गुग्गुल (Guggulu) का वृक्ष छोटा 4 से 12 फीट तक ऊंचा होता है। इस वृक्ष
की शाखा प्रशाखाओं से क्षत करने पर एक प्रकार का रस निकलता है, जो सर्दी के दिनों में गाढ़ा हो जाता है। यही गोंद सा
रस गुग्गुल है।
गुग्गुल (Guggulu) पौष्टिक, उष्णवीर्य,
रसायन, सारक (Mild Laxative), अत्यंत लघु (लघु पदार्थ पथ्य, तुरंत पचन होनेवाला और कफ नाशक होता है), टूटी हड्डियों को जोड़नेवाला, सूक्ष्म (सूक्ष्म स्त्रोतोंगामी), स्वर को हितकारी,
अग्निदीपक, योगवाही और बलकारक है। एवं कफ, वात, व्रण,
अपची, मेदोरोग (Obesity),
प्रमेह, पथरी,
वातरोग, कुष्ठ,
आमवात (Rheumatism), ग्रंथिरोग,
सूजन, बवासीर,
गंडमाला (Scrofula) तथा कृमिरोग नाशक है। गुग्गुल तीनों दोष और सर्व रोगों का नाशक है।
गुग्गुल आक्षेपहर
और आर्तव – रजःस्त्रावकारी है। संधिवात, उपदंश (Syphilis)
जन्य विकार, कंठमाला,
नाड़ीमंडल के विकार तथा वातजन्य रोगों में यह बहुत प्रयुक्त किया जाता है, योगराज गुग्गुल नाम का प्रसिद्ध प्रयोग रसायन रूप में
वातजन्य रोगों में, गंडमाला,
संधिवात आदि में बहुत प्रयुक्त होता है।
गुग्गुल (Guggulu) उत्तेजक, रोग किटाणु नाशक और कफ नाशक होता है।
पुराने कफ रोगों में जिनमें की बहुत अधिक चिकना और दुर्गंधित कफ पड़ता है, इसको पीपर, अड़ूसा,
शहद और घी ( शहद और घी विषम मात्रा में लें) के साथ देने से अच्छा लाभ होता है। यह
प्रौढ़ अवस्था के अशक्त और दुर्बल मनुष्यों के लिये विशेष उपयोगी है।
गुग्गुल अग्नि को
प्रदीप्त करता है और वात का नाश करता है। इसलिये अग्निमांद्य और कब्जियत संबंधी
रोगों में जिनमें कि आमाशय (Stomach) और आंते (Intestine)
शिथिल पड़ जाते है, इसको इन्द्रजौ और गुड के साथ देने से
अच्छा लाभ होता है।
गुग्गुल के अंदर
रक्त शोधक गुण भी रहता है और यह सारे शरीर को उत्तेजना और बल प्रदान करता है।
इसलिये उपदंश (Syphilis), सुजाक (Gonorrhoea)
और पुराने आमवात (Rheumatism) में इसका उपयोग किया जाता है। गंडमाला
रोग के लिये यह एक उत्तम औषधि है। गुग्गुल रक्त के अंदर श्वेत कणों को बढ़ाता है
जिससे गंडमाला रोग का ज़ोर धीरे-धीरे कम होता जाता है।
गुग्गुल (Guggulu) को पेट के अंदर देने के बाद यह त्वचा के रास्ते से बाहर
निकलता है जिससे त्वचा की विनिमय क्रिया में सुधार होता है। इसलिये यह सब प्रकार
के पुराने चर्मरोगों में बहुत लाभ पहुंचाता है। अगर निरोग मनुष्य इसका सेवन करें
तो उनकी त्वचा का सौंदर्य बढ़ जाता है। चर्मरोगों में और खून को शुद्ध करने के लिये
सुप्रसिद्ध योग कैशोर गुग्गुल का उपयोग किया जाता है।
गर्भाशय के उपयर
भी गुग्गुल की अच्छी क्रिया होती है। यह गर्भाशय का संकोच करता है। तरुण स्त्रियों
के रुके हुए मासिक धर्म को यह चालू कर देता है। गर्भाशय के फूल के द्वारा एक
प्रकार का चिकना पदार्थ बहता है और वह स्त्री की संतान धारण करने की शक्ति को नष्ट
करके बांझ कर देता है। ऐसी स्त्रियों के लिये गुग्गुल बहुत गुणकारी वस्तु है। इस
रोग में इसको रसोत (रसोत दारूहल्दी से बनता है) के साथ देना चाहिये। चंद्रप्रभा वटी जिसकी मुख्य औषधि गुग्गुल और शिलाजीत है, इस वटी का भी गर्भाशय के पोषण के लिये
उपयोग किया जाता है।
वृद्धावस्था में
हाथ-पैरों का दर्द, कमर दर्द इत्यादि में भी गुग्गुल का
उपयोग उत्तम है। सुप्रसिद्ध योग सिंहनाद गुग्गुल वृद्धों के हाथ-पैर और कमर दर्द
में देने के लिये एक उत्तम औषधि है। वृद्ध मनुष्य विलायती दर्द नाशक दवाओ को सहेन
नहीं कर सकते, उनके लिये यह सिंहनाद गुग्गुल एक उत्तम
औषध है। इसके सेवन से धीरे-धीरे वात से उत्पन्न दर्द नष्ट हो जाता है और शरीर भी
सुधरता है। यह हमारा कई सालों का परीक्षित है।
पांडु (Anaemia) के उपयर भी गुग्गुल का बड़ा चमत्कारिक असर होता है।
इसके प्रयोग से रक्त में श्वेत कणों की वृद्धि होती है और ज्यों ज्यों श्वेत कण
बढ़ते है त्यों त्यों रक्त की रोग जन्तु नाशक शक्ति बढ़ती जाती है और रोगी की घी, तेल इत्यादि स्निग्ध पदार्थों को पचाकर खून में मिलन
करने की शक्ति बढ़ती जाती है। जिससे पांडुरोग नष्ट होता हुआ चला जाता है। इस रोग
में इसको लोह भस्म के साथ देने से विशेष लाभ होता है।
गुग्गुल (Guggulu) गर्भाशय को उत्तेजित करता है और मासिक धर्म को नियमित
कर देता है। इसको बहुत समय तक सेवन करने से भी किसी प्रकार की हानि नहीं होती। कभी
कभी इससे गुर्दे में जलन पैदा हो जाती है और शरीर पर कोपेबा की तरह कुछ फुंसियाँ
उठ जाती है। लेकिन इसका सेवन बंद करते ही फौरन मिट जाती है।
पुराने
अग्निमांद्य रोग में यह अग्निदिपक वस्तु के तौर पर काम में लिया जाता है। यह पेट
के यंत्रों के ढीलेपन को और पेशी की दुर्बलता को भी मिटा देता है। पुराना नजला, अतिसार, आंतों की सूजन, आंतों के व्रण (Ulcer)
और बड़ी आंत के पुरातन प्रदाह में यह बहुत लाभदायक है।
फेंफड़ों के क्षय
में यह एक उत्तेजक और कृमि नाशक पदार्थ की तरह दिया जाता है। इसके सेवन से बुखार
कम होता है, भूख बढ़ती है, कफ के कृमि नष्ट हो जाते है और जीवनी शक्ति को बल
मिलता है।
कुष्ठ के रोगियों
की हालत को भी यह बहुत हद तक सुधारता है और इस व्याधि से पैदा हुए दूसरे विकारों
को भी मिटा देता है। मूत्राशय की जलन, सुजाक और पेडू की सूजन में तीव्र लक्षणों
के दूर हो जाने पर गुग्गुल को देने से अच्छा लाभ होता है। गर्भाशय की पुरानी सूजन
में तथा नष्टर्ताव (मासिक धर्म न आना) में भी यह लाभदायक है।
वैद्यक
शस्त्रकारों ने गुग्गुल के अंदर वातहर, शोधक,
