शुक्रवार, 15 मार्च 2019

हरड़ के फायदे / Harad Benefits in Hindi


हरड़ एक ऐसी वनस्पति है जिसके संबंध में आयुर्वेद के प्रवर्तक महर्षियों ने बहुत बारीक अध्ययन किया है। वे लोग इस महान वनस्पति के बहुत निकट संपर्क में रहे है, और उनहोंने इसकी भिन्न-भिन्न जातियों का, इसके सूक्ष्म रासायनिक तत्वों का और मनुष्य शरीर पर होने वाले इसके विलक्षण प्रभावों का बहुत ही दिलचस्पी से अध्ययन किया था।

उनके मत से हरड़ की सात जातियाँ होती है। विजया, रोहिणी, पूतना, अमृता, अभया, जीवन्ती और चेतकी।

विजया तुम्बी के समान आकृति की होती है, रोहिणी गोल होती है, पूतना छोटी गुठली वाली होती है, अमृता नामक हरड़ मोटी होती है, अभया पाँच रेखावाली होती है, जीवन्ती स्वर्ण के समान पीले रंग की होती है और चेतकी हरड़ तीन रेखावाली होती है। इनमें चेतकी हरड़ काली और सफेद के भेद से दो प्रकार की होती है। सफेद जाती छः अंगुल लंबी और काली जाती (संभवतः यही जौ हरड़ या बाल हरड़ है) एक अंगुल लंबी होती है।

विजया हरड़ विंध्याचल पर्वत में पैदा होती है। पूतना और चेतकी हरड़ हिमालय पर्वत में पैदा होती है। रोहिणी हरड़ सिंधु नदी के तीर पर होती है। अमृता और अभया हरड़ चम्पा देश में बहुत होती है, जीवन्ती हरड़ सौराष्ट्र देश में उत्पन्न होती है और विजया हरड़ सर्वत्र पैदा होती है।

ऐसा प्रतीत होता है की आजकल जो हरड़ बाजार में मिलती है वह विशेष कर विजया जाती की होती है क्योंकि उसका आकार तुम्बी के समान लंबगोल होता है।

गुण दोष और प्रभाव:

आयुर्वेदीय चिकित्सा विज्ञान में हरड़ एक अत्यंत प्रभावशाली, दिव्य और रसायन औषधि मानी गई है। प्राचीन चिकित्सा शास्त्रियों की इस वनस्पति पर कितनी अधिक श्रद्धा थी यह उनके द्वारा इस वनस्पति के रक्खे हुए नमो से ही प्रकट होता है। इसकी विवेचना करते हुए एक स्थान पर लिखा है: - हरीतकी मनुष्यों के लिए माता के समान हित करने वाली है। कदाचित माता तो कभी-कभी क्रोधित भी हो जाती है मगर पेट में गई हुई हरीतकी कभी कुपित नहीं होती। जिसका रक्षण करने वाली माता गृह में न रही हो उसकी माता हरीतकी को समझना चाहिये।

हरड़ के संबंध में प्राचीन वनस्पति शास्त्र के अंदर बहुत अधिक अध्ययन किया गया है। इसके अंदर कौन कौन से रस रहते है, शरीर के अंदर भिन्न-भिन्न अवयवों पर इसके क्या प्रभाव होते है, सारे शरीर के संगठन पर यह क्या असर डालती है। इन सब बातों का बड़ा विस्तार से विवेचन किया गया है।

हरड़ के गुण धर्म का विवेचन करते हुए निघंटु रत्नाकर में लिखा है कि – हरड़ पांच रसों से (खट्टा, मीठा, कडवा, कसैला, चरपरा) युक्त होती है। सिर्फ लवण या खारा रस इसमें नहीं होता। यह योगवाही (जो औषध खुदके गुण न छोडते हुए दूसरे औषध के गुणों में वृद्धि करे उसे योगवाही कहते है), रसायन, अग्निदीपक, हलकी, दस्तावर, मेघाजनक (बुद्धिवर्धक), लेखन (शरीर को शुद्ध करने वाली), वात को अनुलोम (Balance) करने वाली, ह्रदय को बल देनेवाली, नेत्रों की ज्योति को बढ़ानेवाली, स्मृतिकारक, अवस्था स्थापक, बलकारक, कोढ को नष्ट करनेवाली, विवर्णतानाशक (शरीर का रंग सुधारने वाली), इंद्रियों को प्रसन्न करने वाली तथा मस्तक रोग, नेत्र रोग, स्वरभंग (गला बैठना), विषम ज्वर (Malaria), जीर्णज्वर (पुराना बुखार), पांडु रोग (Anaemia), ह्रदय रोग, कामला (Jaundice), शोष (TB), सूजन, मूत्राघात (पेशाब की उत्पत्ति कम होना), ग्रहणी, पथरी, वमन (उल्टी), प्रमेह, कृमि, श्वास, विष (Toxin), उदर रोग (पेट के रोग), खांसी, पसीना, मलस्तम्भ (कब्ज), आनाह (अफरा), कर्ण रोग, बवासीर, प्लीहा (Spleen), गुल्म (Abdominal Lump), हिचकी, व्रण, उरुस्तंभ (Paraplegia – कमर से नीचे का पक्षाघात), शूल (पेट दर्द) और अरुचि का नाश करती है।

हरड़ दाँतो से चबाकर खाने से अग्नि को बढ़ाती है, पीस कर खाने से मल का शोधन करती है। पकाई हुई खाने से मल को रोकती है और भुनी हुई खाने से त्रिदोष (वायु, पित्त, कफ) को नष्ट करती है।

हरड़ को भोजन के साथ सेवन करने से बुद्धि और बल को बढ़ाती है, इंद्रियों को प्रकाशित करती है, वात, पित्त और कफ के दोषों को नष्ट करती है तथा मल और मूत्र को निकालती है। भोजन के बाद सेवन की हुई हरड़ अन्न और जल के दोषों को दूर करती है तथा वात, पित्त और कफ से उत्पन्न दोषों को दूर करती है।

हरड़ लवण (नमक) के साथ कफ को, मिश्री के साथ पित्त को और घी के साथ वात के रोगों को और गुड के साथ संपूर्ण रोगों को नष्ट करती है।

हरड़ वर्षा ऋतु में सेंधे नमक के साथ, शरद ऋतु में पीपल के साथ, वसंत ऋतु में मधु (शहद) के साथ और ग्रीष्म ऋतु में गुड के साथ परम रसायन का काम करती है।

हरड़ से दूनी मुनक्का द्राक्ष लेकर और उनको घोटकर बहेडे के बराबर गोलियां बनावें। इस कल्याणकारी गोली को प्रातःकाल में जो मनुष्य सेवन करता है, वह पित्त रोग, ह्रदय रोग, रक्त दोष (Blood Disorder), विषम ज्वर (Malaria), पांडु रोग (Anaemia), वमन (उल्टी), कुष्ठ (Skin Diseases), खांसी, कामला, अरुचि, प्रमेह, आनाह, गुल्म, इत्यादि अनेक प्रकार के रोगों पर विजय प्राप्त करता है।

हरीतकी (हरड़) का प्रधान कार्य शरीर से विजातीय द्रव्यों को बाहर निकालकर शरीर के प्रत्येक अंग की क्रियाशीलता को व्यवस्थित करना है। पेट में, रक्त में, मस्तिष्क में, ह्रदय में, जननेन्द्रियों में जहां भी कहीं विजातीय सामाग्री होगी, वहीं से यह उसे बाहर निकाल कर उस स्थान का शोधन (Purification) कर देगी। इसी विलक्षण सामर्थ्य की वजह से ही प्राचीन चिकित्सा विज्ञान में इसकी इतनी किर्ति है। आधुनिक पाश्चात्य चिकित्सा विज्ञान ने अभी तक इस वनस्पति को पूरी कद्र के साथ नहीं अपनाया है, मगर आयुर्वेदिक चिकित्सक हजारों वर्षो से इस वस्तु का उपयोग बहुत सफलता के साथ, एक तात्कालिक रोग निवारक औषधि की बतौर नहीं परंतु एक जीवन विनिमय क्रिया को सुधारने वाली रसायन औषधि की बतौर करते आये है। हमारे यहाँ छोटे बच्चों को जन्म के साथ ही हरड़ की घुटी देने का रिवाज है। हरीतकी की इस घुटी से तात्कालिक उपद्रवों से तो बच्चा सुरक्षित रहता ही है मगर उसके रक्त में ऐसी रोग प्रतिरोधक शक्ति पैदा हो जाती है जो जीवन भर उसका साथ देती है।

