शुद्ध प्रवाल को
खरल करके 21 दिन तक गुलाब जल मिला-मिलाकर चीनी मिट्टी के खरल में घोटने से प्रवाल
पिष्टी बनती है। प्रवाल पिष्टी क्षय (TB), पित्तविकार, रक्तपित्त (Haemoptysis), खांसी,
श्वास, विष (Toxin),
भूतबाधा, उन्माद (Insanity),
नेत्ररोग, इन सबको दूर करती है। प्रवाल मधुर, अम्ल, कफ-पित्तादि दोषों की नाशक, शुक्र और कांति की वर्धक है। यह पिष्टी भस्म की
अपेक्षा विशेष पित्तशामक, पित्तविकारध्न और सौम्य होने से
पित्तयुक्त सुखी खांसी, रक्तप्रदर,
रक्तपित्त, अम्लपित्त (Acidity), नेत्रदाह (आंखों में जलन), वमन (उल्टी) आदि विकारों में विशेष हितकर है, तथा यह मधुर और अम्ल होने पर भी दीपन-पाचन है। प्रवाल
मधुर है, अर्थात मिश्री समान मधुर नहीं, परंतु प्रवाल का परिणाम मधुर रस के अनुसार, शामक (Sedative), बृहण (शरीर को मोटा करनेवाला), प्रसादन आदि होते है। प्रवाल के शामक, शीतवीर्य और प्रसादन गुण का उपयोग भिन्न-भिन्न रोगों
में उत्तम प्रकार से होता है।
ज्वर (बुखार) के
प्रारंभ में आमावस्था हो, तो लंघन कराना चाहिये। लंघन के बाद पाचन
औषधि रूप से प्रवाल का बहुत अच्छा उपयोग होता है। ज्वरादि पाचन कषाय के स्थान में
प्रवाल पिष्टी दे सकते है। ज्वर का वेग तीव्र होने पर प्रवाल का अच्छा उपयोग होता
है। पित्तप्रधान ज्वर में दाह (जलन), तृषा,
प्रस्वेद (पसीना), शीर्षशूल (शिरदर्द), निद्रानाश, प्रलाप (Delirium),
चक्कर, उल्टी आदि लक्षण हो, तो यह बहुत अच्छा कार्य करती है। ऐसे समय पर इसे
गिलोय सत्व के साथ देना चाहिये। अन्य संक्रामक ज्वर या विषम ज्वर (Malaria) में पित्त-प्रधान लक्षण अधिक होने पर (ज्वर वेग तीव्र
होने पर) प्रवाल पिष्टी का ही उपयोग करना चाहिये। उतना अधिक पित्तज्वर होने पर
त्रिभुवनकीर्ति समान तीव्र और स्वेदल औषधि न देना ही अच्छा माना जायेगा। यदि देना
हो, तो सम्हालपूर्वक दे, और उसके साथ या स्वतंत्र रूप से प्रवाल पिष्टी दे। पित्तप्रधान
सन्निपात ज्वर में सन्निपातदोषध्न औषधि देने के साथ पित्त-दोष कम होने के और
ज्वरवेग को मर्यादा में लाने के लिये प्रवाल पिष्टी की योजना अवश्य करनी चाहिये।
शीतला, छोटी माता रोमांतिका,
अन्य संक्रामक ज्वर, या किटाणु-जन्य-दूषित ज्वर या आगंतुक
ज्वर में रोगी को भयंकर दाह (जलन), व्याकुलता और तीव्र ज्वर हो, तो प्रवाल की योजना करनी चाहिये। एवं सेंद्रिय विष की
तीव्रता से उत्पन्न ज्वर में भी प्रवाल पिष्टी दी जाती है। प्रवाल के सेवन से
विषप्रकोप और ज्वर, दोनों शांत हो जाते है। संक्षेप में
जब-जब ज्वर में पित्त की प्रधानता हो, तब-तब इसका उत्कृष्ट उपयोग होता है।
निस्तेजता, सर्वांग (पूरे शरीर) में विशेषतः हाथ-पैर में भयंकर
जलन, कितनेक समय तो जलन यहां तक बढ़जाना की
मनुष्य बिलकुल व्याकुल हो जाना; हाथ-पैरों पर मिर्च लगने समान वेदना होना, सब त्वचा शुष्क हो जाना आदि लक्षणयुक्त पैत्तिक कास
