सोमवार, 24 मई 2021

स्वर्ण पर्पटी के फायदे / Swarna Parpati Benefits in Hindi

स्वर्ण पर्पटी के फायदे / Swarna Parpati Benefits in Hindi

स्वर्ण पर्पटी (Swarna Parpati) पित्त शोधक (पित्त को शुद्ध करनेवाली), किटाणु नाशक और बल वर्धक है। सब प्रकार की संग्रहणी, क्षय (Tuberculosis), खांसी, श्वास, प्रमेह, शूल (Colic), अतिसार, मंदाग्नि और पांडु रोग का नाश करके जठराग्नि को प्रदीप्त करती है; और बल-वीर्य बढ़ाती है।

पर्पटी कल्प में स्वर्ण पर्पटी अति महत्व की अग्रगण्य औषधि है। बिलकुल अस्थि-पंजर और मरणोन्मुख रोगियों को भी स्वस्थ बनाती है। स्वर्ण पर्पटी के साथ में दूध विशेष लाभदायक है।

जिस पुराने और त्रासदायक अतिसार (Diarrhoea) में पेट के भीतर पीड़ा नहीं होती; परंतु नल को खोलने पर जिस तरह जल की धारा गिरती है; उस तरह के बड़े-बड़े दस्त लगते रहते है; शौचालय में बल नहीं लगाना पड़ता; एक साथ घड़ा खाली करने समान जुलाब दिन में 4-5 बार होते रहते है; उस अतिसार में अंत्र (Intestine) की ग्राहक-शक्ति ( पानी को सुखाने की शक्ति) अत्यंत क्षीण होती है; तथा यकृत (Liver) रस और अंत्र-रस स्त्राव अधिक होते है। रोगी अतिशय क्षीण, कृश, दुर्बल, केवल अस्थिपंजरवत् बन जाता है। बोलने की शक्ति भी नहीं रहती; एवं बलमांस विहीनता की अंत्यावस्था होती है; ऐसी अवस्था में भी स्वर्ण पर्पटी जादू समान कार्य करती है। ऐसे अनेक रोगियों का प्राण इसने बचाया है।

ऐसे अतिसार से उत्पन्न उपद्रव रूप खांसी, श्वास, पांडुता (शरीर पीला पड़ जाना), हिक्का, या केवल निर्जन्तुक अनुलोम-प्रतिलोम क्षय, जिसमें क्रमशः रस धातु से शुक्र धातु तक या शुक्र धातु से रस धातु तक धातुएँ क्षीण होती है; इन सब पर स्वर्ण पर्पटी अच्छी उपयोगी है। स्वर्ण पर्पटी देने योग्य रोगियों की मानसिक स्थिति का केवल विचार करना चाहिये। मानसिक स्थिति अविकृत हो, तो स्वर्ण पर्पटी निःसंदेह लाभ पहुंचाती है।  

संग्रहणी-अनुलोम क्षय (Sprue) में विशेषतः जिह्वा से लेकर गुदनलिका तक समस्त पचनेन्द्रिय संस्थान की श्लेष्मिक कला (चिकनी त्वचा) पर सूक्ष्म- सूक्ष्म स्फोट हो जाते है। ये स्फोट विस्फोटक समान तीव्रतर नहीं होते; किन्तु इससे विलक्षण प्रकार के सौम्य होते है। इस कारण से रोगियों को बड़े सफेद रंग के और गरम-गरम दस्त लगते है। जिह्वा का स्वाद नष्ट हो जाता है; जिह्वा लाल कांटे वाली हो जाती है। कितने ही रोगियों की जिह्वा फटी सी भासती है। जिह्वा के नीचे के हिस्से में, गाल, कंठ (गला) और समस्त मुंह के भीतर त्वचा लाल हो जाती है। नमक या जल का स्पर्श भी सहन नहीं होता। कइयों को लाला (Saliva) अधिक निकलती है। कुछ लाल मुखपाक (मुंह में छाले) होता है, फिर अच्छा हो जाता है। ऐसा क्रम विशेष रहे, तब तक वर्षो तक चलता रहता है। मुखपाक शमन होने पर दस्त भी न्यून हो जाते है; और रोग निवृत होने का भ्रम हो जाता है। परंतु थोड़े निमित्त कारण मिलने पर पुनः समस्त लक्षण पूर्ववत् उपस्थित होते है। इस रोग में अन्न का रस ही अच्छा नहीं बनता जो बनता है; उसका भी संशोषण आमाशय (Stomach) और अंत्र स्फोटयुक्त होने से यथोचित नहीं होता। इस कारण से योग्य पोषण के अभाव में रोगी दिन-प्रतिदिन कृश (दुबला), अनुत्साही और निस्तेज होता जाता है।

