रविवार, 24 नवंबर 2019

स्वर्ण माक्षिक भस्म के फायदे / Swarna Makshik Bhasma Benefits


स्वर्ण माक्षिक भस्म (Swarna Makshik Bhasma) पांडु (Anaemia), कामला (Jaundice), पुराना बुखार, निद्रानाश, मस्तिष्क की गर्मी, पित्तविकार, आंखों में जलन, आंखों की लाली, उल्टी, उबाक, व्रणदोष, पित्तप्रमेह, प्रदर, मूत्रकृच्छ (पेशाब में जलन), शीर्षशूल (शिर दर्द), विषविकार, बवासीर, पेट के रोग, कंडु, कुष्ठ (Skin Diseases), कृमि और पथरी आदि रोगो को दूर करती है। कफ-पित्त विकृति में यह स्वर्ण माक्षिक भस्म विशेष लाभदायक है।

स्वर्ण माक्षिक, यह लोह का सौम्य कल्प है। स्वर्ण माक्षिक भस्म (Swarna Makshik Bhasma) स्वादु, तिक्त, वृष्य (पौष्टिक), रसायन, योगवाही, शामक (Soothing), शक्तिवर्धक, पित्तशामक, शीतवीर्य, स्तंभक और रक्तप्रसादक (खून को पोषण देनेवाली) है। इसके योग से रक्तप्रसादन होने से रक्ताणु सुदृढ होते है, और रक्त धातु सशक्त बनती है। लोह के अन्य कल्पो में जो उष्णता और तीव्रता आदि गुण है, वे इस भस्म में नहीं है। यह कल्प अति सौम्य होने से कोमल प्रकृति, सुकुमार और अशक्त स्त्री पुरुषों के लिये निर्भय रूप से उपयोग में आता है।


केवल पित्तविकृत अथवा कफ-पित्त संसर्ग विकृति में स्वर्ण माक्षिक भस्म का अच्छा उपयोग होता है। इस लिये इस स्वर्ण माक्षिक भस्म का पित्तज शीर्षशूल, पित्तज अम्लपित्त (Acidity), पित्तज परिणामशूल (भोजन के बाद पेट में दर्द होना), पित्तज गुल्म (पित्त जन्य पेट की गांठ), इन व्याधियों पर अवस्था-भेद और अनुपान-भेद से उपयोग होता है।

पित्तज शीर्षशूल में सूतशेखर रस का भी उपयोग होता है, परंतु सूतशेखर रस देने में मुख्य लक्षण भ्रम (चक्कर) होना चाहिये। परंतु जिस शीर्षशूल में उबाक, मुंह में कडवापन, कोई भी अच्छा प्रिय पदार्थ खाने में भी अरुचि और वमन (उल्टी) होने पर शीर्षशूल कम हो जाना आदि लक्षण हो, उस पर स्वर्ण माक्षिक भस्म का ही अच्छा उपयोग होता है। पुराने शीर्षशूल में भी अच्छा इलाज हो जाने के अनेक उदाहरण मिले है।

बार-बार चक्कर आना, विचार करते करते मन गुम हो जाना और चक्कर आना एवं सूर्य के ताप में फिरने, किसी भी उष्णवीर्य पदार्थ के सेवन, जागरण, मगज के थोड़े श्रम, शक्ति से थोड़ा ज्यादा विचार होने आदि थोड़ी-थोड़ी बातों से चक्कर आ जाना, इस सब प्रकार के चक्कर पर स्वर्ण माक्षिक भस्म देनी चाहिये। अनुपान रूप से अनार का रस, मोसंबी का रस या अनार शर्बत आदि का उपयोग करें।

