शनिवार, 1 जून 2019

लीलाविलास रस के फायदे / Lilavilas Ras Benefits


लीलाविलास रस अम्लपित्त, तृषा (प्यास), शूलसहित वमन (पेट दर्द के साथ उल्टी), ह्रदय में जलन, कृमि, पांडु (Anaemia) आदि रोगों का नाश करता है।

इस रसायन में पारद और ताम्र तीक्ष्ण, उष्ण, व्यवायी (जो पदार्थ अपक्व यानि कच्चा ही सारी देह में व्याप्त होकर, पीछे मद्य की तरह पाक अवस्था को प्राप्त हो, उसे “व्यवायि” कहते है। और चिजे पककर अपना गुण करती है, किन्तु व्यवायि पदार्थ कच्चे ही अपने गुणों से सारे शरीर में व्याप्त होकर पीछे पकते है। जैसे भांग और अफीम।) और स्त्रोतोंगामी है। साथ में अभ्रक भस्म और लोह भस्म संमिश्रण करा उष्णता और तिक्षणता को कितनेक अंश में दबा दिया है। फिर आंवले, बहेड़े और भांगरे के रस की भावना देकर इन सेंद्रिय औषधियों के योग से गुणों में उत्कर्ष कराया है, एवं द्रव्य-संयोग और संस्कार द्वारा अम्लपित्तनाशक गुण की वृद्धि कराई है।

आंवला उत्तम अम्लपित्त शामक औषधि है, आमाशय (Stomach) के प्रकुपित पित्त को शांत करता है, परंतु केवल आँवलो का सेवन करने पर पित्तशामक गुण का शोषण होकर लाभ होने में दिर्धकाल लगता है, तथा यकृत (Liver) और रक्त में रहे हुए मृत घटकों को जीवित घटकों से पृथक कर बाहर निकाल देना या जला देना, यह कार्य जितना जल्दी ताम्र भस्म द्वारा होता है; उतना केवल आंवलो के सेवन से सत्वर नहीं हो सकता। इस हेतु से शास्त्रकार ने ताम्र भस्म का सम्मिश्रण किया है। पारद, ताम्र भस्म आदि औषधियाँ योगवाही होने से अपने गुणों का त्याग न करते हुए सम्मिश्रित सेंद्रिय औषधियों के गुणों में वृद्धि करा देते है। पित्तप्रधान मोतीजरा (Typhoid) आदि बुखार लंबे समय तक रहना, लवण का अति योग, विषप्रदान, किटाणुप्रकोप या तमाखू का अति व्यसन आदि करणों से आमाशय पित्त की वृद्धि और श्लैष्मिक त्वचा में उत्तेजना उपस्थित होती है, तथा यकृत निर्बल होजाने से योग्य पित्तस्त्राव नहीं कर सकता। फिर अम्लपित्त की संप्राप्ति होने पर यदि कफ का संसर्ग हो तो उल्टी में चिपचिपापन आ जाता है। एवं अन्य शरीर में भारीपन, शीतलता, अरुचि, निद्रा-वृद्धि आदि कफयुक्त लक्षण प्रतीत होते है। अथवा वात का संसर्ग होने से जब आमाशय, पित्ताशय, ह्रदय, अंत्र, बस्ती (मूत्राशय), पार्श्व, इनमें शूल (दर्द) चलना, झागयुक्त वमन, बार-बार डकार आना, कंप, प्रलाप (बेहोशी में बोलना), मूर्छा, भ्रम (चक्कर), अंधेरा आना आदि लक्षण प्रतीत होते है। अनेकों को कब्ज भी रहता है, उन कफ और वातप्रधान लक्षणों पर लीलाविलास रस अच्छा काम देता है।

बार-बार अत्यधिक भोजन करते रहना, सूर्य के ताप का अति सेवन, विषप्रकोप और किसी रोग के कारण निर्बलता आ जाने पर आमाशय अशक्त हो जाता है। फिर भोजन को पचन कराने के लिये शक्ति से अधिक पित्तस्त्राव कराते रहने या उग्र पित्तस्त्राव कराते रहने पर अम्लपित्त रोग उत्पन्न हो जाता है। अपचन, भोजन का विदाह (जलन) होकर छाती में जलन होना, पेट में भारीपन बना रहना आदि लक्षण उपस्थित होते है। उन पर यह लीलाविलास रस दिया जाता है। भोजन में मधुर फलों का रस या थोड़ा लघु अन्न देवें। यदि मुंह में छाले, भयंकर तृषा, अति खट्टी और उष्ण वमन, बार-बार बड़ी-बड़ी वमन, नेत्रों में जलन, गरम-गरम पतले दस्त, भोजन का लेने पर तुरंत वमन हो जाना, बार-बार वमन होना आदि पित्तप्रकोपजनित घोर लक्षण प्रतीत होते हो, तो बिना शोधन किये लीलाविलास रस या अन्य अम्लपित्त नाशक औषधि नहीं देनी चाहिये। पहले वमन कारवें या आमाशय-नलिका (Stomach Pipe) द्वारा आमाशय को शुद्ध करें। फिर प्रातःकाल को अविपत्तिकर चूर्ण, सायंकाल को लीलाविलास रस तथा दोपहर को पित्त के तीव्रत्व और अम्लत्व को कम करने वाली सहायक औषधि प्रवाल, वराटिका, शुक्ति या सूतशेखर रस देना चाहिये। यदि आमाशय में व्रण होकर वमन होती हो, तो लीलाविलास रस नहीं देना चाहिये, इस पर सुवर्णमाक्षिक का प्रयोग करना चाहिये।

मात्रा: 1 से 3 गोली दिन में 2 से 3 बार शहद के साथ दें। (1 गोली = 121.5 mg)

घटक द्रव्य: शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, लोह भस्म, ये सब समभाग लेकर आंवले के रस तथा बहेड़े के रस में 3-3 दिन तक खरल करें। पश्चात भांगरे के रस में 1 दिन खरल करके 1-1 रत्ती (121.5 mg) की गोलियां बांधे।  

Ref: भैषज्य रत्नावली

Previous Post
Next Post

0 टिप्पणियाँ: