूमी मस्तगी, इलायची और तज को दूध में उबालकर उस दूध का सेवन, संधिवात, वातरक्त (Gout),
अपस्मार, धातुवैषम्य, कंठमाला, शुक्रक्षीणता और बहुत काल से चली आई
फिरंग (Syphilis) की दूसरी अवस्था में व्यवहार करते है।
हाथ-पैरों की सूजन में चोबचीनी के चूर्ण का लेप किया जाता है।
शहंशाह पंचम
चार्ल्स का संधिवात चोबचीनी के प्रयोग से मिट गया। इसकी प्रसिद्धि होने पर इसके
गुणों की अतिशयोक्ति का वर्णन कई मोटे-मोटे ग्रन्थों में किया गया, सत्तरहवीं शताब्दी के अंत में सार्सा परिला के समान
(स्वेदल, रसायन,
रक्तशोधक, विषनाशन) रूप में व्यवहार होता रहा है, आजकल फार्माकोपिया में भी उसी रूप में मौजूद है।
यूनानी मत से
चोबचीनी (Chobchini) गरम प्रकृतिवालों के लिये हानिकारक है। दर्पनाशक अनार
है। चोबचीनी प्रसन्नता उत्पादक, विबन्ध (कब्ज) नाशक, रक्तशोधक, स्त्रावशोषक, वातव्याधि, पक्षाघात,
मस्तिष्क के शीतजन्य विकार, ज्ञानतन्तु विकार, गर्भाशय विकार विनाशक है। मूत्र और आर्तव (मासिक
धर्म) को प्रवृत करनेवाली, उपदंश,
फिरंग (Syphilis), कुष्ठ,
खुजली, फोड़ा,
फुंसियों को लाभदायक है।
चोबचीनी
कामोत्तेजक, बवासीर,
नासूर, मूत्रकृच्छ, जीर्णज्वर (पुराना बुखार), चौथैयाज्वर, फैलनेवाले फोड़े (विसर्प या अन्य फोड़े), वृक्क (Kidney) और मूत्राशय के रोगों को नाश करनेवाली
है।
रसायन के लिये
चोबचीनी (Chobchini) का प्रयोग शरद् या वसंत ऋतु में करना चाहिये। मध्यम शीतकाल में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिये। इसी तरह
जवानी के अंत में और बुढ़ापे के शुरू में सेवन करना चाहिये। एवं उत्तम चोबचीनी कम
से कम 40 दिन तक सेवन करना चाहिये। भोजन सात्विक और पौष्टिक करना चाहिये तथा
(मदिरा, तेल,
कांजी, शाक,
क्षार, अम्लरस (खट्टे रस वाले) पदार्थ, अति लवण एवं तिक्त (कडवे) रस का सेवन नहीं करना
चाहिये)। ब्रह्मचर्य पूर्वक रहने में अति बल, वीर्य की वृद्धि होती है।
मात्रा:
सामान्यतया इसकी मात्रा 1 माशा (1 माशा=0.97 ग्राम) की है किन्तु कहीं 3 माशा भी
परिस्थितिविशेष के अनुसार लेते है। यूनानी चिकित्सा में तो इसकी मात्रा 6 माशा से
9 माशा तक मानी है। सामान्यतया यूनिनी चिकित्सा में आयुर्वेदीय चिकित्सा की
अपेक्षा मात्रा कई गुनी राखी है जो अवमान्य नहीं हो सकती।
चोबचीनी के कुछ
स्वतंत्र प्रयोग: Chobchini
Ke Fayde
౦ निद्रा लाने के लिये: ताजा चोबचीनी (हरी) का सेवन करना उत्तम है, इससे नींद आती और रोगी को शांति मिलती है। यह (हरी) चोबचीनी शीतल प्रकृतिवाले एवं कफजन्य रोगों में
लाभ नहीं करती उलटी हानि करती है। पकी हुई चोबचीनी ऊपर लिखे के विपरीत गुण करती
है।
౦ गंडमाला (Scrofula)
के लिये: काफी दिनों तक चोबचीनी का चूर्ण मधु के
साथ दोनों समय सेवन करना चाहिये।
౦ फिरंग रोग के लिये: विशेषतः फिरंग रोग की
पुरानी दशा में एवं फिरंगजन्य अन्य उपद्रवों में 3 माशा (1 माशा=0.97 ग्राम)
चोबचीनी का चूर्ण मधु के साथ चटाना और अनुकूल आहार विहार सेवन कराने से लाभ होता
है। शरीर में फोड़ा, फुंसी,
चकते, घाव,
फिरंग रोग होने के कारण हो जाय उस रोगी को चोबचीनी का चूर्ण समभाग अनंतमूल के
चूर्ण के साथ सेवन कराना बहुत उपयोगी है। चोबचीनी का चूर्ण एवं चोबचीनीसिद्ध तैल
खिलाना और लगाना फिरंगजन्य गठिया पर लाभ करता है।
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