(खांसी) में प्रवाल पिष्टी मीठे अनार के रस अथवा मिश्री के साथ देनी चाहिये।
छोटे बच्चो की काली
खांसी में प्रवाल पिष्टी बहुत उत्तम औषधि है। विशेषतः खांसी बहुत ज़ोर की हो, खांसी के कारण नाक,
मुंह और कान से रक्त गिरता हो, साथ-साथ बच्चे का मुंह लाल हो जाता हो, चेहरा फुला हुआ अथवा सूजा हुआ हो, ऐसे लक्षण प्रतीत होने पर इसका बहुत अच्छा उपयोग होता
है। कारण, इसके योग से कंठ और सप्तपथ (Pharynx) का क्षोभ (Irritation) त्वरित उपशम हो जाता है। काली खांसी पर
प्रवाल पिष्टी, शृंग भस्म,
वंशलोचन, इलायची के दाने और अमृतासत्व का मिश्रण
विशेष गुणदायक है।
उरःक्षत (छाती का मांस फटना) जन्य खांसी में प्रवाल उत्तम
लाभदायक है। उरःक्षत में शुष्क कास (सुखी खांसी),
विदाह (जलन), रक्त गिरना आदि लक्षण होने पर प्रवाल
पिष्टी अवश्य देनी चाहिये, जिससे क्षतरोपण (घाव भरना) में भी सहायता
मिले।
सगर्भा स्त्रियों
को होनेवाली खांसी और उसके साथ उल्टी, प्रवाल पिष्टी के योग से शमन हो जाती है।
सगर्भावस्था में स्त्री को अपने शारीरिक घटकों में से बालक के अस्थिपोषणार्थ अस्थि
(हड्डी) उत्पन्न करने वाला द्रव्य देना पड़ता है। उसका परिणाम स्त्री के रक्त, पचनेन्द्रिय और अस्थि पर होता है, जिससे वह स्त्री निस्तेज हो जाती है। चलने में उसके
पैर दुखने लगते है। गोड़ी (घुटनो) पर शोथ (सूजन) आ जाता है। थोड़ा खाया हुआ भी सुख
से नहीं पचता। पेट फूल जाता है और वमन (उल्टी) होती है। ऐसी अवस्था में या ऐसी
जिनकी प्रकृति हो उन पर यह प्रवाल पिष्टी बहुत अच्छा काम करती है। जिस स्त्री के
बालक जन्म से बार-बार रोने वाले, निर्बल,
निस्तेज और दुर्बल होते है और जिनकी त्वचा में स्थान-स्थान पर सल पड़ते हो, वे थोड़े ही समय में दगा देते है। ऐसी स्त्रियों को
गर्भावस्था के प्रारंभ से अंत तक गिलोय सत्व और प्रवाल पिष्टी सितोपलादि चूर्ण के
साथ देने से बहुत अच्छा लाभ होता है। माता की ऐसी निर्बल स्थिति में संतान के
अस्थि, मांस और रक्त के अंश को योग्य परिमाण में
पोषण नहीं मिलता। यह विकार प्रवाल के सेवन से दूर होता है।
रसक्षय (शरीर की
सात धातुओ में से रस धातु का क्षय = कम होना) में प्रवाल पिष्टी अति हितावह है।
इसके योग से रस आदि धातु में पचन की वृद्धि होकर सब धातु उत्तम प्रकार से बनती है।
पित्ताभिषयंद
विकार में नेत्रों में लाली, जलन,
वेदना, नेत्र फूलने के समान ऊपर आ जाना और
रात्री दिन में जलन के कारण निद्रा न आना, आदि लक्षण होते है। इस पर प्रवाल पिष्टी
का उत्तम उपयोग होता है। इस रोग में प्रवाल पिष्टी और सुवर्णमक्षिक भस्म को मिलाकर
मिश्री और घी या दूध के साथ देना चाहिये।
नेत्र, हाथ, पैर,
मूत्र, इन सब में दाह (जलन) (पूयशुक्र या
