बुधवार, 31 जुलाई 2019

रस सिंदूर के फायदे / Ras Sindoor Benefits


रस सिंदूर (Ras Sindoor) पाचक, योगवाही (जो औषध अन्य औषध के गुणों में वृद्धि करे उसे 'योगवाही' कहते है), रसायन, वाजीकरण, त्रिदोषशामक, यकृत (Liver)-प्लीहा (Spleen) विकार नाशक तथा आमाशय (Stomach) से लेकर गुदा तक पेट की श्लेष्मकला (Mucous Membrane) के दोषों को नाश करनेवाला है। वात, पित्त तथा कफ द्वारा आध्यमान (अफरा), अम्लपित्त (Acidity) तथा आम (अपक्व अन्न रस जो एक प्रकार का विष है और शरीर में रोग पैदा करता है) आदि के क्रमशः उत्पन्न होनेवाले विकारों को यह रस सिंदूर शोधक, शामक, शोषक और पाचक गुणों द्वारा विनष्ट करता है और अंत्र (Intestine) आक्षेप, अंत्र में जलन तथा अंत्र शैथिल्य को कुछ काल के ही सेवन से दूर कर देता है।

रस सिंदूर (Ras Sindoor) धातुक्षीणता (शरीर की धातुओ का कम होना, शरीर के अंदर सात धातुए होती है-जैसे रक्त-Blood, रस-Plasma, मांस-Muscles, मेद-Fat, मज्जा-Nerves, अस्थि-Bone और शुक्र-Semen), ह्रदयरोग, कफप्रधान प्रमेह, क्षय (Tuberculosis), श्वास, खांसी, वातरोग, पेट के रोग, मूर्च्छा, बवासीर, भगंदर, पांडु (Anaemia), दुष्ट व्रण (सड़ा हुआ घाव), शूल (Colic), उल्टी, बुखार, संग्रहणी, सन्निपात, मंदाग्नि, मगज की निर्बलता, स्त्रियों के गर्भाशय के दोष, गुल्म (Abdominal Lump), प्लीहाविकार और त्रिदोष प्रकोप आदि रोगों पर अति लाभदायक है।

रस सिंदूर का कार्य विशेषतः फुफ्फुस और श्वास वाहिनिया पर होने से कफ-स्त्रावी औषधियों के साथ देने से दूषित कफ, जो संचित हुआ हो, वह सरलता से छूटकर बाहर आ जाता है। कफ धातु निर्दोष बनती है; और फुफ्फुस-शोथ (फुफ्फुस-सूजन) नष्ट होकर फुफ्फुस बलवान बनते है। इसलिये कफप्रधान सन्निपात, फुफ्फुस सन्निपात (Pneumonia), इंफ्लुएंज़ा, श्वास रोग, पुरानी कफ की खांसी और जुखाम में कफ संचय होने पर विषघ्न और कफघ्न रूप से रस सिंदूर का उपयोग हितकर है।

कफस्त्राव कराने के लिये रस सिंदूर के उत्तेजक गुण का कार्य होता है। इस कफप्रकोप के विरुद्ध जब सुखी खांसी हो, तब इस रसायन का उपयोग बिलकुल नहीं करना चाहिये। अन्यथा खांसी बढ़ जायेगी, क्षोभ (Irritation) अधिक होगा। सुखी खांसी की अवस्था में प्रवाल पिष्टी, ब्राह्मी, मुलहठी, इलायची आदि शामक कफस्त्रावी औषधि देनी चाहिये।

कफ संचय होकर खांसी हो रही हो, तो रस सिंदूर को कफस्त्रावी अनुपान के साथ देने से कफस्त्राव दूर होता है; और खांसी भी कम हो जाती है। यदि कफ संचय को दूर न किया जाय, तो भीतर के स्त्रोत दुष्ट हो जाते है। फिर बुखार की उत्पत्ति हो जाने की संभावना रहती है। ऐसा अनेक बार श्लैष्मिक सन्निपात (Influenza) में प्रतीत हुआ है। श्लैष्मिक सन्निपात की तीव्र अवस्था नष्ट होकर जब पुनः पूर्व स्थिति की प्राप्ति होती है, तब फुफ्फुसों के किसी स्थान में कफ संचित रह जाता है, तो कुछ समय में पूयमय (पूय=Puss) दुर्गंध युक्त बन जाता है, फिर कफ निकलता है, वह हारा-पीला दुर्गंधमय निकलता है। इस तरह कफ विकृति होने पर बुखार आने लगता है। इस विकृति पर रस सिंदूर और शृंग भस्म मिलाकर दिये जाते है।

कितने ही मनुष्यों को बार-बार प्रतिश्याय (जुकाम) हो जाता है, उनको विशेषतः नासिका की श्लैष्मिक कला (Mucous Membrane), स्वर यंत्र में क्षोभ (Irritation) उत्पन्न होकर जुकाम हो जाता है, ऐसी प्रकृतिवालों को रस सिंदूर का सेवन कराने से क्षोभ दूर होकर व्याधि का निवारण हो जाता है। 

उरस्तोय (Pleurisy) होने पर फुफ्फुस आवरण में जल संचय होता है। इस जल की विकृति होने पर बुखार आने लगता है। यदि जल संचय अधिक हो, तो शस्त्र क्रिया द्वारा निकलवा देना चाहिये; और जल संचय मर्यादा में हो तो, रस सिंदूर को आरोग्यवर्धीनी वटी, शृंग भस्म और लघुमालिनी वसंत के साथ मिलाकर देना चाहिये। कफवृद्धि और बुखार होने पर रस सिंदूर अच्छा उपयोगी होता है।

