आयुर्वेदिक मत से
वायविडंग चरपरा, कड़वा,
गरम, रुचिकारक,
हल्का, जठराग्नि को दीपन करने वाला तथा वात, कफ, मंदाग्नि,
अरुचि, भ्रांति,
कृमिशूल (कृमि के कारण होनेवाला पेट दर्द), अफरा,
पेट के रोग, प्लीहा (Spleen),
अजीर्ण, श्वास,
खांसी, ह्रदय रोग,
विष विकार, आम, मलस्तंभ,
मेदरोग (Obesity) और प्रमेह को दूर करती है।
वायविडंग भारतीय
चिकित्सा पद्धति के अंदर अपने कृमिनाशक गुणों की वजह से एक बहू मूल्य वस्तु समझी
जाती है। महर्षि सुश्रुत संहिता में बड़ी से बड़ी कृमिनाशक और बड़ी से बड़ी जीवन शक्ति
की रक्षा करने वाली दो औषधियों के संयोग से एक “सर्वोपघात शमनीय” नामक औषधि का
आविष्कार किया। इस औषधि की प्रस्तावना में उक्त महर्षि लिखते है कि – वात, पित्त, कफ वगैरह शारीरिक और सत्व, रज, तम वगैरह मानसिक दोषों की वजह से और
प्रकृति लुब्ध आचरण से शरीर में नुकसान करने वाले जो जो उपद्रव पैदा होते है उन सब
को यह औषधि निवारण करती है। यह औषधि इस प्रकार है।
उत्तम पके हुए
पुराने वायविडंग लेकर उनके ऊपर के छिलकों को उड़ा कर जो मगज बाकी रहे उनको कूट कर
बारीक चूर्ण कर लेना चाहिये। इस चूर्ण में उतने ही वजन का मुलेठी की जड़ का बारीक
चूर्ण मिला देना चाहिये। इस चूर्ण में से प्रतिदिन सबेरे अपनी शक्ति के अनुसार
चूर्ण लेकर ठंडे पानी के साथ खा लेना चाहिये। उसके ऊपर थोड़ा ठंडा पानी और पी लेना
चाहिये। जब यह चूर्ण पच जाय तब उसके बाद देरी से भोजन करना चाहिये। पथ्य में सिर्फ
साँठी चावल का भात घी तथा मूंग और आंवले का यूष इतनी ही चीजें लेना चाहिये और भोजन
दिन में एक ही बार करना चाहिये।
इस प्रकार इस
औषधि को एक महीने तक सेवन करने से सभी जाति के बवासीर नष्ट होते है। किसी भी
व्याधि को उत्पन्न करने वाले, किसी भी जाति के और शरीर के किसी भी अंग
में रहने वाले जंतु इससे नष्ट होते है। स्मरण शक्ति बहुत बढ़ती है। प्रति वर्ष एक
एक मास तक इस औषधि का सेवन करने से मनुष्य हमेशा निरोग रहता है और दिर्धायु होता
है।
प्रसिद्ध वैध
झंडू भट्ट जी ने सुश्रुत के बतलाये हुए उपरोक्त सर्वोपघात शमनीय प्रयोग का अनेक
रोगियों पर अनुभव करके बतलाया कि इस औषधि में अग्नि वर्धक, कृमिनाशक, रक्त शोधक,
वात-कफ नाशक और ज्ञान तंतुओ के लिये शक्ति वर्धक ये सब गुण पाये जाते है। इससे
अतिसार, संग्रहणी,
बवासीर वगैरह मंदाग्नि से होने वाले अफरा, गोला,
शूल, वगैरह वात और कफ से होने वाले प्रमेह, उपदंश, भगंदर,
कंठमाला, कोढ वगैरह रक्त की अशुद्धि और कृमियों से
उत्पन्न होने वाले उन्माद (Insanity), अपस्मार (Epilepsy),
अर्धांग इत्यादि ज्ञान तंतुओ की निर्बलता से होने वाले और क्षय (TB), खांसी, श्वास वगैरह फेंफड़ों की खराबी से होने
वाले रोगों में इस प्रयोग से बहुत उत्तम लाभ होता है। इसके अतिरिक्त हैजा, मलेरिया, प्लेग,