आंखों में सूजन, लाली, जलन, ये सब अधिक, परंतु परिमाण में वेदना कम, अथवा आंखों के और दोष कम होने पर भी भयंकर जलन होना, यहाँ तक कि रोगी की ऐसी इच्छा हो कि, आंखों पर बर्फ बांध दूँ या शीतल जल छिड़कता ही रहूँ; इस सब लक्षणों का कारण पित्तदोष ही है। वात अथवा कफ की प्रधानता नहीं है। ऐसे पित्ताभिष्यंद और रक्ताभिष्यंद रोग में स्वर्ण माक्षिक भस्म का सेवन लाभदायक है। खाने और अंजन करने, दोनों रीति से उपयोगी है। इस तरह उपयोग करने से भलीभांति रक्त-प्रसादन हो जाता है। पित्तप्रधान पुराना नेत्र रोग (मोतियाबिन्दु, लिंगनाश और मोफणी के नीचे बड़ी-बड़ी फुंसियाँ हो जाना और मांस बढ़ना, इन विकारों को छोडकर शेष नेत्ररोग) में स्वर्ण माक्षिक भस्म का सेवन कराया जाता है। स्वर्ण माक्षिक भस्म के साथ प्रवाल पिष्टी मिलाकर दिन में दो बार देते रहने और रात्रि को सोते समय त्रिफला चूर्ण 1-1 ग्राम शहद के साथ देते रहने से नेत्र-लाली और अन्य पुराने दोष शमन हो जाते है।)


आगंतुक कारणों क्रोध, अति जागरण और अति गरम पदार्थ के सेवन से पित्तवृद्धि होकर रोग के वेग की वृद्धि हो जाती है। थोड़ी हलचल करने पर घबराहट हो जाती है। इस पर स्वर्ण माक्षिक भस्म (Swarna Makshik Bhasma) का अच्छा उपयोग होता है।

पित्त दोष दुष्टि होने के पश्चात उसका आश्रय, रक्त, रक्तवाहिनियाँ और ह्रदय, ये स्थान दुष्ट होते है। इन दोष, दूष्य और स्थान दुष्टि के कारण अनेक प्रकार के भिन्न-भिन्न रोग उत्पन्न होते है। फिर जब ये रोग पुराना होता है, तब हाथ-पैर और मुंह पर शोथ (सूजन) आता है। वह स्वर्ण माक्षिक भस्म के योग से अच्छा होता है। स्वर्ण माक्षिक भस्म ह्रद्य (ह्रदय को बल देनेवाली), स्तंभन और रक्त-प्रसादन (खून को पोषण देनेवाली) होने से, इन विकारों पर अच्छा कार्य करती है। यह पर्णबीज की जाति की औषधि है, परंतु पर्णबीज में बेचैनी लाने का गुण होने से, वह लेने पर अनेकों का मन खराब हो जाता है और उल्टी हो जाती है। स्वर्ण माक्षिक भस्म ऐसी न होने से यह शरीर में ठहरती है, पचन हो जाती है और अपना ह्रद्य कार्य अच्छी रीति से करती है।

खून में विदग्ध पित्त मिश्रित होने से पित्त के तीक्ष्ण, उष्ण, अम्ल और द्रवत्व गुण बढ़ जाते है। इस कारण रक्तवाहिनियों की त्वचा पतली हो जाती है। इस तरह रक्तपित्त से जब रक्त में उष्णता आदि गुण बढ़कर और रक्तवाहिनियों की अंतर-त्वचा पतली होकर रुधिरवाहिनियाँ फूटती है और उनमें से रक्त स्त्राव शुरू हो जाता है, तब वह आयुर्वेद के मतानुसार रक्तपित्त रोग कहलाता है। यह व्याधि अधोमार्ग (ऊपर) और ऊर्ध्वमार्ग (नीचे), दोनों ओर से प्रवृत होती है। इस पर स्वर्ण माक्षिक भस्म का अच्छा उपयोग होता है। इसके साथ प्रवाल पिष्टी, हल्दी और सोनागेरू मिश्रित करके देने से अति शीघ्र और अच्छा लाभ होता है। इस रोग में केवल स्वर्ण माक्षिक भस्म से अच्छी चिकित्सा हो जाने के भी अनेक उदाहरण मिले है। भोजन में केवल दुग्धाशन कराना चाहिये। विशेषतः बकरी का दूध अधिक हितकर है। स्वर्ण माक्षिक भस्म (Swarna Makshik Bhasma) अधो रक्तपित्त की अपेक्षा ऊर्ध्व रक्तपित्त में ज्यादा उपयोगी है।

