बुधवार, 19 जून 2019

इरिमेदादि तेल के फायदे / Irimedadi Oil Benefits


इरिमेदादि तेल (Irimedadi Oil) मुख के रोगों के लिये श्रेष्ठ है। इसका गंडूष धारण करने से पुराना विषज और दोषज मुखपाक (मुंह के छाले) नष्ट होते है तथा मुख की दुर्गंध मिटती है। इसके लगाने से मसूडे मजबूत होते है तथा दांतो और मसूडो के रोग नष्ट होते है।

मुख को स्वच्छ, दांतो को मजबूत और मसूडों को दृद्ध और स्वस्थ रखने के लिये तेल गंडूष धारण करने का शस्त्रकारों ने अनेक स्थान पर आदेश दिया है। तेल स्नेह द्रव्य है। मुख की गुहा श्लेष्मकला प्रधान है। मुख के प्रत्येक स्थान को पेट और शरीर के स्वास्थ्य के लिये स्वच्छ और स्वस्थ रखना आवश्यक है। मुखको शुद्ध और श्लेष्मकलाओ को सूजन, जलन और व्रण (घाव) आदि विकारों से सुरक्षित रखने के लिये तेल गंडूष सर्वदा लाभप्रद है। यह सामान्य तेल की बात है।

इरिमेदादि तेल (Irimedadi Oil) विशिष्ट द्रव्यों से बना है। इसका प्रत्येक द्रव्य व्रणशोधक, व्रणरोपक (घाव को भरने वाला), सूजन का नाश करने वाला, क्षोभ (Irritation) नाशक, जीवाणुनाशक और विषनाशक है। इस कषाय रस प्रधान तेल के गंडूष धारण से मुख में श्लेष्म द्वारा उत्पन्न हुए विकार श्लेष्म के साथ-साथ नष्ट हो जाते है। दांत, मसूडे और लालाग्रंथियों के दोष, इस तेल को मुख में धारण करने और लगाने से, नष्ट होते है।  

इरिमेद: - कषाय, तिक्त, मुखरोग, दंतरोग, रक्तदोष, कंडु, कृमि, कफ, सूजन, विसर्प, कुष्ठ और व्रणनाशक प्रसिद्ध औषध है। इन्ही गुणों के कारण उत्पन्न हुए मुख, दांत, मसूडे आदि के विकारो के लिये श्रेष्ठ है।

घटक द्रव्य और निर्माण विधि (Irimedadi Oil Ingredients): इरिमेद (कीकर – विलायती बबूल) की छाल 6.25 सेर लेकर उसके छोटे-छोटे टुकडे करें और उसे 32 तोले जल में चतुर्थांश (8 सेर) अवशिष्ट पर्यंत पकाकर छानलें।

तेल: - 4 सेर (तिल तेल) ले।

कल्क द्रव्य: मजीठ, लोध्र, यष्टि मधु, कीकर की छाल, खैर छाल, कायफल, लाख, बड की छाल, नागरमोथा, छोटी इलायची, कपूर, अगर, पद्माक, लौंग, कंकोल, जायफल, पतंग की लकड़ी, गेरू, दालचीनी और धाय के फूल। प्रत्येक द्रव्य 1.25-1.25 तोले लेकर एकत्र पीसले।

उपर्युक्त क्वाथ में तेल मिलाकर उसे मंदाग्नि पर चढादें और फिर उसमे कल्क डालकर धीरे धीरे करछी से हिलाते जाय। जब जलीयांश नष्ट हो जाय तब इसे उतार कर ठंडा करे और छानकर शीशियों में भरकर प्रयोगार्थ सुरक्षित रखले।

Ref: भैषज्य रत्नावली, योग रत्नाकर, शार्गंधर संहिता,

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