हरड़ पेट में जाकर पहले कुछ दस्तों के द्वारा शरीर में एकत्रित विजातीय द्रव्यों को बाहर निकालती है। जब ये विजातीय तत्व बाहर निकल जाते है तब ये दस्त लगना अपने आप बंद हो जाता है। इन विजातीय तत्वों के निकल जाने के बाद जठराग्नि बहुत प्रबल हो जाती है और संग्रहणी तथा अजीर्ण की वजह से होनेवाले अनियमित दस्त भी बंद हो जाते है। पृथ्वी के ऊपर जितनी जाती के फल है उनमें बिना किसी प्रकार की प्रतिक्रिया या नुकसान पहुंचाये केवल हित ही हित करनेवाले तीन प्रकार के फल प्राचीन ऋषियों को दिखलाई दिये। ये तीनों फल हरड़, बहेडा और आंवला है जिनका सम्मिलित नाम उन्होने त्रिफला दिया।

प्राचीन वैधों ने इस त्रिफले का अथवा इसमें पडनेवाली एक एक वस्तु का स्वतंत्र रीति से मानव शरीर में होनेवाली लगभग सब प्रकार की व्याधियों पर उपयोग किया है, इनमें भी हरड़ का उपयोग सबकी अपेक्षा अधिक मात्रा में द्रष्टिगोचर होता है। आजकल के वेध भी दमा, खांसी, प्रमेह, नेत्ररोग, अर्श (बवासीर), कुष्ठ (Skin Diseases), सूजन, पेट के रोग, कृमि, स्वरभंग, कब्जियत, विषमज्वर, वायुगोला, कामला, शूल, संग्रहणी इत्यादि रोगों पर भिन्न-भिन्न अनुपनों के साथ हरीतकी का उपयोग सफलतापूर्वक करते है।

डॉ. देसाई के मतानुसार हरड़ मृदु विरेचक, बवासीर को नष्ट करनेवाली, सूजन नाशक, रक्त संग्राहक, कामोद्दीपक, व्रणरोपक (घाव को भरनेवाली) और अवस्था स्थापक होती है। यह सारे शरीर की विनिमय क्रिया को सुधारती है इसलिये इसको रसायन कहते है। इससे भूख लगती है, अन्न पचता है और दस्त साफ होता है। कोठा साफ करने के लिये इसको देने पर पहले दस्त लगकर कोठा साफ हो जाता है मगर साफ होने पर फिर दस्त अपने आप बंद हो जाते है। इससे पेट में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होता। इसको लंबे समय तक सेवन करने से भी किसी प्रकार की हानि नहीं होती। इसके सेवन से ह्रदय और रक्तवाहिनियों की शिथिलता दूर होती है। रकताभिसरण क्रिया में सुधार होने से मस्तिष्क में अधिक रक्त पहुंचता है, जिससे मस्तिष्क में तरावट आती है, नींद अच्छी आती है, वीर्य गाढ़ा होता है और स्त्री संभोग में आल्हाद उत्पन्न होता है, शरीर का रंग सुधरता है और वजन बढ़ता है। हरड़ की यह क्रियाएं कम से कम इसको एक महीने तक लेते रहने पर दिखाई देती है।

हरड़ के गुणों का वर्णन करते हुए महर्षि चरक लिखते है कि – “संसार के अंदर दो प्रकार के रसायन द्रव्य होते है। एक अवस्था स्थापक अथवा जीवनी शक्ति (Vitality) को बढ़ाने वाले और दूसरे रोग निवारक (Immunity) शक्ति को बढ़ाने वाले। अवस्थास्थापक द्रव्यों में आंवला सर्व श्रेष्ठ होता है और रोगनिवारक द्रव्यों में हरड़ अपनी जोड़ नहीं रखती। आंवला शीतवीर्य (ठंडा) होता है और हरीतकी उष्णवीर्य (गरम) होती है।

आगे चलकर महर्षि चरक लिखते है कि – हरड़ कुष्ठ, गुल्म, उदावर्त (पेट में गेस उठना), पांडु रोग, मद (नशा), अर्श, संग्रहणी, पुराना विषम ज्वर, ह्रदय रोग, शिरोरोग, अतिसार, अरुचि, खांसी, प्रमेह, आनाह (अफरा), प्लीहा, नवीन पेट के रोग, स्वरभंग, विवर्णता, कामला, कृमिरोग, शोथ (सूजन), तमक श्वास, वमन, नपुंसकता, अंगो की शिथिलता, छाती और फुफ्फुस में कफ का भर जाना, स्मृति और बुद्धि का नाश आदि रोगों को शीघ्र ही जीत लेती है।

