मंगलवार, 24 दिसंबर 2019

त्रिभुवन किर्ति रस के फायदे / Tribhuvan Kirti Ras Benefits


त्रिभुवन किर्ति रस (Tribhuvan Kirti Ras) ज्वरघ्न (बुखार का नाश करनेवाला), कफघ्न, स्वेदल (पसीना लानेवाला) और वेदनाहर है। सब प्रकार के वातप्रधान और कफप्रधान नये बुखार, वातकफ ज्वर (Influenza), ठंडी देकर आने वाले सततज्वर और संततज्वर एवं कफप्रधान सन्निपात को नष्ट करता है। यह त्रिभुवन किर्ति रस नवीन बुखारों के लिये प्रसिद्ध औषधि है। इसके सेवन से समस्त ज्वर आराम होकर शीघ्र नाश होते है। यह स्वेदल है तथा वात और कफ के विकारों को शांत करता है। इसके सेवन से समस्त प्रकार के ज्वर और 13 प्रकार के सन्निपात का नाश होता है।

यह त्रिभुवन किर्ति रस (Tribhuvan Kirti Ras) वातज्वर, कफज्वर और वातकफात्मक ज्वर में अत्युत्तम औषधि है। यह रस वच्छनाग प्रधान औषधियों में एक अत्युत्तम कल्प है। इसका उपयोग वात, कफ और वात-कफ जन्य बुखार, उन दोषप्रधान विषमज्वर (Malaria) और सन्निपातिक ज्वर में होता है। यह कल्प तीक्ष्ण गुण युक्त होने से पित्तप्रधान सन्निपात या पित्तप्रधान अन्य ज्वर में उपयोग नहीं करना चाहिये। कदाच उपयोग करना पड़े, तो प्रवालपिष्टी या अन्य कोई पित्तनाशक औषधि मिलाकर कम मात्रा में करना चाहिये। रोमांतिका, अन्य कफप्रधान शोथ (सूजन) और अंतरेंद्रिय के उपताप से उत्पन्न ज्वर (कंठ में स्थित ग्रंथियों के शोथ से या श्वासनलिका के उपताप से ज्वर या अन्य आंतरिक वेदना से उपतन्न ज्वर) में कफप्रधान दोष होने पर यह औषधि अप्रतिम कार्य करती है।

त्रिभुवन किर्ति रस (Tribhuvan Kirti Ras) में ज्वरनाशक धर्म वच्छनाग का है। किन्तु वच्छनाग में ह्रदय अवसादक (ह्रदय को शिथिल करने वाला) दोष है। उसे दूर करने के लिये और स्वेदल और ज्वरघ्न गुण बढ़ाने के लिये अन्य द्रव्यों का संयोग करा तुलसी, अदरख और धतूरे के पत्तों के रस की भावना दी है। इन भावनाओं के कारण वात-कफ नाशक कल्प बना है।

त्रिभुवन किर्ति रस (Tribhuvan Kirti Ras) की योजना अति सावधानता पूर्वक की है। फिर भी वच्छनाग का धर्म उसमें रहे हुए उग्र विष के कारण तत्काल प्रतीति में आता है। इस वच्छनाग के कारण ही रोगी की नाड़ी मंद होती है। यद्यपि नाड़ी की गति विशेष मंद न होने के लिये इस औधाधि में पिपलामूल, पीपल, सोंठ, कालीमिर्च, तुलसी का रस और अदरख का रस, इन ह्रदयपौष्टिक औषधियों की योजना की है; तथापि वच्छनाग का स्वभाव पूर्णांश में दूर नहीं होता।

त्रिभुवन किर्ति रस (Tribhuvan Kirti Ras) का सेवन करने पर तत्काल ह्रदय, मस्तिष्क स्थित ह्रदय केंद्र, त्वचा और वृत के ऊपर परिणाम होता है; नाड़ी का वेग और बल कम होते है, त्वचा और स्वेद ग्रंथियां उत्तेजित होती है; आध घंटे में ही प्रस्वेद आने लगता है; मूत्र का परिमाण बढ़ जाता है; ह्रदय के स्पंदन और बल न्यून हो जाते है; नाड़ी शिथिल होती है; श्वासोच्छ्वास क्रिया मंद होती है; सब स्थानों की वेदना कम होती है; वातवाहिनियों के अंतिम सिरे संज्ञाशून्य हो जाते है; तथा उपताप और शोथ में से रक्त स्वाशय में वापस आने की महत्व की क्रिया भी इस रस के योग से होती है।