सारक (हल्का दस्तावर), रोपण (घाव को भरनेवाला), कृमिनाशक और पौष्टिक गुण बतलाये है।
वातहर शब्द का
अर्थ केवल वायु के दोषों को हरनेवाला ही नहीं होता है। बल्कि ज्ञानतन्तु और गति
तन्तु की खराबी को दूर करके उनका सुधार करना यह भी वातहर शब्द के अंदर सम्मिलित
है। गुग्गुल मस्तिष्क के तंतुओं को पोषण देता है। जिस वात-व्याधि में मज्जा तन्तु
(Nerves) कमजोर पड़ जाते है और उनकी गति मंद हो
जाती है, उस वात व्याधि में गुग्गुल अपना
चमत्कारिक असर दिखलाता है।
अपने वातहर गुण
की वजह से गुग्गुल बिगड़े हुए और कमजोर पड़े हुए तंतुओं को बल देता है। मगज के यह
तन्तु सारे शरीर में फैले हुए रहते है। विशेषकर बड़े बड़े मर्म स्थानों में तो इंका
जाल बिछा हुआ रहता है। उदहरणार्थ स्त्रियों का गर्भ स्थान इन तंतुओं से व्याप्त
होने की वजह से गुग्गुल की गर्भ स्थान पर बहुत अच्छी क्रिया होती है जिसके परिणाम
स्वरूप स्त्रियों के ऋतु दोष सुधारने में और उनको संतानोत्पत्ति के योग्य बनाने
में गुग्गुल बहुत सहायक होता है। यह बात शस्त्र और अनुभव से सिद्ध है।
गुग्गुल (Guggulu) योगवाही पदार्थ है। रोगों के अनुसार अनुपनों के प्रयोग
से भिन्न-भिन्न रोगों को नष्ट करता है इसलिये शुद्ध गुग्गुल का प्रयोग अकेला बहुत कम
होता है। प्रायः प्रत्येक रोगनाशक औषधों से युक्त गुग्गुल ही दिया जाता है। सामान्यतया
गुग्गुल आमवात रोग (Rheumatism), गलगंड (Scrofula),
मूत्र रोग (Urinary Diseases) और त्वक् रोगों (Skin Diseases) पर बहुत दिया जाता है, आमवात दोष (Uric
Acid) को वह जहां भी हो धीरे-धीरे
लीन करके मूत्र द्वारा निकाल देता है और सूजन तथा शूल की शांति होती है, इसका प्रभाव पाश्चात्य औषधों की तरह शीघ्र नहीं पड़ता तथापि
धीरे-धीरे और स्थिर रूप से रोग को शांत करता है। गुग्गुल रसायन रूप में जीर्ण तंतुओं
(Rotten Tissues) को दूर करके शरीर में नवीन धातु उत्पन्न करता
है। रसायन के लिये इसका उपयोग शीतकाल में ही करना चाहिये। अन्य रोगों के लिये सदैव
दे सकते है।
मात्रा: 2 से 4 माशा
तक। (1 माशा=0.97 ग्राम)
गुग्गुल की
बनावटें: त्रिफला गुग्गुल, कांचनार गुग्गुल, महा योगराज गुग्गुल,
गोक्षुरादि गुग्गुल, पंचतिक्त धृत गुग्गुल, अमृतादि गुग्गुल,
आभा गुग्गुल, लाक्षादि गुग्गुल, त्रयोदशांग गुग्गुल,
पंचामृत लोह गुग्गुल, मेदोहर गुग्गुल, चित्रकादि गुग्गुल,
पथ्यादि गुग्गुल, पुनर्नवादि गुग्गुल, रास्नादि गुग्गुल,
कैशोर गुग्गुल, योगराज गुग्गुल और सिंहनाद गुग्गुल।
Guggulu
is rejuvenative, digestive, carminative, nutritious and destroys disease of
musculoskeletal disorder. Guggulu is also useful in skin diseases and anaemia.
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