स्वर्ण पर्पटी (Swarna Parpati) पित्त शोधक (पित्त को शुद्ध करनेवाली), किटाणु नाशक और बल वर्धक है। सब प्रकार की संग्रहणी, क्षय (Tuberculosis), खांसी, श्वास, प्रमेह, शूल (Colic), अतिसार, मंदाग्नि और पांडु रोग का नाश करके जठराग्नि को प्रदीप्त करती है; और बल-वीर्य बढ़ाती है।
पर्पटी कल्प में
स्वर्ण पर्पटी अति महत्व की अग्रगण्य औषधि है। बिलकुल अस्थि-पंजर और मरणोन्मुख
रोगियों को भी स्वस्थ बनाती है। स्वर्ण पर्पटी के साथ में दूध विशेष लाभदायक है।
जिस पुराने और
त्रासदायक अतिसार (Diarrhoea) में पेट के भीतर पीड़ा नहीं होती; परंतु नल को खोलने पर जिस तरह जल की धारा गिरती है; उस तरह के बड़े-बड़े दस्त लगते रहते है; शौचालय में बल नहीं लगाना पड़ता; एक साथ घड़ा खाली करने समान जुलाब दिन में 4-5 बार
होते रहते है; उस अतिसार में अंत्र (Intestine) की ग्राहक-शक्ति ( पानी को सुखाने की शक्ति) अत्यंत
क्षीण होती है; तथा यकृत (Liver)
रस और अंत्र-रस स्त्राव अधिक होते है। रोगी अतिशय
क्षीण, कृश,
दुर्बल, केवल अस्थिपंजरवत् बन जाता है। बोलने की
शक्ति भी नहीं रहती; एवं बलमांस विहीनता की अंत्यावस्था होती
है; ऐसी अवस्था में भी स्वर्ण पर्पटी जादू
समान कार्य करती है। ऐसे अनेक रोगियों का प्राण इसने बचाया है।
ऐसे अतिसार से
उत्पन्न उपद्रव रूप खांसी, श्वास,
पांडुता (शरीर पीला पड़ जाना), हिक्का,
या केवल निर्जन्तुक अनुलोम-प्रतिलोम क्षय, जिसमें क्रमशः रस धातु से शुक्र धातु तक
या शुक्र धातु से रस धातु तक धातुएँ क्षीण होती है;
इन सब पर स्वर्ण पर्पटी अच्छी उपयोगी है। स्वर्ण पर्पटी देने योग्य रोगियों की
मानसिक स्थिति का केवल विचार करना चाहिये। मानसिक स्थिति अविकृत हो, तो स्वर्ण पर्पटी निःसंदेह लाभ पहुंचाती है।
संग्रहणी-अनुलोम
क्षय (Sprue) में विशेषतः जिह्वा से लेकर गुदनलिका तक
समस्त पचनेन्द्रिय संस्थान की श्लेष्मिक कला (चिकनी त्वचा) पर सूक्ष्म- सूक्ष्म
स्फोट हो जाते है। ये स्फोट विस्फोटक समान तीव्रतर नहीं होते; किन्तु इससे विलक्षण प्रकार के सौम्य होते है। इस
कारण से रोगियों को बड़े सफेद रंग के और गरम-गरम दस्त लगते है। जिह्वा का स्वाद
नष्ट हो जाता है; जिह्वा लाल कांटे वाली हो जाती है। कितने
ही रोगियों की जिह्वा फटी सी भासती है। जिह्वा के नीचे के हिस्से में, गाल, कंठ (गला) और समस्त मुंह के भीतर त्वचा
लाल हो जाती है। नमक या जल का स्पर्श भी सहन नहीं होता। कइयों को लाला (Saliva) अधिक निकलती है। कुछ लाल मुखपाक (मुंह में छाले) होता
है, फिर अच्छा हो जाता है। ऐसा क्रम विशेष
रहे, तब तक वर्षो तक चलता रहता है। मुखपाक शमन
होने पर दस्त भी न्यून हो जाते है; और रोग निवृत होने का भ्रम हो जाता है।
परंतु थोड़े निमित्त कारण मिलने पर पुनः समस्त लक्षण पूर्ववत् उपस्थित होते है। इस
रोग में अन्न का रस ही अच्छा नहीं बनता जो बनता है;
उसका भी संशोषण आमाशय (Stomach) और अंत्र स्फोटयुक्त होने से यथोचित नहीं