पूरे शरीर में कंप, नाड़ी का विषम वेग, नाड़ी तीव्र और दृद्ध होना, शिर में विलक्षन वेदना, जड़ता, बार-बार छीकें आना, अंग जकड़ जाना, मस्तिष्क, छाती, पीठ आदि में शुल चलना, थोड़ा चलने पर दर्द में वृद्धि होना, उष्ण जल या उष्ण पदार्थ सेवन की इच्छा, उष्ण पदार्थ सेवन से अच्छा लगना, मुंह में बेस्वादुपन, पैरों में ऐंठन, कान में से आवाज निकलना, सुखी, त्रासदायक और असह्य वेग युक्त खांसी, खांसी के साथ कंठ में पीड़ा होना, खांसी के कारण छाती और पीठ में शूल (दर्द) चलना, कंठ में ग्रंथियां सूज जाने से खांसी आना, कंठ बैठ जाना, इतने तक कि बोलने में भी दर्द होना, स्वरयंत्र, कंठ और मस्तिष्क में शूल चलना, रोंगटे खड़े होना, संधि-संधि में दर्द, नासिका के भीतर में वेदना, इन लक्षणों से युक्त नूतन (नया)  ज्वर (बुखार) किन्तु निराम ज्वर (जिस ज्वर में आम कारण न हो) में त्रिभुवन किर्ति रस (Tribhuvan Kirti Ras) का उपयोग होता है। जब तक लालास्त्राव आदि साम ज्वर (आम सह ज्वर) के लक्षण हों; तब तक यह रस नहीं देना चाहिये।

ज्वर वेग तीव्र न हो, मंद हो, सर्वांग (पूरे शरीर में) अतिशय जड़ता, चलने की इच्छ का अति अभाव, आलस्य, आफरा, पेट जकड़ जाना, अतिशय निद्रा, सारे शरीर में मंद-मंद वेदना, खांसी, छाती भारी और जकड़ी हुई, नाक और मुंह में से कफ स्त्राव, जुकाम, कंठ में दर्द, हाथ-पैर टूटना, संधि-संधि में पीड़ा, मस्तिष्क जकड़ जाना, गरदन में दर्द, पसीना न आने से शिथिलता और जड़ता भासना, ये लक्षण होने पर त्रिभुवन किर्ति रस (Tribhuvan Kirti Ras) की योजन करनी चाहिये।

विषम ज्वर (Malaria) में सतत और संतत ज्वर में इस त्रिभुवन किर्ति रस (Tribhuvan Kirti Ras) का उपयोग होता है। तृतीयक और चातुर्थिक ज्वर में शीतभंजी रस, महा ज्वरांकुश रस, नारायण ज्वरांकुश आदि उपयोगी है। संतत ज्वर 8-10 दिनों तक रहता है; बीचमें नहीं उतरता। सतत ज्वर दिन में कुछ समय के लिये उतर जाता है, फिर आ जाता है। पीठ में पीड़ा होकर ज्वर का प्रारंभ होना, नाड़ी का विषम वेग, पसीना कम आना, सर्वांग में व्यथा, बेहोशी न होना, प्रलाप, प्रलाप करने पर अच्छा लगना, शांत रहने पर व्याकुलता, मुख में शुष्कता (सूखापन), शीतल की अपेक्षा उष्ण जलपान की इच्छा, उष्ण जलपान से तृषा कम होना और कुछ अच्छा लगना, ये लक्षण होने पर इसे तुलसी के रस और शहद या तुलसी के क्वाथ के साथ देवें।

त्रिभुवन किर्ति रस (Tribhuvan Kirti Ras) का उपयोग श्वसनक और श्लैष्मिक सन्निपात (Pneumonia और Influenza) में उत्तम प्रकार से होता है। न्यूमोनिया में इस रसायन के साथ अभ्रक भस्म, शृंग भस्म और चंद्रमृत रस मिलाकर देने से अच्छा लाभ होता है। आंत्रिक सन्निपात (Typhoid) में विशेषतः पित्तप्रकृति के रोगी को यह औषधि देने पर अधिक त्रास होता है। आंत्रिक सन्निपात में ज्वर वेग अधिक हो; तथा नाड़ी तीव्र और दृद्ध होने पर क्वाचित त्रिभुवन किर्ति रस (Tribhuvan Kirti Ras) को प्रवाल पिष्टी, गिलोय सत्व और सितोपलादि चूर्ण के साथ मिलाकर दिया जाता है।