पूयप्रमेह का दाह छोडकर), मूत्र का वर्ण लाल अथवा बहुत पीला, सर्वांग और त्वचा में भी दाह हो, विशेषतः गर्मी के दिनों में उष्ण पदार्थ के सेवन से
या जागरण से इस विकार की उत्पत्ति हुई हो, तो प्रवाल पिष्टी का उपयोग करना चाहिये।
इस अवस्था में मुक्तापिष्टी भी उपयोगी होती है। परंतु वह अति शीतवीर्य होने से
अत्यंत तीव्र जलन में उपयोगी है।
प्रवाल पिष्टी का
उपयोग पित्तोन्माद और भूतोन्माद पर होता है। उन्माद (Insanity) का कारण प्रथम मानसिक और बाद में शारीरिक होता है।
अथवा प्रथम शारीरिक कारण उपस्थित होकर पश्चात वह मनोदशा को दूषित करता है, परिणाम में उन्माद उत्पन्न होता है। गर (Toxin), तीव्र शराब, गाँजा आदि के सेवन से घोर शारीरिक दोष
उत्पन्न होकर उन्माद हो जाता है। यह दूसरे प्रकार के उन्माद का उदाहरण है। केवल
मानसिक आघात, शोक और मानोव्याघात से असह्य मानसिक
क्लेश होकर जो उन्माद होता है, उसे पहले प्रकार का उन्माद कहेगे। जो
दूसरे प्रकार का उन्माद है, जिसमें पित्तदुष्टि कारण है, जिसमें तीव्र शराब या तीव्र विष के सेवन से
पित्तदुष्टि होती है, वह पित्तदुष्टि प्रवाल पिष्टी के सेवन से
दूर होती है। इस रीति से उन्माद पर प्रवाल पिष्टी लाभदायक है।
कोष्टगत (पेट में
रहे) सेंद्रिय विष (गर) के कारण विशेषतः उसमें पित्तदुष्टि होने पर उन्माद होता
है। कितनेक रोगी बिलकुल पागल हो जाते है। ऐसे विकार में प्रवाल पिष्टी के साथ
आरोग्यवर्धीनी, चन्द्रप्रभा या शिलाजीत देना चाहिये।
भूतोन्माद में
पित्त का अनुषंग हो, तो प्रवाल पिष्टी देनी चाहिये। विशेषतः
क्रोधी, साहसी और दूसरों को संताप देने वाली
स्त्रियों को यह औषधि बहुत उपयोगी होती है। उन्माद के झटके के साथ नाक में से रक्त
गिरना, चेहरा बिलकुल लाल हो जाना, शिरायें खींच जाना आदि लक्षण होने पर प्रवाल पिष्टी
का बहुत अच्छा उपयोग होता है।
बालकों के
अस्थिवक्रता रोग (Rickets) पर प्रवाल पिष्टी अति उपयुक्त है। विलकुल
छोटे 3-4 मास के बच्चों से लेकर बड़े बच्चों तक सब के लिये यह उपयोगी है। इस रोग
में बालकों के नितंब (चूतड़) आदि स्थानो पर सल
(सिकुड़न) पड़ जाना, पैर और हाथ की, इनमें भी विशेषतः पैर की हड्डी मुड़ जाना, बार-बार थोड़े-थोड़े दस्त होना, ज्वर भी रहना इत्यादि लक्षण होने पर प्रवाल पिष्टी और
गिलोय सत्व को मिलाकर देना चाहिये। यदि खांसी भी हो,
तो शृंग भस्म भी मिला देवें। प्रवाल पिष्टी चुने का सेंद्रिय सौम्य कल्प होने से
अस्थि-मार्दव रोग में इसका अच्छा उपयोग होता है। इस रोग में चुने की न्यूनता मूल
कारण है। जिस द्रव्य की इस विकार में न्यूनता हुई है, उसी द्रव्य की प्रवाल पिष्टी के साक्षीत्व के कारण
प्राप्ति हो जाती है। इस रोग की प्रथम अवस्था से लेकर अंतिम अवस्था तक प्रवाल
पिष्टी का उत्तम उपयोग होता है।
प्रारंभिक रोग
में बालक अति अशक्त होजाते है। वमन (उल्टी), कभी-कभी अतिसार (Diarrhoea), अत्यंत कृशता (दुबलापन), बुखार रहना, सारे दिन रोते रहना, आदि लक्षण होते है। इस पर प्रवाल पिष्टी अति उपयोगी
है। यदि अपचन और अतिसार हो, तो सर्वांगसुंदर रस देना चाहिये।
बालकों के दांत
आने के समय होनेवाले विकारों में प्रवाल पिष्टी अति उपयुक्त है। विशेषतः यह रोग
ज्यादा दिन तक रहा हो, बुखार,
उल्टी, पीले पतले दुर्गंधयुक्त दस्त आदि लक्षण
हो, तो प्रवाल पिष्टी देनी चाहिये। जिस
बच्चों का दांत अति कठोर हो, उसके लिये भी प्रवाल पिष्टी अति उपयोगी
है।
बालक के स्तनपान
के कारण अनेक सुकुमार स्त्रियों का शरीर ज्यादा कृश,
निस्तेज और निर्बल हो जाता है। हाथ-पैरों की संधियों में पीड़ा होने लगती है। ऐसे
दोषों में प्रवाल पिष्टी का सेवन अधिक प्रशस्त है।
पित्तदोष की
दुष्टि को दूर करके उसमें साम्यावस्था (Balance) प्रस्थापित करने का धर्म प्रवाल का अति
महत्व का है, जिससे पित्तजन्य विशेषतः पित्त के
तीक्ष्ण, उष्ण आदि गुण बढ़ने से उत्पन्न हुए अनेक
विकारों में इस पिष्टी का अति उत्तम उपयोग होता है। पैत्तिक शीर्षशूल, उल्टी, जलन आदि पित्तप्रधान लक्षण हो, तो प्रवाल पिष्टी देनी चाहिये।
पित्तज अम्लपित्त
(Acidity) में बार-बार अत्यंत कड़वी, पीली, जलती हुई वमन (उल्टी), चक्कर, व्याकुलता,
शिरदर्द आदि लक्षण हो, तो प्रवाल पिष्टी देवें।
प्रवाल पिष्टी से
पित्त की तीव्रता और अम्लता दूर होकर दाह का शमन हो जाता है। अर्थात प्रवाल के योग
से माधुर्य उत्पन्न होता है। कामदूधा रस से भी यह कार्य होता है, परंतु वह स्तंभक है।
प्रवाल पिष्टी
शुक्रस्थान की विकृति में उपयोगी है। थोड़ी धूप लगी,
अग्नि के पास बैठे, थोड़ा-सा जागरण किया, थोड़ा उत्तेजक पदार्थ,
गरम मसाला या खटाई खाई, तो रात्री को स्वप्नावस्था होकर मालूम न
हो इस तरह शुक्रस्त्राव होता है। इस पर अच्छा उपयोग होता है।
खराब आदतों के
कारण शुक्रस्थान इतने निर्बल हो जाते है कि, मन को थोड़ा-सा आघात भी सहन नहीं होता।
स्त्री-विषयक मात्र बात मन में आई कि तुरंत शुक्रस्त्राव होने लगता है। वस्तुतः
ऐसे लोगो को सच्ची कामेच्छा का बोध ही नहीं है। मात्र इंद्रियों की लालसा होती है।
यह इंद्रिय-लालसा या मन की खराब स्थिति यहाँ तक बढ़ जाती है कि, कुछ कह नहीं सकते। स्त्रीजाति में से चाहे बहन-बेटी
क्यो न हो, कोई दृष्टिगोचर हुई कि, तुरंत इच्छा न होने पर भी मन में विकृति होकर
शुक्रस्त्राव हो जाता है। स्त्रियों के जेवरों की आवाज सुनी कि, शुक्रस्त्राव होता है। किसी सुंदरी का दर्शन हुआ कि, मन विकृत होकर शुक्रस्त्राव होता है। यह स्थिति, विशेषतः मानसिक स्थिति,
प्रवाल पिष्टी के योग से अति उत्तम प्रकार से सुधार जाति है। वंग भस्म शुक्रस्थान
को शक्तिदायक है, और प्रवाल शामक है। इस कारण अनेक समय इन
दोनों को मिश्रित करके देने की आवश्यकता रहती है।
पुराना सुजाक (Gonorrhoea) और उपदंश रोग (Syphilis) का परिणाम मूत्रमार्ग पर होने से बार-बार
मूत्रदाह (पेशाब में जलन) होता है। मूत्र का रंग पीला-लाल हो जाता है। मूत्र बहुत
गरम हो जाता है। साथ-साथ सारे शरीर में विशेषतः हाथ-पैर और नेत्रों में अधिक जलन, दाँतो में से रक्त गिरना, बार-बार मसूढ़े फूलना आदि लक्षण होते है। इस प्रकार
में प्रवाल पिष्टी अनंतमूल के साथ देने से उत्तम उपयोग होता है। यदि स्त्रियों को
भी अति पुरुष-प्रसंग, पुराना सुजाक या उपदंश के विकार के बाद
मूत्रमार्ग का ऐसा ही विकार हुआ हो, तो उनको भी प्रवाल पिष्टी देनी चाहिये।
सुजाक, उपदंश या अन्य कारणो से स्त्रियों के अपत्य मार्ग पर
जलन होकर स्फोट उत्पन्न हो जाते है। फिर गर्भाशय में जलन होती है। इस कारण से
गर्भाशय का कार्य भी यथोचित रूप में न होकर गर्भस्त्राव या गर्भपात हो जाता है या
समय के पहले प्रसव हो जाता है। ऐसे लक्षण होने पर प्रवाल पिष्टी का अति उत्तम
उपयोग होता है।
रक्तार्श (खूनी
बवासीर) और पित्तार्श (पित्त के कारण उत्पन्न बवासीर), दोनों प्रकार के अर्श में पित्त लक्षण अधिक होने पर
प्रवाल पिष्टी का उपयोग करना चाहिये। इन दोनों प्रकार के लिये प्रवाल पिष्टी, गिलोय सत्व और नागकेशर को मिलाकर मक्खन-मिश्री अथवा
बकरी के दूध के साथ देने से अच्छा लाभ होता है।
प्रवाल पिष्टी
पित्तदोष के तिक्षणत्व, उष्णत्व,
अम्लत्व आदि गुणो की वृद्धि को शमन करने में उपयोगी है। अस्थि, मज्जा, शुक्र,
मांस, ये दूष्य,
और आमाशय (Stomach), पचनेन्द्रिय, वातवह मंडल, मानोदेश ये स्थान, इन सब पर असर पहुंचाती है।
यकृत पित्त
(पित्ताशय में से निकलने वाला पित्त) तीव्र होजाने और अधिक मात्रा में निकलने पर
पैत्तिक शूल (दर्द) उत्पन्न होता है। यह शूल-भोजन के पहले रहता है। भोजन कर लेने
पर स्तंभित होता है। नलिका की श्लैष्मिक कला में व्रण होजाने से या छिल जाने से
बाहर से दबाने पर दर्द होता है। उस विकार पर प्रवाल पिष्टी गिलोय सत्व के साथ मिलाकर
आँवलो के रस में भोजन के 1 घंटे पहले दिन में दो बार देने से शूल शमन हो जाता है।
साथ में पित्त नलिका की श्लैष्मिक कला की विकृति को दूर करने के लिये रोज रात्री
को भोजन करने के आरंभ में 12-12 ग्राम त्रिफला धृत लेते रहना चाहिये।
क्षय (TB) की बिलकुल प्रथम अवस्था से लेकर तीसरी अवस्था तक
प्रवाल पिष्टी का उपयोग होता है। क्षय के प्रारंभ में बहुधा सारे शरीर में नाड़ीयां
खींचना, शुष्क कास (सुखी खांसी) और मंद ज्वर
(बुखार) आदि लक्षण होते है। इस अवस्था की शंका होने के साथ प्रवाल पिष्टी देना
प्रारंभ कर देने से सब अनिष्ट टल जाते है। परंतु यह अवस्था विशेषतः अनेकों के
लक्ष्य में नहीं आती। जब एक समान ज्वर और कास बढ़ने लगते है, और रोगी क्षीण होता जाता है, तब इस राज्यक्षमा (TB)
का संशय होने लगता है। इस अवस्था में ज्वर ज्यादा,
शुष्कता, शुष्क कास,
फुफ्फुस दूषित होने का भरपूर लक्षण अर्थात श्वास,
कास, फुफ्फुसों में व्यथा आदि चिन्ह जिन
रोगियों में दिखने लगे; उनको प्रवाल पिष्टी देना लाभदायक है। ऐसे
समय पर प्रवाल को शृंग भस्म और गिलोय सत्व के साथ देना चाहिये। क्षय की तीसरी
अवस्था में भी यह मिश्रण देना हितकर है। जब ज्वर अधिक त्रासदयक, भयंकर कास, उरःक्षत होकर उसमें से रक्त गिरना, पीला-हरा और दुर्गंधयुक्त कफ, सर्वांग (सारे शरीर) में विशेषतः कपाल पर पसीना आना, बहुधा प्रातःकाल पसीना आना, बेचैनी और प्यास अधिक,
रोगी की मुख-कांति निस्तेज और त्रस्त तथा भयंकर क्षीणता आदि लक्षण हो गये हों, तो भी प्रवाल पिष्टी को सुवर्ण भस्म और गिलोय सत्व के
साथ उपयोग में लेना लाभदायक है। इतना
लक्ष्य में रखें कि तीसरी अवस्था में किसी भी औषधि का निश्चित रूप से उपयोग नहीं
होता। फिर भी प्रवाल से वेदना में न्यूनता होती है।
चन्द्रपुटी प्रवाल
रक्तपित्त में बहुत उपयोगी होनेवाली औषधि है। रक्तपित्त विकार पित्तप्रकोप से
उत्पन्न होता है। पहले पित्तदोष का विदाह (जलन) होता है; फिर पित्त के आश्रय रक्त का भी विदाह होता है। रक्त
का विदाह होनेसे रक्त दुष्ट होकर उसमें पित्त का उष्णत्व गुण बढ़ जाता है, जिससे रक्तवाहिनियां दुष्ट होकर पतली हो जाती है; और उनका स्थितिस्थापकत्व गुण न्यून होजाता है। पश्चात
इनमें से फुटकर रक्त बाहर आने लगता है। यह रक्त मुंह, नाक, गुदा,
योनि या रोम-रोम में से निकलने लगता है। कितनों ही को स्त्राव चालू ही रहता है; और कितनों ही को थोड़े समय रुक-रुक कर स्त्राव होता
रहता है। उसमें विशेष दोष के अनुषंग के अनुरोध से अन्य औषधि दे सकते है। परंतु
इसके मूल में रहा हुआ विदग्ध पित्त, प्रवाल पिष्टी के योग मात्र से ही नियमित
होता है। इस पिष्टी के योग से पित्त की उष्णता आदि गुण शमन होकर उस में
साम्यावस्था (Balance) उत्पन्न होती है। इस रोग में प्रवाल
पिष्टी को सुवर्णमाक्षिक भस्म और हल्दी के साथ देना चाहिये। हल्दी में स्तंभक गुण
है; इस कारण से रक्तपित्त के बिलकुल प्रारंभ
में हल्दी को न देना, यह अच्छा है।
अनेक व्यक्तियों
को प्रकृति-भेद से बार-बार नाक में से रक्त गिरता रहता है, इनमें बहुधा के तो यह केवल गरमी के दिनों में ही
ज्यादा जाता है। बहुतसी स्त्रियों के मासिक धर्म के समय नाक में से रक्त गिरने
लगता है और बहुतसी स्त्रियों को गर्भावस्था में रक्त गिरता है। इन सब प्रकार की
विकृति में प्रवाल पिष्टी अमृत रूप है। ज्यादा समय तक लेने से यह जीर्ण (पुरानी)
विकृति दूर हो जाती है।
मात्रा: 1 से 2
रत्ती (1 रत्ती = 121.5 mg) तक दिन में दो समय सितोपलादि चूर्ण और
शहद, गिलोय का सत्व और शहद, गुलकंद, मलाई-मिश्री, मक्खन-मिश्री, या अन्य रोगानुसार अनुपान के साथ देवें।
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