होता। इस कारण से योग्य पोषण के अभाव में रोगी दिन-प्रतिदिन कृश (दुबला), अनुत्साही और निस्तेज होता जाता है।
इस व्याधि के
मुख्य कारण विषयक विद्वानो में मतभेद है। कितनेक विद्वानों की मान्यता अनुसार इसका
कारण यकृत के पित्तस्त्राव की विकृति है; इस कारण आधुनिक विद्यावाले गोरोचन, मत्स्य पित्त या बैल के पित्त को दही या मट्ठे के साथ
देते रहते है।
आयुर्वेद के मत
अनुसार किसी भी रोग में इस तरह के रासायनिक द्रव्य की अपेक्षा उसके उत्पादक और
नियामक त्रिधातु और त्रिदोष को विशेष महत्व दिया है। इस दृष्टि से यकृत का पित्त
स्त्राव कम होने या अन्य उपपति अनुरूप अन्य अन्तःस्त्राव की न्यूनता होने से अंत्र
में विकृति हुई हो, उस तरह मान लें, तो भी आयुर्वेद की दृष्टि अनुसार यह स्थिति पित्त दोष
से मानी है। जब पित्त दोष की दुष्टता दूर हो, और पित्त का योग्य नियमन होकर उसके बढ़े
हुये अमलत्व (खट्टापन), उष्णत्व और द्रवत्व गुण न्यून हो, तब यह व्याधि स्वयमेव शमन होती है। यह महत्व का कार्य
स्वर्ण पर्पटी करती है। किन्तु यकृत या अन्य पित्तस्थान के मंदत्व के कारण उस
स्थान में उत्पन्न होनेवाले पित्त की उत्पत्ति ही कम हो, या उस स्थान से अंत्र में पित्त-स्त्राव ही कम जाता
हो, तो पंचामृत पर्पटी देनी चाहिये।
अंत्र में ह्रदय
के किटाणुओ की उत्पत्ति हो, तो हाथ-पैरों पर सूजन आ जाता है, खांसी, श्वास आदि उपद्रव होते है, तथा शरीर कृश और निस्तेज बन जाता है। ऐसे संग्रहणी
(अनुलोम क्षय –Sprue) और प्रतिलोम क्षय में मानसिक अवस्था
अविकृत हो, तो स्वर्ण पर्पटी के सेवन से अवश्य लाभ
पहुंचता है। अनुपान रूप से दाडिमावलेह देवें।
यह स्वर्ण पर्पटी
शीतल होने से पित्त प्रधान विकार में अच्छा काम देती है। जब यकृत में से पित्त की
उत्पत्ति पूरी होने पर भी स्त्राव न्यूनांश में होता हो, अथवा अन्य अन्तःस्त्राव की न्यूनता से अंत्र में
विकृति उत्पन्न हुई हो, मल बहुत अधिक परिमाण में एक साथ निकलता
हो, और दस्त की संख्या अधिक न हो; तब स्वर्ण पर्पटी पित्त धातु को प्रकृतिस्थ नियमित
बनाने का महत्व का कार्य करती है।
स्वर्णप्रधान इस
रसायन से संग्रहणी के अतिरिक्त पित्तज प्रमेह,
पांडु, पित्त प्रधान पेट दर्द, उन्माद (Insanity), शोष,
राजयक्ष्मा आदि रोगों का भी नाश होता है।
मात्रा: 1 से 3
रत्ती दिन में 2 बार त्रिकटु और शहद के साथ। (1 रत्ती=121.5 mg)
स्वर्ण पर्पटी
घटक द्रव्य और निर्माण विधि: शुद्ध पारद 4 तोले,
शुद्ध गंधक 4 तोले और स्वर्ण भस्म या स्वर्ण का वर्क एक तोला। पहले पारद और स्वर्ण
के वर्क को मिला, नीबू के रस में 6 घंटे खरल कर गरम जल से
3 समय घो लेवें। फिर गंधक मिलाकर कज्जली करें। स्वर्ण भस्म मिलाना हो, तो पारद-गंधक की कज्जली के साथ मिला लेवें। पश्चात
कढाही में थोड़ा घी डाल कर उपरोक्त विधि से पर्पटी बना लेवे।
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