उरःक्षत (छाती का मांस फटना) में यदि रक्त न पड़ता हो, पीला दुर्गंधवाला कफ मात्र गिरता हो, तो वासावलेह या अन्य व्रणरोपण (घाव को भरनेवाली) औषधि के साथ रस सिंदूर देने से शीघ्र क्षत (घाव) भर जाता है। ऐसे ही किटाणुजन्य क्षय आदि रोगों में सुवर्ण के वर्क और अभ्रक भस्म के साथ रस सिंदूर देने से किटाणुओं का नाश होता है और शारीरिक शक्ति का रक्षण होता है।

यद्यपि किटाणुजन्य क्षय की तीव्र अवस्था में उरःक्षत होने पर किसी भी औषधि का उपयोग नहीं होता, परंतु द्वित्य अवस्था में या तृत्य अवस्था के प्रारंभ में कफ की प्रधानता होने पर सुवर्ण, अभ्रक भस्म और रस सिंदूर से लाभ होने के अनेक उदाहरण मिले है। इस स्थान पर रस सिंदूर का उपयोग किटाणुनाशक रूप से होता है।

रस सिंदूर (Ras Sindoor) ह्रदय के बल को बढ़ाता, रक्ताभिसरण क्रिया (Blood Circulation) को उत्तेजना देता और स्नायुओ को भी दृद्ध बनाता है। इस कारण जब ह्रदय के संरक्षण की आवश्यकता हो तब अनेक रोगों में इसका उपयोग होता है।

रस सिंदूर कफदोष, रस, रक्त और मांस, ये दूष्य, एवं फुफ्फुस, श्वासवाहिनी, ह्रदय और आमाशय (Stomach) आदि कफ स्थानों पर विशेष प्रभाव दिखाता है।   

विभिन्न रोगों में विविध अनुपनों द्वारा तथा विविध योगों द्वारा रस सिंदूर अनेक रोगों का नाश करता है। यह रस अनुपान विशेष द्वारा विविध गुणकारी है।

मात्रा: ½ से 4 रत्ती तक। यथादोषानुपान अथवा मधु, मलाई, मक्खन, मिश्री, दूध में मिलाकर। (1 रत्ती = 121.5 mg)

सूचना: पित्तप्रधान प्रकृतिवालों को या पित्तप्रधान सुखी खांसी में या अन्य पित्तप्रधान रोग में रस सिंदूर का उपयोग नहीं करना चाहिये।

अनुपान:

वातरोग में – पीपल, शहद, मांसरस, तेल या लहशुन के साथ।

पित्तरोग में – आंवले के चूर्ण और मिश्री के साथ।

कफरोग में – अदरक के रस और शहद के साथ।

रक्तविकार में – शहद अथवा हल्दी और मिश्री के साथ।

कामला, पांडु और मंदाग्नि पर – त्रिकटु, त्रिफला और वासा के स्वरस के साथ।

मूत्रकृच्छ (पेशाब में जलन) पर – शिलाजीत, इलायची और मिश्री के साथ।

धातुवृद्धि के लिये – लौंग, केशर मिले नागरबेल के पान में या विदारीकंद के चूर्ण के साथ।

पेट के रोग पर – काला नमक, हल्दी, भांग और अजवायन के चूर्ण 1.5 माशे (1 माशा = 0.97 ग्राम) के साथ।

कृमि पर – 2 रत्ती पलासफल के चूर्ण और गुड़ में। (1 रत्ती = 121.5 mg)

मंदाग्नि पर – काला नमक और अजवायन के साथ।

बल वृद्धि के लिये – गिलोय सत्व के साथ।

ह्रदय की निर्बलता पर – पीपल और शहद के साथ।

वातज प्रमेह पर – शहद-पीपल के साथ।

पित्तज प्रमेह पर – त्रिफला और मिश्री के साथ।

खांसी, श्वास और शूल पर – त्रिकटु, भारंगी और शहद; शहद और पीपल; या भांगरे के रस के साथ।

मंदाग्नि, मलावरोध (कब्ज) और ह्रदय रोग पर – पीपल, चित्रकमूल, हरड़ और काले नमक के साथ।

शुक्रवृद्धि के लिये – कपूर आधा रत्ती, लौंग, केशर, जावित्री, अकरकरा, पीपल और भांग 2-2 रत्ती, तथा मिश्री 1 माशे के साथ 1 से 2 रत्ती रस सिंदूर देवें। अथवा केले के साथ।

सब प्रकार के बुखार पर – लौंग, चिरायता, हरड़ और काले नमक के साथ या जीरा और पीपल के साथ।

ह्रदय रोग, रक्तस्त्राव और पेट के रोग में – अर्जुन छाल के रस और शहद के साथ।

रस सिंदूर घटक द्रव्य तथा निर्माण विधि (Ras Sindoor Composition): 5 तोले शुद्ध पारद और 5 तोले शुद्ध गंधक की कज्जली करके उसे वड के अंकुरों के रस की 3 भावना देकर सुखालें, कज्जली शुष्क हो जाय तब कपड़मिट्टी की हुई अतसी शीशी में भरलें और फिर बालुका यंत्र में रखकर 4 प्रहर की अग्नि दें। शीशी के स्वांगशीतल हो जाने पर उसे सावधानी से तोड़े, बाल-सूर्य के समान रक्तवर्ण, मुख में लगे हुये द्रव्य को निकाल लें। यही “रस सिंदूर” है।

Ref: रसेन्द्र सार संग्रह

Ras Sindoor is digestive, rejuvenative and aphrodisiac. It is useful in liver and spleen disorder, disorder of mucous membrane of stomach, acidity, heart diseases, cough, asthma, musculoskeletal disorder, abdominal diseases, anaemia and piles. Ras Sindoor balances all the three doshas, destroys toxin generated within the body due to weak digestion, cures mental debility and abdominal lump.

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