इस व्याधि के मुख्य कारण विषयक विद्वानो में मतभेद है। कितनेक विद्वानों की मान्यता अनुसार इसका कारण यकृत के पित्तस्त्राव की विकृति है; इस कारण आधुनिक विद्यावाले गोरोचन, मत्स्य पित्त या बैल के पित्त को दही या मट्ठे के साथ देते रहते है।

आयुर्वेद के मत अनुसार किसी भी रोग में इस तरह के रासायनिक द्रव्य की अपेक्षा उसके उत्पादक और नियामक त्रिधातु और त्रिदोष को विशेष महत्व दिया है। इस दृष्टि से यकृत का पित्त स्त्राव कम होने या अन्य उपपति अनुरूप अन्य अन्तःस्त्राव की न्यूनता होने से अंत्र में विकृति हुई हो, उस तरह मान लें, तो भी आयुर्वेद की दृष्टि अनुसार यह स्थिति पित्त दोष से मानी है। जब पित्त दोष की दुष्टता दूर हो, और पित्त का योग्य नियमन होकर उसके बढ़े हुये अमलत्व (खट्टापन), उष्णत्व और द्रवत्व गुण न्यून हो, तब यह व्याधि स्वयमेव शमन होती है। यह महत्व का कार्य स्वर्ण पर्पटी करती है। किन्तु यकृत या अन्य पित्तस्थान के मंदत्व के कारण उस स्थान में उत्पन्न होनेवाले पित्त की उत्पत्ति ही कम हो, या उस स्थान से अंत्र में पित्त-स्त्राव ही कम जाता हो, तो पंचामृत पर्पटी देनी चाहिये।

अंत्र में ह्रदय के किटाणुओ की उत्पत्ति हो, तो हाथ-पैरों पर सूजन आ जाता है, खांसी, श्वास आदि उपद्रव होते है, तथा शरीर कृश और निस्तेज बन जाता है। ऐसे संग्रहणी (अनुलोम क्षय –Sprue) और प्रतिलोम क्षय में मानसिक अवस्था अविकृत हो, तो स्वर्ण पर्पटी के सेवन से अवश्य लाभ पहुंचता है। अनुपान रूप से दाडिमावलेह देवें।

यह स्वर्ण पर्पटी शीतल होने से पित्त प्रधान विकार में अच्छा काम देती है। जब यकृत में से पित्त की उत्पत्ति पूरी होने पर भी स्त्राव न्यूनांश में होता हो, अथवा अन्य अन्तःस्त्राव की न्यूनता से अंत्र में विकृति उत्पन्न हुई हो, मल बहुत अधिक परिमाण में एक साथ निकलता हो, और दस्त की संख्या अधिक न हो; तब स्वर्ण पर्पटी पित्त धातु को प्रकृतिस्थ नियमित बनाने का महत्व का कार्य करती है।

स्वर्णप्रधान इस रसायन से संग्रहणी के अतिरिक्त पित्तज प्रमेह, पांडु, पित्त प्रधान पेट दर्द, उन्माद (Insanity), शोष, राजयक्ष्मा आदि रोगों का भी नाश होता है।

मात्रा: 1 से 3 रत्ती दिन में 2 बार त्रिकटु और शहद के साथ। (1 रत्ती=121.5 mg)

स्वर्ण पर्पटी घटक द्रव्य और निर्माण विधि: शुद्ध पारद 4 तोले, शुद्ध गंधक 4 तोले और स्वर्ण भस्म या स्वर्ण का वर्क एक तोला। पहले पारद और स्वर्ण के वर्क को मिला, नीबू के रस में 6 घंटे खरल कर गरम जल से 3 समय घो लेवें। फिर गंधक मिलाकर कज्जली करें। स्वर्ण भस्म मिलाना हो, तो पारद-गंधक की कज्जली के साथ मिला लेवें। पश्चात कढाही में थोड़ा घी डाल कर उपरोक्त विधि से पर्पटी बना लेवे।       

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बुधवार, 19 मई 2021

द्राक्षारिष्ट के फायदे / Draksharishta Benefits in Hindi

द्राक्षारिष्ट के फायदे / Draksharishta Benefits in Hindi

द्राक्षारिष्ट (Draksharishta) भूख बढ़ानेवाला, शरीर को पुष्ट करनेवाला, शरीर को स्फूर्ति प्रदान करनेवाला तथा शरीर को पोषण देनेवाला है। द्राक्षारिष्ट के सेवन से कफ के रोग, शारीरिक निर्बलता, अग्निमांद्य, कब्ज आदि रोग दूर होकर शरीर हृष्ट-पुष्ट बन जाता है।

