मुक्ता पिष्टी
(Mukta Pishti) नेत्ररोग, धातुक्षीणता,
क्षय, उरःक्षत (छाती का मांस फटना), हृदय की निर्बलता, खाँसी, जीर्ण
ज्वर (पुराना बुखार), हिक्का, भ्रम
(चक्कर), नाकमेंसे रक्त गिरना, मस्तिष्क
की निर्वलता, नेत्रदाह (आँखों में जलन), शिरदर्द, पित्तवृद्धि, दाह
(जलन), प्रमेह और मूत्रकृच्छ्र (पेशाब में जलन) आदि दोषों को
दूर करती है। मोतीके सेवनसे पित्तकी तीव्रता और अम्लता (खट्टापन) कम होती है, तथा नेत्रज्योति वढती है। यह पिष्टी शीतवीर्य और मूत्रल है । मूत्रमार्ग
और सर्वाङ्गका दाह (पूरे शरीर में जलन) और पित्तवृद्धि को शमन करती है। निद्रानाश के
समय किसी भी रोग में मुक्तापिष्टी से निद्रा लानेमें सहायता मिलती है।
अत्यन्त त्रास, अत्यन्त क्रोध, अति जागरण , अति
अभ्यास, अतिमानसिक श्रम, अति उष्ण
पदार्थ सेवन, सूर्य के तापका सेवन, इन
कारणों से मस्तिष्क को त्रास होता है, यह शिथिलता और मामूली
कारणसे क्रोध करना, विचारहीनता, ऊंचा शब्द,
कठोर स्पर्श, तीव्र वास, थोड़ा बेस्वादु भोजन, विचित्र या भयानक रूप, बड़ी आवाज, स्पर्श आदि विषयोंका असहनत्व, थोड़े विचारमे ही मस्तिष्क फिर जाना, सर्वांग (पूरे
शरीर) और मस्तिष्क में दाह (जलन), निद्रानाश
इत्यादि अधिक बढ़े हुए विकारों पर मुक्ता पिष्टी (Mukta Pishti) का उपयोग बहुत अच्छा होता है।
बहुत बड़ा मानसिक आघात पहुँचने या शराब, गांजा, धत्तुरा आदि तीक्ष्णवीर्यउष्ण, और विकाशी पिदार्य के अति सेवनसे मस्तिष्क की विकृति होकर उन्माद का विकार
( विशेषतः पित्तज उन्माद ) होने से मुक्तापिष्टी का बहुत अच्छा उपयोग होता है। इस
विकार में मुक्तापिष्टी और सुवर्णमाक्षिक भस्म अथवा मोती ओर प्रवाल पिष्टी का
मिश्रण कूष्मांड पाक, ब्राह्मीलेह अथवा घृत के साथ देना
चाहिये।ऐसेही भूतोन्माद में भी अति त्रास देने वाले, क्रोधी
और लड़ाकू रोगियो के लिये भी मुक्ता पिष्टी उत्तम ओषध है।
मुक्ताके उत्तम शीतवीर्य (ठंडा) धर्म का
गर्मी के दिनों में होनेवाली जलन पर अच्छा उपयोग होता है। कितने ही श्रीमंत लोग
गरमी के दिनों में बहुत व्याकुल हो जाते है। अर्थात् शरीर की बाह्य उष्णता के साथ
समधर्म होने की पात्रता कम होकर समस्त शरीर विशेषतः संज्ञावाहिनियो को बाह्य
शिराये ( अन्तभाग ) विल्कुल मृदु हो जाती है । इस स्थिति में दाह- शामक अन्य
ओपधियो की अपेक्षा मुक्ता पिष्टी का उत्तम उपयोग होता है। कारण, यह पिष्टी वातवाहिनियो के लिये भी शामक गुण दर्शाती है।
गरमीके दिनों में तेज धूप, अग्नि के पास ज्यादा समय काम करने, धूप में ज्यादा
समय फिरने, अधिक जागरण करने या अपथ्य आहारसे नाक, मुह, गुदा, मूत्र, या अन्य मार्ग से रक्त गिरने लगता है। साथ-साथ हाथ-पैर और सर्वागमें दाह,
व्याकुलता आदि लक्षण होते हैं; तब रक्तस्राव
वन्द कर मस्तिष्क को शांति देने के लिये मुक्ता पिष्टी (Mukta Pishti) का उत्तम उपयोग होता है।
उपदंश या सुजाक होने के पश्चात्
पित्तप्रकोप होकर मूत्रमार्ग का दाह (जलन) होने या अन्य कारणो से पित्त बढ़कर
मूत्र का दाह होने अथवा मूत्र की तीव्रता, तीक्ष्णता आदि
बढ़ने के हेतुसे मूत्रमार्ग में दाह होनेपर मुक्ताका सेवन अति हितकारक है।
रक्त ज्यादा जानेसे उत्पन्न अन्तर्दाह
(शरीर के अंदर के हिस्से में जलन) अथवा अन्य कारणों से उत्पन्न अन्तर्दाह में मुक्ता
पिष्टी लाभदायक है। परन्तु त्रियों के योनिन्त्राव में अथवा इसके पश्चात् उत्पन्न
अन्तर्दाह में मोतीकी अपेक्षा वंग भस्म का विशेष उपयोग होता है। प्रतमक श्वास
रोगमें अन्तर्दाह होता हो तो मोती पिष्टी (मुक्ता पिष्टी) का उपयोग हितकर है।
बार-बार नेत्र दुखनेकी आदत, उसमें भी नेत्र खूब लाल होना नत्रोमेंसे गरम-गरम भाफ निकलना, और गरम-गरम अश्रु गिरते रहना इत्यादि लक्षण होने पर मोतीका बहुत अच्छा
उपयोग होता है।
पित्तज और कफ-पित्तज कास (खांसी) विकार में