श्वासनक और श्लैष्मिक सन्निपात में ज्वर वेग मर्यादा में हो, मंद भारी नाड़ी, अंग में अतिशय व्यथा, कमर और पीठ में शूल निकलना और पीड़ा होना, शीतल वायु, शीतल जल और शीतल उपचार से दुःख होना, और सब लक्षण बढ़ जाना, मस्तिष्क में भारीपन, मस्तिष्क में मंद वेदना, कंठ में दर्द होना और कुछ शोथ-सा भासना, खांसी, पसलियों में पीड़ा होना, खांसी आने पर अधिक पीड़ा होना, श्वास लेने में व्यथा, खांसी लेने पर छाती दब रही है, ऐसा भास होना आदि लक्षण होने पर त्रिभुवन किर्ति रस (Tribhuvan Kirti Ras) का उपयोग करना चाहिये।

वात-कफ प्रधान श्लैष्मिक सन्निपात (Influenza) में त्रिभुवन किर्ति रस (Tribhuvan Kirti Ras) का उत्तम उपयोग होता है। घबराहट, जलन आदि पित्त लक्षण न हों, सर्वांग में मंद शूल, अंगुलियों की संधि और शरीर की सब संधियों में दर्द, हाथ-पैर टूटना, जुकाम होकर फिर सुखी त्रासदायक खांसी, कंठ की श्लैष्मिक कला (चिकनी त्वचा) में क्षोभ (प्रदाह), क्वचित यह क्षोभ बढ़कर फुफ्फुस या फुफ्फुसावरण का शोथ उत्पन्न होना और उसके साथ में अन्य आनुषंगिक लक्षण उपस्थित होना आदि चिह्न होने पर त्रिभुवन किर्ति रस उत्तम प्रकार से उपयोगी होता है।

रोमांतिका रोग जैसा प्रतीत होता है, ऐसा मामूली नहीं है। इसकी पिटिका पूर्णांश में बाहर नहीं आई, तो भविष्य में भिन्न-भिन्न प्रकार की व्याधियाँ उत्पन्न होती है। सूक्ष्म पिटिकाए, नेत्र से जल स्त्राव, बार-बार छिके आना, जुकाम, नाक में से पतला श्लेष्म स्त्राव, बुखार, मुंह में लाल दाने होना और व्याकुलता ये सब रोमांतिका के सामान्य लक्षण है। इस अवस्था में त्रिभुवन किर्ति रस (Tribhuvan Kirti Ras) देने से रोमांतिका का विष बाहर आ जाता है। इस विकार में बहुधा 3-4 दिन में ज्वर, खांसी आदि बढ़ जाते है, श्वसनक और श्लैष्मिक सन्निपात के लक्षण कुछ-कुछ भासते है; तथा पिटिकाएँ आधी बाहर आ जाती है, ऐसी बढ़ी हुई परिस्थिति में भी त्रिभुवन किर्ति रस का उत्तम उपयोग होता है।

मात्रा: 1-1 गोली दिन में 2 समय अदरख के रस और शहद के साथ या अन्य रोगानुसार अनुपान के साथ देवें। सन्निपात में आवश्यकता पर 3-3 घंटे बाद एक-एक गोली देते रहना चाहिये। इसकी मात्रा कभी भी एक गोली से ज्यादा न लें, क्योंकि यह वच्छनाग प्रधान औषध है, इसकी मात्रा अधिक लेने से यह हानि पहुंचा सकता है। गोली कितनी रत्ती की है, वह भी देखलें, एक गोली का वजन आध रत्ती होना चाहिये, अगर एक रत्ती (121.5 mg) की हो तो आधी गोली ही लेनी चाहिये।  

सूचना: पित्तप्रधान ज्वर में यह औषधि न दें। कदाच देनी पड़े, तो प्रवाल पिष्टी या अन्य पित्तशामक औषधि मिलाकर देवें।   

बनावट: शुद्ध सिंगरफ, शुद्ध वच्छनाग, सोंठ, मिर्च, पीपल, सोहागे का फुला और पिपलामूल, प्रत्येक समभाग मिलाकर बारीक चूर्ण करें। पश्चात तुलसी, अदरख और धतूरे के रस की क्रमशः 3-3 भावनाएँ देकर आध-आध रत्ती की गोलियां बना लेवें। औषधि खरीदते समय (र. त. सा.) रस तंत्र सार का रेफरंस वाली खरीदें।  

Ref: योगरत्नाकर, रस तंत्र सार, बृहत निघंटु रत्नाकर, रस चंडांशु

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