द्राक्षारिष्ट का प्रभाव सीधे श्वास यंत्र, वक्षःस्थल (छाती) और कलेजा (Liver) पर पड़ता है। यह कफ को शांत कर वायु का नाश करता है अतः खांसी, श्वास, गलरोग, प्रतिश्याय (जुकाम) जन्य उपद्रव, कफ जकड़ना, कुकुर खांसी आदि में अपना प्रभाव दिखाता है। 

द्राक्षारिष्ट में सबसे अधिक प्रमाण मुनक्का का है, मुनक्का कफ नाशक, पित्त नाशक, हल्की दस्तावर (Mild Laxative), थकान को दूर करनेवाला तथा दम, खांसी और जलन नाशक है। मुनक्का के उपरांत इस अरिष्ट में गुड़, दालचीनी, इलायची, नागकेशर, काली मिर्च आदि औषधियों का योग होने से यह अग्निमांद्य तथा आम (अपक्व अन्न रस) को नष्ट करता है। गुड़ वायु नाशक और योगवही होने के कारण कफ, वायु, श्वास यंत्र को शुद्ध करने में शहायक है। अग्निबल प्रद पौष्टिक पेय द्राक्षारिष्ट है इसमें संशय नहीं।  

द्राक्षारिष्ट बवासीर वालों तथा कमजोर लोगों को सेवन करने लायक उत्तम औषधि है। इसके सेवन से क्षय के रोगी की निर्बलता दूर होकर कफ कम होता है, जिससे रोगी को अधिक लाभ होता है। यह सदा सेवन करने लायक निर्दोष और बल-वीर्य वर्धक एक उत्तम टॉनिक है।

जिन लोगों को हमेशा कब्ज रहता है और अन्य विरेचक औषधियों का सेवन करते है, उनके लिये द्राक्षारिष्ट उत्तम है। इसके सेवन से कब्ज नहीं रहता और अग्नि प्रदीप्त होकर शरीर निरोग बन जाता है।

संक्षेप में यह अरिष्ट अग्नि को प्रदीप्त करके कब्ज, निर्बलता, खांसी, क्षय, थकान आदि रोगों को दूर करनेवाली निर्दोष औषधि है।

मात्रा: 10 से 20 ml समान मात्रा में पानी मिलाकर सुबह-शाम।  

द्राक्षारिष्ट घटक द्रव्य: मुनक्का 3 सेर 10 तोले, गुड़ 12.5 सेर, धाय के फूल 40 तोला तथा काली मिर्च, नागकेशर, इलायची, दालचीनी, प्रियंगु, तेजपात, वायविडंग और पीपल प्रत्येक 5-5 तोला।

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रविवार, 16 मई 2021

महाशंख वटी / Mahashankh Vati Uses in Hindi

महाशंख वटी / Mahashankh Vati Uses in Hindi

महाशंख वटी (Mahashankh Vati) के सेवन से अजीर्ण, पेट दर्द, मंदाग्नि, विषूचिका (Cholera) आदि रोगों का नाश होता है। महाशंख वटी उत्तम पाचन औषधि है। इस औषधि में बीड नमक होने से पेट में होने वाली गेस को यह बाहर निकाल देती है। कभी-कभी पेट में गेस उठती है और बाहर भी नहीं निकलती, फिर पेट में दर्द होता है। ऐसे समय पर इस औषधि से लाभ होता है। चित्रकादि वटी भी गेस को बाहर निकाल देती है।

महाशंख वटी में यवक्षार, सज्जीक्षार, पांचों नमक, शुद्ध हिंग, आदि दीपन-पाचन गुण के लिये मिलाये गये है। दीपन-पाचन का मतलब यह औषधियाँ अग्नि को भी प्रदीप्त करती है और अपक्व अन्न को भी पचाती है। शुद्ध पारद और शुद्ध गंधक की कज्जली औषधि के गुण में वृद्धि के लिये मिलाई गई है। इमली का क्षार अग्निमांद्य और शूल (Colic) का नाशक है। सोंठ, काली मिर्च, पीपल को त्रिकटु कहते है, त्रिकटु अग्नि को प्रदीप्त कर कफ-वात का नाश करता है। दंतीमूल रेचक, अग्निदीपक और पेट के रोगों का नाशक है। हरड़ अग्निदीपक, रसायन, त्रिदोष नाशक, रेचक तथा पेट के रोगों की नाशक है।