आमाशय (Stomach) बढ़ने, आमाशय की अन्तर-त्वचा विकृत होने एवं उदर व्रण (पेट में घाव-Ulcer) होने से अम्लपित्त (Acidity) रोग हो जाता है। आयुर्वेद ने इन सब का अन्तर्भाव अम्लपित्त में ही किया है। इन अम्लपित्तो में कर्कट ग्रन्थि (मासार्बुद) और उदर व्रण (Ulcer in Stomach), इन दोनों को कम करके शेष सब प्रकार के अम्लपित्त में स्वर्ण माक्षिक भस्म उत्तम कार्य करती है। पेट की आकृति बढ़नेसे होनेवाले अम्लपित्त में अपना स्तम्भक, शामक और स्वादु गुण पहुंचाकर पित्त का नियमन करती है, और साम्यावस्था (Balance) को प्रस्थापित करती है। अन्तर पिच्छिल त्वचा विकृत होने से होनेवाले अम्लपित्त में स्वर्ण माक्षिक भस्म के लवणत्व अंशका उपयोग होता है। उदर (पेट) में पित्तोत्पादक अथवा रसोत्पादक पिण्ड की विकृति होनेसे उत्पन्न हुई विकृति में स्वर्ण माक्षिक भस्म में रहे हुए लोह अंश और बल्यत्व गुण के कारण से आकुञ्चन होकर तथा बल की प्राप्ति होकर कार्य होता है। इनके अतिरिक्त अम्लपित्त ज्यादा बढ़ने, अथवा पित्त की तीव्रता ज्यादा बढ़नेसे उदर पीड़ा होती हो, और वमन (उल्टी) होनेके साथ उदर-पीड़ा अथवा शिरदुर्द कम होजाता हो, तो स्वर्ण माक्षिक भस्म देना अच्छा लाभदायक है। वान्ति (उल्टी) होने पर भी अच्छा न लगना, और शूल अधिक होना, यह लक्षण प्रतीत होते हो, अर्थात् वातपित्तसंसर्गजनित दुष्टी हो, तो स्वर्ण माक्षिक भस्म की अपेक्षा सूतशेखर रस देना विशेष लाभदायक है।


अम्लपित्तमें कोई भी चिकित्सा चालू होनेके पहले अंतः परिमार्जन ( वमन आदि संशोधन) करना अच्छा है। यह अपनी प्राचीन पद्धति अनुसार या नूतन पद्धति अनुसार किया जाय, तो भी चल सकता है। अम्लपित्त अत्यन्त ज्यादा परिमाण में बढ़ गया हो, और उसीसे उदर में व्रण होकर रक्तवाहिनियां टूट कर वमन होने लगती हों; वमनसें रक्त आता हो, तो इस विकारमें स्वर्ण माक्षिक भस्म, प्रवालपिष्टी, गिलोय सत्व और सोनागेरू मिलाकर देना लाभदायक है।

स्ववर्ण माक्षिक भस्म (Swarna Makshik Bhasma) को सर्व सामान्य रूप से शक्तिवर्द्धक मान करके भी उपयोग होता है। इसमें लोहका अंश होने और यह लोह सौम्य होनेसे माक्षिक में शीतल शक्तिवर्द्धक गुण आया है। इस हेतु नाकमेंसे रक्त गिरने और रक्त गिरकर चक्कर आने पर स्वर्ण माक्षिक भस्म अनन्तमूल, रक्तचन्दन और पद्मकाष्ठ के कषाय के साथ दीजाती है।