बालहरड़ या जौहरड़ मृदु विरेचक, वायुनाशक और बलकारक होती है। यह बडी हरड़ के समान रसायन धर्मवाली नहीं होती, इसकी क्रिया सिर्फ पाचन नलिका पर होती है। नमक मिलाने से इसकी क्रिया विशेष उत्तम हो जाती है।

कुपचन रोगों में बडी हरड़ बहुत उत्तम वस्तु है, अतिसार (Diarrhoea), आंव और आंतों की शिथिलता में इसका उत्तम प्रभाव दिखाई देता है। बवासीर के रोग में इसको सैंधे नमक के साथ देते है। खूनी बवासीर में इसका क्वाथ बनाकर दिया जाता है। अर्श (बवासीर) की सूजन उतारने और उसकी वेदना को दूर करने के लिये इसको पानी में पीसकर लेप करते है।

जीर्ण ज्वर (पुराना बुखार) और प्लीहा (Spleen) की वृद्धि में हरड़ का चूर्ण बीड लवण के साथ दिया जाता है। यद्यपि इससे प्लीहा का संकोच होने में अधिक समय लगता है फिर भी उसके दरमियान रोगी के स्वास्थ्य में काफी सुधार हो जाता है। किसी भी स्थान से होनेवाले रक्तस्त्राव को रोकने में भी हरीतकी एक उत्तम वस्तु है।

कितने ही लोगों को अधिक पसीना आने, नाक बहाने और सर्दी होने पर बहुत लंबे समय तक कफ पडने की आदत होती है और कुछ मनुष्यों को जरा सी चोट लगते ही पककर पीप बहने की आदत होती है ऐसे मनुष्यों को हरीतकी का सेवन करने से बहुत लाभ होता है। वीर्य पतला हो गया हो तथा जननेन्द्रिय में शिथिलता आ गई हो तो हरड़ के रसायन का सेवन करने से वह दूर हो जाती है।

बाल हरड़ या जौ हरड़, अजीर्ण की वजह से होनेवाले दस्त, मरोडी, जीर्ण अतिसार, जीर्ण आँव, गुल्म, प्लीहावृद्धि और बवासीर रोग में बहुत गुणकारी होती है। हमेशा की आदतन कब्जियत में अंग्रेजी औषधि कासकारा सेग्रेडा जैसा लाभ बतलाती है उससे भी अधिक यह छोटी हरड़ दिखलाती है। कब्ज को नष्ट करने के लिये कई महीनों तक इसको देते रहने पर भी कोई हानि नहीं होती। कब्ज की वजह से होनेवाले बवासीर में भी यह उपयोगी होती है।

चरक और सुश्रुत के मतानुसार हरीतकी बवासीर रोग में बहुत उपयोगी होती है। इसके चूर्ण को गुड में मिलाकर खाने से खूनी और भीतरी बवासीर में बहुत लाभ होता है।

सुश्रुत के मतानुसार लगातार कायम रहनेवाली हिचकी में हरीतकी का चूर्ण गरम पानी के साथ देने से हिचकी बंद हो जाती है।
हरड़, बहेडा और आंवला 2-2 तोला (25-25 ग्राम), मिश्री 3 तोला (35 ग्राम) इन सब को गुलाबजल में घोट कर गोलियां बना लेना चाहिये, इन गोलियों को 7 ग्राम की मात्रा में सेवन करने से बवासीर मिटती है।

हरड़ के चूर्ण को शहद के साथ चाटने से अथवा गुड के साथ गोली बनाकर खाने से अम्लपित्त (Acidity) मिटता है।

हरीतकी के क्वाथ में शहद मिलाकर पीने से सब प्रकार के मुखरोग मिटते है।

अरब के लोगों का विश्वास है कि जिस प्रकार घर कि संभाल रखने में स्त्री दक्ष होती है उसी प्रकार पेट की संभाल रखने में हरड़ एक बहुत उपयोगी वस्तु है।

उत्तम हरड़ की पहचान: जो हरीतकी नवीन, स्निग्ध, घन, गोल, भारी और पानी में डालने पर डूब जाती है वह हरड़ अत्यंत गुणवाली और श्रेष्ठ होती है। जो हरीतकी उपरोक्त गुणों से युक्त हो और वजन में चार तोल के करीब हो उसे सर्वगुण सम्पन्न समझना चाहिये।

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