देवदार (Devdar) को देवदारु भी कहते है। इसका वृक्ष बहुत विशाल घन
छायावान गुमटीदार होता है, इसकी ऊंचाई 150 से 200 फीट तक पाई जाती
है, स्तम्भ की गोलाई 25-30 फीट की होती है।
देवदार दो प्रकार का होता है, एक चिकना जिसमें तेल होता है, दूसरा रूखा देवदार। सुगंध दोनों प्रकार के वृक्षों
में आती है। स्निग्ध (चिकनी) जाति के वृक्ष की लकड़ी ही औषध योजना में देनी चाहिये।
लकड़ी चीड़वत् स्निग्ध और हलकी होनी चाहिये।
देवदारु की लकड़ी
स्वेदल (पसीना लाने वाली), मूत्रल है तथा बुखार, गुल्म (पेट की गांठ),
सूजन, पथरी आदि रोगों पर व्यवह्यत होती है, सहजने की छाल और अपामार्ग के चूर्ण के साथ पेट के
रोगों के व्यवहार में आती है। सुजाक, वातरक्त,
गरमी (Syphilis), आमवात (Rheumatism)
और वातज्वर (वायु जनित बुखार) आदि रोगों में देवदार का क्वाथ रसायन के रूप में
प्रयुक्त किया जाता है। हल्दी और गुग्गुल के साथ देवदार का चूर्ण कम न होनेवाली
सूजन पर किया जाता है, देवदार का चोवा (Tar) चर्मरोगों में बड़ी मात्र में पिया जाता है (चोवा नहीं
तैल पीना चाहिये)। कुष्ट में और दुष्टव्रण (सड़ा हुआ घाव) के ऊपर तेल लगाने से लाभ
होता है।
देवदार (Devdar) में टारपंटाइन के तेल के समान एक तेल होता है। यह
चर्मरोगों में अत्यंत उपयोगी है। वातरक्त कुष्ठ की दवाओं में रामबाण गिना गया है।
डा. गिल्सन वातरक्त में यह तैल बड़ी मात्रा में देने की राय देते है। मनुष्य जितना
सहन कर सके उतनी बड़ी से बड़ी मात्रा 4 माशा (1 माशा=0.97 ग्राम) की है इससे स्वेद
आता है। किसी-किसी को इतनी मात्रा से उल्टी हो जाती है। डा. जॉन्स ने भी इस तेल का
उपयोग चर्मरोग पर किया है।
देवदार (Devdar) लघु (लघु पदार्थ पथ्य, तुरंत पचन होनेवाला और कफ नाशक होता है), स्निग्ध (स्निग्ध वस्तु वायु का नाश करनेवाली, पौष्टिक और बलदायक होती है),
कड़ुवा रसयुक्त, उष्णवीर्य एवं विबंध (कब्ज), आध्यमान (अफरा), सूजन,
आम (अपक्व अन्न रस जो एक प्रकार का विष है और शरीर में रोग पैदा करता है), तंद्रा, हिचकी,
बुखार, रक्तदोष,
प्रमेह, पीनस (सड़ा हुआ जुकाम), कफ, खांसी,
खुजली तथा वायु को नष्ट करता है।
स्निग्ध देवदार:
चिकना, गरम,
कड़वा, हलका तथा कफ, वात, प्रमेह,
बवासीर, कब्जियत,
आमदोष, बुखार,
अफरा, श्वास,
खांसी, सूजन,
खुजली, हिचकी,
तंद्रा, रुधिर विकार और पीनस को दूर करता है।
काष्ट देवदार:
गरम, कड़वा,
रूखा तथा कफ, वातरोग और भूतबाधा को दूर करता है। इसके
लेप से चेहरे की झाई दूर हो जाती है।
डॉ. देसाई के मत
से देवदार (Devdar) पसीना लानेवाला, मूत्रल,
वायुनाशक और चर्म रोग नाशक है। देवदार के तेल का धर्म टरपेंटाइन के समान ही होता
है। मगर उससे यह कुछ कम प्रभावशाली होता है। यह एक उत्तम व्रणशोधक (घाव को शुद्ध
करनेवाला) और व्रणरोपक (घाव को भरनेवाला) पदार्थ है। कोमान के मतानुसार यह औषधि
(देवदार) मूत्रल, शांतिदायक,
बुखार नाशक तत्वों से परिपूर्ण मानी जाती है। पेशाब संबंधी अव्यवस्था को भी यह दूर
करती है।
यूनानी मत से
देवदार (Devdar) के पत्ते सूजन पर और क्षयजनित गलग्रंथियों पर लेप
करने के काम में लिये जाते है। इसकी लकड़ी कड़वी,
मूत्रल, शांतिदायक,
पेट के आफरे को मिटानेवाली और कफ निस्सारक होती है। यह गठिया, संधिवात, बवासीर,
गुर्दे और मसाने की पथरी, पक्षाघात और गुदाभ्रंश रोगों में उपयोगी
है। इसका तेल वेदना को दूर करनेवाला और बुखार नाशक है। यह चोट, जोड़ों के दर्द, क्षयजनित ग्रंथियां और चर्म रोगों में
उपयोगी है।
देवदार के कुछ
स्वतंत्र प्रयोग: Devdar
Benefits
1) हिक्का और
श्वास में: देवदार का क्वाथ पीने से लाभ होता है।
2) बुखार में:
देवदार का विधिपूर्वक बनाया क्वाथ पिलाने से बुखार उतरता है।
3) वातजन्य व्रण
(घाव) में: देवदार और सोंठ घिसकर व्रण के ऊपर लगानी चाहिये इससे व्रणरोपण हो जाता
है।
4) ह्रदय में
वायु प्रकोप हो तो: देवदार और सोंठ समान भाग पीने से ह्रदय-स्पंदन आदि वातजन्य
ह्रदय रोग मिटते है।
5) कफजन्य
गंडमाला में: देवदार और इन्द्रायण की जड़ गंडमाला पर लेप करना चाहिये इससे गंडमाला
शांत होती है।
6) कुष्ठ में:
देवदार की जड़ खोदकर उसके नीचे एक पात्र रखकर उस जड़ पर अग्नि जलाकर उस पात्र में
टपके हुये रस को लेवे। इस रस को दूध के साथ पीने से अनेक प्रकार का कुष्ठ रोग
मिटता है।
7) पारद जन्य दोष
में: देवदार का तेल पिलाना और लगाना बहुत लाभदायक है इससे व्रण आदि मिट जाते है।
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