वगैरह जंतु जन्य प्राणघातक रोगों के आक्रमण के समय इस प्रयोग का सेवन करते रहने से
इन रोगों के आक्रमण का भय नहीं रहता।
जंगल नी जड़ी बूटी
के लेखक वैध शास्त्री शामलदास गौर लिखते है कि हमने भी इस सर्वोपघात शमनीय प्रयोग
का कई रोगियों के ऊपर सफलता पूर्वक अनुभव किया है। इस प्रयोग में पहली वस्तु
वायविडंग है जो सब प्रकार के कृमियों को नष्ट करने में सर्वोत्तम वस्तु है। और
दूसरी वस्तु मुलेठी है जो प्राण तत्व की रक्षा करने में और आयु बढ़ाने में अपनी
सानी नहीं रखती। इन दोनों उत्तम वस्तुओं के संयोग से यह योग बहुत ही विलक्षण हो
गया है। जब कोई भी रोग बहुत हठीला हो गया हो और किसी भी उपाय से न मिटता हो तब
रोगी को पहले 1-2 महीने इस प्रयोग का सेवन करा कर पश्चात रोग की कोई खास दवा देने
से तत्काल लाभ होता है। पित्त के रोगों में तथा पित्त प्रकृति वालों को यही प्रयोग
द्राक्ष के क्वाथ अथवा नीमगिलोय के स्वरस के साथ देने से और वायु तथा कफ की
प्रकृति वालों को भीलवे के क्वाथ के साथ देने से विशेष रूप से लाभ होता है इस
प्रयोग का यदि विधि पूर्वक उपयोग किया जाय तो क्षय की प्राण घातक व्याधि से ग्रस्त
रोगी तथा भयंकर उपदंश के विष से अंतिम स्थिति में पहुँचे हुए व्रण, नासूर, भगंदर,
कंठमाला, कुष्ट (Skin
Diseases), संग्रहणी,
अर्धांग इत्यादि के रोगी भी अच्छे हो जाते है।
डॉ. देसाई के मत
से वायविडंग उष्ण, दीपन,
पाचन, कुछ अनुलोमिक और मूत्रल, उत्तम कृमिनाशक, बलकारक,
मस्तिष्क और मज्जा तंतुओं को शक्ति देने वाली,
रक्त शोधक और रसायन होती है। इसके लेने से पेशाब का रंग लाल होता है और उसकी
अम्लता बढती है। इस औषधि की क्रिया शरीर की सब ग्रंथियो पर और प्रधान रूप से रस
ग्रंथि पर होती है। यह शरीर की सारी जीवन विनिमय क्रिया को उत्तेजन देती है।
मनुष्य के शरीर
पर पारद का जैसा विलक्षण प्रभाव होता है वैसा ही वायविडंग का होता है। वायविडंग को
लेने से भूख लगती है। अन्न पचता है। वजन बढ़ता है। त्वचा की कांति दीप्त होती है।
शरीर में तेज का संचार होता है और मन में प्रसन्नता पैदा होती है। बच्चों के लिये
तो एक दिव्य औषधि है। जिन बच्चों को सूखे का रोग हो गया हो, खाया हुआ अन्न नहीं पचता हो, हाथ पांव पतले होकर के त्वचा ढीली हो गई हो और पेट
बड़ा हो गया हो। ऐसे बच्चों के प्राण बचाने वाली औषधि वायविडंग ही है और उसको अनंत
मूल के साथ देने से यह विशेष लाभदायक होती है। बच्चों के स्वस्थ रहने के लिये
वायविडंग के दानो को दूध में उबालकर वह दूध पीने को दिया जाता है।
मज्जा तन्तु
संबंधी रोगों में (जैसे अर्द्धांग वायु, इत्यादि) वायविडंग को लहसन के साथ दूध
में उबाल कर वह दूध पिलाया जाता है।
चर्म रोगों में