निर्बलता, ज्यादा विचार या मनोव्याघात, इनमें किसी भी कारणसे भ्रम होता हो, और चक्कर आता हो, इनमेंसे कभी-कभी तो भ्रम अत्यन्तावस्था तक चला गया हो, इतने तक कि यह मनुष्य तो पागल होगया है, ऐसा दूसरो को भासता हो, ऐसे बढ़े हुए लक्षणों में भी स्वर्ण माक्षिक भस्म कूष्मांड के रस के साथ देनेसे सत्वर लाभ पहुंचता है।

पैत्तिक उन्माद रोगमें जबतक रोग नहीं बढ़ा है, तब तक स्वर्ण माक्षिक भस्म का अच्छा उपयोग हुआ है। जटामांसी, नेत्रबाला और रक्तचन्दन के कषाय के साथ देनी चाहिये।

शराब के अतियोग होने से मदात्यय व्याधि होकर चक्कर आने लगते है। वमन होना, वमन में रक्त आना, नेत्र लाल होजाना, दृष्टि मन्द होना, मन्दाग्नि, निद्रानाश, मुह और सारा शरीर निस्तेज हो जाना इत्यादि लक्षण प्रतीत होते है। इस स्थिति में स्वर्ण माक्षिक भस्म कुटकी, पुनर्नवा और गिलोय के क्वाथ के साथ देनेसे लाभ होता है।

रक्तार्श (खूनी बवासीर) या पित्तार्श (पित्त जन्य बवासीर) में रक्त बहुत चले जानेसे सारे शरीर की रक्तवाहिनियां तड़तड़ उड़ने लगती है, शरीर निस्तेज होजाता है, कितनेको को शोथ (सूजन) आजाता है, ऐसे समय पर स्वर्ण माक्षिक भस्म का अच्छा उपयोग होता है। इस भस्म के सेवन से रक्त की उष्णता और पतलापन कम हो जाते है। अनुपान में मिश्री, नागकेशर, तेजपात और इलायची देवे।

अपचन-जनित विसूचिका (Cholera) में वमन बन्द करने के लिये स्वर्ण माक्षिक भस्म का अच्छा उपयोग होता है। परन्तु माक्षिक का उपयोग विसूचि का की विषघ्न ओषधि के साथ करना चाहिये। स्वर्ण माक्षिक भस्म और सूतशेखर रस का मिश्रण बार-बार अदरख के रसके साथ चटाया जाता है।

विसूचिका रोग शमन होजाने पर जो निर्बलता रह जाती है। तथा अवशिष्ट लक्षणो में विशेषतः चक्कर, बार-बार वमन होना, कभी कभी पतले दस्त होजाना आदि लक्षण रहने पर स्वर्ण माक्षिक भस्म और शंख भस्म मिश्रित कर आम या आंवले के मुरब्बे के साथ देनी चाहिये।

स्वर्ण माक्षिक भस्म (Sawrna Makshik Bhasma) स्वादु, रसोत्पादक, तिक्त और बल्य है। इस बल्यत्व गुण के कारणो से रस आदि धातुओ की योग्य परिमाण में उत्पत्ति कराती है। इस हेतुसे यह रसायन भी है।

बस्ति (मूत्राशय) का-नियामक स्नायुओ की अशक्ति से बस्ति (मूत्राशय)  में चाहिये उतने परिमाण में मूत्र भरा नही रह सकता, बूंद-बूंद टपकता रहता है। इस विकार में माक्षिक और शिलाजतु मिलाकर उपयोग होता है। पेठा, अश्वगंधा और मंजिष्टा के साथ देना चाहिये।


वातज या वात-पित्तज हृद्रोग में हृदयेन्द्रिय की चंचलता, बार-बार घबराहट, उबासी आना, प्रस्वेद (पसीना), दाह (जलन), सर्वांग (पूरे शरीर) में कम्प आदि लक्षण होने पर स्वर्ण माक्षिक भस्म देनी चाहिये। यह भस्म हृदयेन्द्रिय पर शक्तिदायक होनेसे पुराने हृद्रोग में भी लाभदायक है। हृदय के रोगो में मात्र हृदय के परदो ( Valves ) की विकृति में इसका कुछ भी उपयोग नहीं होता। शेष सब वातज और वातपित्तात्मक रोगो में हितकर है।