इन सभी औषधियों के योग से महाशंख वटी पाचक, अग्निवर्धक, वातानुलोमक (वायु की गति को नीचे की तरफ करनेवाली) और कृमि नाशक है। इसके सेवन से अपानवायु (नीचे की तरफ से निकलनेवाली वायु) छूटती है, अफरा, कब्ज आदि मिटते है। अग्नि प्रदीप्त होती है तथा अजीर्ण, विषूचिका आदि रोगों का नाश होता है। यह परिणामशूल (भोजन के बाद पेट में दर्द होना) में भी अच्छी उपयोगी है। परिणामशूल में शंखवटी और अग्निटुंडी वटी भी उपयोगी है।

महाशंख वटी का उपयोग अपचन, पेट दर्द, पेट में वायु भरा रहना, गेस आदि में होता है। यह पारद वाली औषधि होने से लंबे समय तक इसका उपयोग नहीं करना चाहिये। साथ-साथ इस औषधि में वच्छनाग होने से प्रमाण से अधिक मात्रा नहीं लेनी चाहिये।

मात्रा: 1-1 गोली सुबह-शाम या आवश्यकतानुसार लें। (1 गोली=250 mg)

बनावट: शंख भस्म 2 तोला; शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, शुद्ध वच्छनाग, शुद्ध हिंग, शुद्ध टंकण, पांचों नमक, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, पिपलामूल, चित्रकमूल, दंतीमूल, इमली का क्षार, यवक्षार, सज्जीक्षार, अजवायन और हरड़ प्रत्येक 1-1 तोला।      

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शुक्रवार, 30 अप्रैल 2021

कंठ सुधारक वटी के फायदे / Kanth Sudharak Vati Benefits

कंठ सुधारक वटी के फायदे / Kanth Sudharak Vati Benefits

कंठ सुधारक वटी (Kanth Sudharak Vati) अरुचि, मंदाग्नि, गला बैठना, उल्टी करने की इच्छा होना, बेचैनी, अजीर्ण, पेट की गेस, कफ, श्वास आदि रोगों को दूर करके अग्नि को परदीप्त करती है और चित्त को प्रसन्न बनाती है।

कंठ सुधारक वटी में मुलेठी, कपूर और लौंग यह औषधियाँ गले में जमे कफ को बलपूर्वक निकाल देती है, जिससे गला बैठना, गले में दर्द आदि में अधिका लाभ होता है। साथ-साथ यह वटी खांसी और श्वास में भी लाभ पहुंचाती है। पीपरमेंट के फूल रुचिकारक, अजीर्ण नाशक, पाचक और कफ-वात नाशक है। इलायची फेफड़े आदि से कफ को निकालकर खांसी को कम करती है तथा जावित्री अग्नि को प्रदीप्त करती है। इस तरह कंठ सुधारक वटी कफ, खांसी, गला बैठना, अरुचि, मंदाग्नि, श्वास आदि रोगों का नाश करती है।

मात्रा: 1-1 गोली मुंह में रखकर दिन में 10-15 बार धीरे-धीरे रस चूसते रहे। 

बनावट: सत मुलेठी 7 तोले, पीपरमेंट के फूल, कपूर, इलायची और लौंग 1-1 तोला और जावित्री 2 तोले लें। सबको मिला जल में आध घंटे खरल करके 1-1 रत्ती की गोलियां बांधे।

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शनिवार, 24 अप्रैल 2021

पंचामृत पर्पटी के फायदे / Panchamrit Parpati Uses in Hindi

पंचामृत पर्पटी के फायदे / Panchamrit Parpati Uses in Hindi

पंचामृत पर्पटी (Panchamrit Parpati) आम (अपक्व अन्न रस) और रक्तयुक्त वाहिका, संग्रहणी, अतिसार (Diarrhoea), अग्निमांद्य, उल्टी, बवासीर, बुखार, कृमि, सूजन, क्षय (Tuberculosis), पांडु (Anaemia), अम्लपित्त (Acidity) और प्रसूता स्त्रियों के ताप (बुखार), अतिसार, संग्रहणी, शिरदर्द और सूजन को दूर करती है।

सब कज्जलीयुक्त पर्पटीयों में पंचामृत पर्पटी (Panchamrit Parpati) श्रेष्ठ है। इस पर्पटी के कार्य मध्यम कोष्ठ (Stomach) में पचनेन्द्रिय को शक्ति दायक, अंतड़ी के दोष नाशक और जंतुध्न (जन्तु नाशक) इन तीनों प्रकार के है। पंचामृत पर्पटी का वियोजन भिन्न-भिन्न स्थानों में होता है। ग्रहणी (Duodenum) में थोड़े भाग का शोषण होने से उस जगह के दोष का शमन होता है। कुछ भाग यकृत (Liver) और पक्वाशय (Duodenum) में शोषण होकर लाभ पहुंचाता है। इनमें से ताम्र भस्म विशेषतः यकृत में जाकर अपना कार्य करती है; और लोह भस्म पक्वाशय में स्तंभक और शक्तिदायक असर पहुंचाती है। पारद, गंधक और लोह का कार्य बड़ी आंत (Large Intestine) की शक्ति को बढ़ाने के लिये होता है। अभ्रक भस्म श्वास की इंद्रियाँ, श्वास वहन करनेवाले स्त्रोत, श्वासवह केंद्र, धातु परीपोषण क्रम (अन्न रस से सब धातु रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि आदि का निर्माण) और मनोदेश को लाभ पहुंचाती है।

पंचामृत पर्पटी पित्तप्रधान रोगों में भी दी जाती है। कारण, ताम्र भस्म पित्त का निःसरण करती है; और पित्त मार्ग का प्रतिबंध मिटाती है। पित्त स्थान के मंदत्व के कारण पित्त की उत्पत्ति और स्त्राव कम होता हो, तो पर्पटी विशेष हितकर है। पुरानी संग्रहणी, पुराना क्षय जन्य अतिसार (Diarrhoea), पुराने अम्लपित्त (Acidity) से उत्पन्न अतिसार और रक्तरहित अतिसार में रोगी की प्रकृति के अनुसार मट्ठा या दूध के साथ देने से रोग को शीघ्र मिटाती है।

क्षयजन्य पुराना अतिसार और पुरानी संग्रहणी में पंचामृत पर्पटी का उत्तम उपयोग होता है। अति क्षीण हुये रोगियों को स्वर्ण पर्पटी भी दी जाती है परंतु स्वर्ण पर्पटी जब अधिक बुखार न हो; एवं रोगी की मानसिक अवस्था विचलित न हो, तब दी जाती है। केवल क्षयजन्य विष (Toxin) के कारण अंत्र में विकृति होकर अतिसार उत्पन्न हुया हो; फिर उससे रोगी अत्यंत क्षीण हुआ हो; और बल-मांस विहीनता की प्राप्ति हुई हो, तो स्वर्ण पर्पटी का उत्तम उपयोग होता है। स्वर्ण पर्पटी क्षय के विष की नाशक और स्तंभक है; इसमें शोधन (शरीर को शुद्ध करने का गुण) बिल्कुल नहीं है। पंचामृत पर्पटी में कुछ अंश में शोधन गुण भी रहा है। यह गुण भी कोमल प्रकृतिवालों पर प्रतीत होता है। अतः शोधन गुण की आवश्यकता होने पर पंचामृत पर्पटी दी जाती है।

पंचामृत पर्पटी का कार्य निर्जन्तुक क्षय में विषध्न (Anti-Toxic) और धातु-परीपोषण क्रम को व्यवस्थित करने का है। इसी हेतु से फुफ्फुस (Lungs), यकृत, अंत्र, तीनों स्थानों में से जहां क्षय-विकृति हुई हो, वहापर यह अपना लाभ पहुंचाती है यदि यह विरकृति जन्तुजन्य विषप्रकोप से हुई हो, और समस्त शरीर में फैल गई हो। उस कारण से शरीर कृश हो, तथा प्रबल अतिसार भी हो, तो स्वर्ण पर्पटी देनी चाहिये। स्वर्ण पर्पटी का कार्य विशेषतः अंत्रवृद्धि पर होता है, और पंचामृत पर्पटी के कार्यक्षेत्र अंत्र, यकृत और फुफ्फुस प्रदेश, ये तीन है।

मात्रा: 1 से 3 रत्ती दिन में 2 से 3 बार कूड़े की छाल, पीपल के चूर्ण और शहद के साथ मिलाकर चाटें। या भुनी हींग, सैंधा नमक और जीरे के साथ देवें। (1 रत्ती=121.5 mg)

पंचामृत पर्पटी घटक द्रव्य और निर्माण विधान: शुद्धपारद, लोह भस्म, अभ्रक भस्म और ताम्र भस्म 2-2 तोले और शुद्ध गंधक 8 तोले लें। सबको मिला, कज्जली कर यथा विधि पर्पटी बनाले। 
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