वायविडंग का भीतरी और बाहरी दोनों प्रयोग होते है। तरह तरह के कुष्ठ रोग तथा चर्म
रोग अन्न की पाचन क्रिया ठीक न होने की वजह से ही होते है। वायविडंग पाचन क्रिया
को सुधरता है और दस्त साफ लाता है। इसलिये कुष्ठ और चर्म रोगों पर इसका अनुकूल
प्रभाव होना स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त त्वचा पर इसकी उत्तेजक क्रिया भी होती
है।
अग्निमांद्य, अरुचि, अजीर्ण,
उल्टी, शूल,
अफरा और बवासीर में वायविडंग मट्ठे के साथ दिया जाता है। अतिसार और संग्रहणी में
वायविडंग का क्वाथ बनाकर देते है। अजीर्ण रोग में कभी कभी खांसी और श्वास पैदा हो
जाते है। तब वायविडंग को पीपल के साथ देते है। गोल और चपटे कृमियों को निकालने के
लिये 1 तोला (1 तोला = 11.66 ग्राम) वायविडंग का चूर्ण पानी अथवा दही के साथ देते
है। इससे सब कृमि मरकर निकल जाते है। कृमियों को नष्ट करने के लिये जब इस औषध को
देना हो तब पहले अरंडी के तेल का जुलाब देकर आंतों को साफ कर लेना चाहिये और फिर
खाली पेट इस औषधि को देना चाहिये और दूसरे दिन फिर जुलाब देना चाहिये। पीनस और आधा
शीशी में वायविडंग का चूर्ण सूंघने से लाभ होता है।
डायमोक के
मतानुसार वायविडंग की भारतवर्ष के अंदर एक कृमिनाशक वस्तु की तरह बहुत भारी
प्रशंसा है। खास करके टेपवर्म (चपटे कृमि) को नष्ट करने में तो यह औषधि बहुत
प्रसिद्ध है। छोटे बच्चों को इसके चूर्ण की 1 चाय के चम्मच के बराबर मात्रा दिन
में दो बार दी जाती है। और बड़े लोगों को इसके चूर्ण की एक तोले तक की मात्रा दी
जाती है। यह बहुत सूक्ष्म आनुलोमिक होती है। यह सुस्वादिष्ट, कुछ संकोचक और कुछ सुगंधित होती है। यह कृमियों को मारकर
बाहर निकाल देती है। रोगी को पहिले एक जुलाब देकर इस औषध के लिये तैयार कर लेना
चाहिये। इसके फलों को दूध में उबालकर वह दूध पिलाने का आम रिवाज है और यह विश्वास
किया जाता है की इससे बच्चों के पेट में बादी (वायु) और कृमि पैदा नहीं होते।
यूनानी मत –
यूनानी मत से वायविडंग गरम और खुश्क होती है। यह हल्की, भूख पैदा करने वाली,
कृमियों को नष्ट करने वाली और पौष्टिक होती है। आमाशय (Stomach) और आंतों में होने वाले दर्द को यह मिटाती है।
वायविडंग के 1 तोला बारीक चूर्ण को आध पाव मट्ठे में मिलाकर प्रातःकाल खाली पेट
पिलाने से पेट के कीड़े मर जाते है। दूध में वायविडंग के दाने डालकर गरम करके छान
कर छोटे बच्चों को पिलाने से उनका पेट फूलना बंद हो जाता है। वायविडंग को तंबाकू
के साथ चिलम में रखकर धुआं खींचने से आमाशय और आंतों में होने वाला बादी का दर्द
मिट जाता है।
सूचना: बच्चों पर किसी भी
औषधि का प्रयोग चिकित्सक की सलाह से करें।
🙏 🙏 बहुत-बहुत धन्यवाद सर इतनी ज्ञानवर्धक बातों की जानकारी देने के लिए।
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