गलेकी गाँठ (Tonsils), लालापिण्ड (Salivary Glands), कण्ठ इत्यादि भागोमें विकार होने पर वेदना, शोथ, लाली, दाह आदि लक्षण प्रतीत होते हो, तो माक्षिक भस्म दीजाती है। यदि तीव्र ज्वर (बुखार) हो, तो माक्षिक भस्म नही देनी चाहिये, अन्यथा हानि होती है।

शीतज्वर (Malaria) में अनेक दिनो तक किनाइन का सेवन किया हो, किनाइन सेवन करने पर प्लीहावृद्धि (Spleen Enlargement) हुई हो, फिर प्लीहा-वृद्विसे उदर (पेट) बढ़ गया हो, शरीर में शोथ, घबराहट, वमन आदि लक्षण भी उपस्थित हुए हो; तो ऐसी स्थिति में स्वर्ण माक्षिक भस्म का अच्छा उपयोग होता है। किनाइन के दुष्ट परिणाम को शमन करने के लिये यह उत्तम ओषधि है। किनाइन के अतियोग या किनाइन सहन न होनेसे उत्पन्न होने वाले निद्रानाश, बधिरता, नेत्रदाह (आंखों में जलन), मस्तिष्क की निर्बलता, यकृत (Liver) विकार, मूत्र में पीलापन, मृत्र में जलन आदि लक्षणो को शमन करने में इसका बहुत अच्छा उपयोग होता है। यह कार्य ओषधि-प्रभावसे होता है।

हृदयेन्द्रिय की व्याधि से उत्पन्न शोथ या शीतज्वर के पश्चात् फीकापन होकर आई हुई पाण्डुता (शरीर पीला पड़ जाना) और पाण्डुतासे उत्पन्न शोथ या अन्य कारण से पाण्डुता आकर-आई हुई सूजन, साथ-साथ घबराहट, चक्कर, भ्रम, शिरदर्द आदि लक्षण होनेपर स्वर्ण माक्षिक भस्म अच्छी उपयोगी है।

पित्तोत्पादक, तीव्र, दाहकारक, गर (शरीर के अंदर पैदा हुआ विष) के कारण या विरुद्ध अन्नपान के कारण पित्तप्रकोप अधिक होने पर स्वर्ण माक्षिक भस्म का बहुत अच्छा उपयोग होता है; परन्तु गरघ्न चिकित्सा (संशोधन) करनेके पश्चात् माक्षिक देनी चाहिये।

सर्वाङ्ग में बारीक-बारीक फुन्सियाँ होना, खाज चलना, सर्वाङ्ग, नाखून, त्वचा, ओप्ट आदि निस्तेज होजाना; इस तरह अनेक समय रक्तस्राव के पश्चात् या अतिसार के पश्चात् ज्यादा अशक्ति आकर त्वचा पर छोटी-छोटी फुन्सियाँ होना, त्वचा रुक्ष और कठोर होकर उसमें खाज चलना आदि विकारो पर स्वर्ण माक्षिक भस्म का बहुत अच्छा उपयोग होता है। अनुपान अनन्तमूल का क्वाथ दे। इस चर्मरोग में ताप्यादि लोह का भी उपयोग होता है।

मूत्रातिसार (मधुमेहका पूर्व लक्षण विशेष रूप न होने पर उत्पन्न हुआ मेह समान विकार ), जिसमें मूत्र पीला, त्वचा पीली और फीके नाखून आदि लक्षण होते है, साथ-साथ दिन-रात ज्यादा परिमाण में और अधिक बार पेशाब होता है, ऐसी परिस्थिति में स्वर्ण माक्षिक भस्म अति लाभदायक है। जामुन के रस के साथ देनी चाहिये, और पित्तज प्रमेहो पर अनुपान रूपसे गिलोय सत्व देना चाहिये।