यदि दाह आदि लक्षण हो, तो मुक्ता-पिष्टी (Mukta Pishti) देनी चाहिये।
क्षय रोग में दाह, व्याकुलता, अधिक ज्वर (बुखार),
अधिक तृषा आदि लक्षण हो, तो मोती पिष्टी
(मुक्ता पिष्टी) देनी चाहिये। क्षय की विल्कुल प्रथमावस्था में ही जिस तरह प्रचाल पिष्टी
का उपयोग होता है, उस तरह मोती का उपयोग दाह-विशिष्ट अथवा
पित्त-प्रधान लक्षण होने पर किया जाता है।
श्वासके कितनेक मेदवृद्धियुक्त रोगियो को मौक्तिक पिष्टी ज्यादा लाभ
पहुंचाती है। घबराहट, पेट में आग, सारे शरीरमें दाह,
इसमें भी हाथ-पैर में अधिक जलन, भयंकर
शोष, तृषा, वमन आदि लक्षण हो और पंखासे
वायु डालनेसे अच्छा मालूम होता हो, तो अन्य ओषधियों की
अपेक्षा इससे श्वासरोग का दमन त्वरित होता है।
पित्तज अम्लपित्त के कारण कठमें दाह (गले में जलन), मिर्च
लगने के समान गले में आग होना, गरम, खट्टी
और कड़वी वमन (उल्टी), वमन के साथ नेत्रो में जल आजाना और
भयंकर त्रास होना, मुह में छाले होजाना आदि विकृत्ति में
मुक्ता पिष्टी का उत्तम उपयोग होता है। यदि अम्लपित्त में मन्दाग्नि और दाह हो,
तो इसका अवश्य ही उपयोग करना चाहिये।
दाहयुक्त अतिसार में पीले रंगके गरम जल जैसे बडे-बडे दस्त होना, इस
हेतुसे उदर (पेट), लघुअन्त्र (Small Intestine), वृदन्त्र (Large Intestine) और गुदामार्ग में दाह
होता हो, तो मुक्ता पिष्टी के उपयोग से पित्तकी विषमता (Imbalance) दूर होकर साम्यावस्था (Balance) प्रस्थापित होती है,
और अतिसार बन्द होजाता है।
अतिसार के समान रक्तार्श में जलन, वेदना, गरम गरम रक्त गिरना, पश्चात् भयंकर जलन होना आदि
लक्षण होते है। कभी कभी इस जलन के कारण से रोगी मूच्छित भी होजाता है। ऐसे समय पर
मोती का बहुत अच्छा उपयोग होता है।
मूत्रकृच्छ या मूत्राघात (पेशाब की उत्पत्ति कम होना) में, मूत्र
के साथ रक्त जाता हो और जलन होती हो, तो मोती पिष्टी का बहुत
अच्छा उपयोग होता है। अनुपान में कुकरौंधे का रस विशेप अनुकूल रहता है।
अत्यार्त्तव (मासिक के वक्त ज्यादा खून आना) या योनिमार्गमेंसे रक्तपित्त
रोग के कारण रक्त गिरना, दाह, खाज और भयंकर त्रास होना आदि
विकारो में मोती पिष्टी धारोष्ण दूध या गुलकन्द के
साथ देनी चाहिये।
यदि
योनिमार्ग में अन्य समय में दाह, पुरुष-समागम के समय भयकर वेदना और जलन, कचित् दाह के कारणसे स्त्री के साथ समागम करना ही अशक्य होजाना इत्यादि
लक्षण हो, तो भी मोती (मुक्ता पिष्टी) का उत्तम उपयोग होनेके
अनेक उदाहरण मिले है।
अनुलोम
क्षय (रसक्षय संग्रहणी Sprue) में रसादि धातु से आरम्भ होकर उत्तरोत्तर रक्त आदि सब धातु क्षीण होजाती
है। इस कारणसे शरीर कृश (दुबला) और अशक्त होजाता है, साथ-साथ
अतिसार बड़े-बड़े गरम जल जैसे दस्त बार-बार होते हैं। मुह में छाले, और सारे शरीर में दाह होते है। ऐसे लक्षण होने पर मुक्ता पिष्टी का उत्तम
उपयोग होता है। इस रसक्षय में मुक्ता के सेवन से दाह कम होता है। साथ-साथ रस आदि सब धातु पुष्ट होकर धातु-परिपोपण क्रम उत्तम
प्रकार से सुधर जाता है, शरीर पुष्ट बनता है, शक्ति आती है; और शरीर का वर्ण उत्तम बनता है।
मुक्ता स्थूल रसायन-शास्त्रकी दृष्टिसे चूनेका कल्प है। परन्तु जीवन-रसायन की
दृष्टिसे चूना, मोती, प्रवाल, शंख,
कौड़ी, सीप, ये सब
भिन्न-भिन्न गुण करनेवाली स्वतन्त्र ओषधियों है।
मुक्ता पित्तदोष (विशेषतः तीक्ष्ण, उष्ण और अम्ल गुणकी
वृद्धिमें), रस, रक्त, मांस, अस्थि, ये दूष्य,
त्वचा, हृदय, क्लोम
(प्यास के लिये स्थान ), यकृत् , प्लीहा,
अन्तःश्रावक ग्रन्थिों और अन्य ग्रन्थियॉ, इन
सब पर लाभ पहुंचाती है।
मात्रा: आधा से एक रत्ती (1 रत्ती=121.5 mg) तक दिन में 2 बार दूध-मिश्री, मलाई, मक्खन, गुलकंद, आंवले का मुरब्बा, च्यवनप्राशावलेह या अन्य रोगानुसार
अनुपान के साथ दें।
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