शुक्रक्षय या रजःक्षय के विकार में वंग भस्म के साथ स्वर्ण माक्षिक भस्म देनेसे ज्यादा लाभ होता है। त्रासदायक प्रदर विकार में भी माक्षिक मधुकाद्यवलेह या शर्बत बनफशा के साथ देनेसे उत्तम कार्य होता है। यदि रुग्णा अतिकृश होगई हो, तो गोदन्ती भस्म भी साथमें मिला देनी चाहिये।

त्वचाका कालापन आकर उस पर छोटी-छोटी फुन्सियां हो जाना, हाथ-पैर की अगुलियाँ मोटी होकर शून्यसी होजाना, उनका स्पर्शज्ञान नष्ट होजाना; शरीर पर लाल-काले चकते उठना, ऐसे विकार में स्वर्ण माक्षिक भस्म गंधक रसायन के साथ मिश्रित करके देनी चाहिये। अथवा मात्र स्वर्ण माक्षिक तुलसी के रस में देनी चाहिये।

स्वर्ण माक्षिक भस्म पित्तज कामला (Jaundice) रोग में उत्तम कार्य करनेवाली ओषधि है। सब प्रकारके कामला रोग पर इस ओषधिका उत्तम उपयोग होता है। प्रवाल भस्म, शुक्ति भस्म और स्वर्ण माक्षिक भस्म का मिश्रण कर मूलीके रसके साथ देनेसे अति उत्तम कार्य होता है।

स्वर्ण माक्षिक भस्म पाचक और रंजक पित्त (रंजक पित्त खून को रंग देने का काम करता है), ये दोष, रस, रक्त, मज्जा और शुक्र, ये दूष्य, शिर, नेत्र, हृदय, आमाशय, यकृत, अन्त्र, पचनेन्द्रिय, बस्ति (मूत्रशय), अन्तःस्त्रावक पिंड (Ductless Gland), त्वचा, अंडकोष और मनोदेश, ये स्थान, इन सब पर लाभ पहुंचाती है।

आक्षेपक वातके झटके बार-बार आते रहते हो, उसके साथ वमन भी उपस्थित होती है, वह आक्षेप दूर होने पर भी रह जाती है। उस पर स्वर्ण माक्षिक भस्म और सितोपलादि चूर्ण को मिलाकर आम के मुरब्बा के साथ दिनमें ४ बार ३-३ घण्टे पर देनेसे वमन सत्वर निवृत्त होजाती है।

अधिक धूम्रपान, उष्ण आहार अथवा अधिक नेत्रश्रम के हेतुसे नेत्र की वात नाड़ियां दूषित होती है। फिर दृष्टि मन्द होजाती है, किसीको नेत्रदाह होने लगता है, किसीको एक वस्तुकी दो वस्तु भासती है। इन विविध दृष्टि विकृति पर स्वर्ण माक्षिक भस्म 1 रत्ती (1 रत्ती=121.5 mg), त्रिफला चूर्ण 1 माशा (1 माशा=0.97 ग्राम), घी 2 माशा और शहद 3 माशे मिलाकर प्रातःकाल और रात्रिको सेवन करानेसे थोड़े ही दिनोमें लाभ होजाता है।

सूचना: नये और तीव्र बुखार में स्वर्ण माक्षिक भस्म (Swarna Makshik Bhasma) का उपयोग नहीं करना चाहिये। इस भस्म के सेवन करनेवालों को अम्लविपाक वाले पदार्थ, कबूतर का मांस, कुलथी, नये चाबल और खट्टे पदार्थ का त्याग करना चाहिये।

मात्रा: 1 से 3 रत्ती (1 रत्ती=121.5 mg) दिन में 2 बार दूध, शहद, गुलकंद, गिलोय सत्व, त्रिफला, कुटकी, मक्खन मिश्री, या रोगानुसार अनुपान से दें।

Read more:




Previous Post
Next Post

0 टिप्पणियाँ: