ताप्यादि लोह शीत
ज्वर के बाद होनेवाला पांडु (Anaemia), स्त्रियों के पांडु रोग, ह्रदय की निर्बलता,
थोड़ा-थोड़ा सूजन, भोजन के बाद अफरा, मासिक धर्म की अनियमितता, छोटे बालकों को मिट्टी खाने से होनेवाला पांडु, कृमिजन्य पांडु, अरुचि,
उल्टी, यकृत (Liver)
के ऊपर में होनेवाला मांसार्बुद (मांस की गांठ),
आदि रोगों का नाश करता है। इस रसायन के योग से रक्तकण की वृद्धि होकर अभिसरण
क्रिया (Blood
Circulation) सुधरती है; और ह्रदय आदि इंद्रियाँ बलवान बनकर अनेक रोग नष्ट हो
जाते है।
प्राचीन शास्त्रकारों
ने ताप्यादि लोह का मुख्य उपयोग पांडु रोग पर लिखा है। इसकी रचना पर दृष्टि डालने
से विदित होता है कि, रक्त की अशक्तता या रकताभिसरण क्रिया की
मंदता के कारण से उत्पन्न होनेवाले रोगों में इसका उपयोग हो सकता है।
आयुर्वेद में
जिसको पांडु सज्ञा दी है, उस रोग की भिन्न-भिन्न अवस्थाओ में
भिन्न-भिन्न कारण होते है। किसी भी रोग के प्रखर आघात से रक्त में रहे हुए
रक्ताणुओ का नाश होकर रक्त में एक प्रकार का फीकापन आता है। जिससे त्वचा निस्तेज
हो जाती है। मुंह और शरीर पर सूजन आ जाती है। इन लक्षणो से युक्त अवस्था को
पांडुरोग कहा है। यह अवस्था किसी-किसी समय अन्य तीव्र रोग के उपद्रव रूप भी होती
है। इस प्रकार पांडु में इस औषध के योग से रक्तकण की वृद्धि और दृद्धता होती है।
अभिसरण क्रिया सुधरती है, तथा ह्रदय आदि अभिसरण करने वाली इंद्रिया
सशक्त होकर रोग का नाश होता है।
अनेक दिनों तक
शीतज्वर (Malaria) आ जाने के कारण पांडुता उत्पन्न हो जाती
है, उसपर ताप्यादि लोह का उपयोग होता है। ऐसी
अवस्था में लोह भस्म युक्त औषधि देने का शास्त्रकारो ने विधान किया है। आयुर्वेद
में केवल लोह भस्म की अपेक्षा मंडूरवटक, नवायस लोह,
त्रिफला लोह आदि लोहमिश्रित औषध देने का रिवाज है और वह उत्तम है। यह ताप्यादि लोह
इन औषधियों में से ही एक है।
तरुण स्त्रियों
को होनेवाला पांडु (Anaemia) में इस ताप्यादि लोह का उपयोग होता है।
इस पांडु रोग में त्वचा का रंग एक प्रकार का हारा-पीला हो जाता है। स्त्री केवल
अशक्त, किसी भी बात की इच्छा न होना, किसी काम करने में उत्साह का अभाव, बैठी हो तो बैठी ही रहने की इच्छा, ह्रदय में घबराहट और धड़कन, ह्रदय स्पंदन की वृद्धि, ह्रदय की निर्बलता,
ह्रदय के एक खंड में से दूसरे खंड में रक्त जाने की क्रिया में विकृति हो जाना, मुंह, हाथ,
पैर, नेत्र,
होठ और गाल पर थोड़ी सी सूजन, अपचन,
थोड़ा-सा खाने पर भी पेट फूल जाना, दूषित डकार आना, यथासमय रजोदर्शन (मासिक धर्म) न होना इत्यादि लक्षण
होने पर ताप्यादि लोह का उपयोग करना चाहिये।
कृमिजन्य
पांडुरोग में हाथ-पैर पर सूजन, ह्रदय में घबराहट, नाड़ी की तेज गति,
बेचैनी, मल मलीन-सा, आम, झाग और रक्तयुक्त, शौच कम समय होवे,
परंतु प्रत्येक समय मल ज्यादा निकले, अविपाक,
अरुचि, कभी-कभी उल्टी, पेट में थोड़ा-थोड़ा दर्द, सफेद निस्तेज रक्तहीन त्वचा, मानसिक अस्थिरता,
उत्साह न रहना, शक्तिपात और कृशता आदि लक्षण होने पर पेट
में, विशेषतः ग्रहणी (Duodenum) में सूक्ष्म-सूक्ष्म कृमि है, ऐसा मानना चाहिये। इस कृमियों को नष्ट करने के लिये
पहिले कृमिध्न औषधि देनी चाहिये, पश्चात अथवा साथ-साथ ताप्यादि लोह भी
देना चाहिये।
ताप्यादि लोह में
यकृतशक्तिवर्धक (Liver Tonic), पाचक और अग्निप्रदीपक चित्रक आदि औषधिया
होने से इसका उपयोग कामला रोग में भलीभांति होता है। यकृत के ऊपर उत्पन्न होनेवाले
मांसार्बुद (कर्कस्फोट) के कारण से कामला रोग हुआ हो, तो ताप्यादि लोह थोड़ा-बहुत काम करता है। परंतु इसके
अतिरिक्त अन्य प्रकार के कामलारोग में ताप्यादि लोह का बहुत अच्छा उपयोग होता है।
सारे शरीर में
पीलापन, नख, मूत्र,
नेत्र और त्वचा, ये सब अति पीले, इतने परिमाण में है कि पहने हुए कपड़े और बैठन की गादी
की चादर भी पीली हो जाना, मूत्र का रंग अत्यंत पीला, कभी कभी अति लाल भी हो जाना, शौच मैला सफेद रंग का चिकनापन रहित झागयुक्त, पतला होना, अन्न पर अरुचि, मंदाग्नि और बलविहीनत्व आदि लक्षण होने पर ताप्यादि
लोह आम के मुरब्बे के साथ या मिश्री मिले मूली के रस के साथ देने से उत्तम कार्य
होता है। इसके साथ अमलतास की फली का गर्भ या अन्य सौम्य विरेचन देना चाहिये।
छोटे बच्चो के
बालग्रह (धनुर्वात) में यह औषधि अच्छा कार्य करती है। केवल इसके साथ अरंडी का तैल
या अन्य मृदु विरेचन देना चाहिये। बालग्रह का पहिला तीव्र झटका आजाने के बाद इसका
विशेष उपयोग होने के अनेक उदाहरण है। पुराना बालग्रह, अपचन से उत्पन्न बालग्रह, उन्माद रोग से पीड़ित माता के बालक को होनेवाला बालग्रह, डरपोक, क्रोधी और निर्बल मनवाली माता के संतान
को होनेवाला बालग्रह, इन सब पर ताप्यादि लोह सफल औषधि है।
पुराने बालग्रह रोग में अनुपान ब्राह्मी का रस देना चाहिये।
ताप्यादि लोह में
शिलाजीत का परिमाण अधिक होने से इसका उपयोग मूत्रविकार पर होता है। मूत्र में रहे
हुए अनेक प्रकार के क्षार शरीर में संचित हो जाने से उत्पन्न विविध विकारों में, विशेषतः वातविकार में,
उनमें भी पुराने वातविकार में इस औषधि का अच्छा उपयोग होता है।
शिलाजीत मूत्रल, आमपाचक, रक्तदोषहर और शरीर में संचित मूत्र के
अद्भुत क्षारो का वियोजन करके मूत्रद्वारा स्त्राव कराने वाली सेंदरीय औषधि है।
शिलाजीत सेंदरीय द्रव्य होने से शरीर में जाने के साथ तुरंत शोषण होकर अपना कार्य
करने लगता है। शिलाजीत के इस गुण के कारण यह कल्प (ताप्यादि लोह) पुराने आमवात (Rheumatism) और वातरक्त (Gout), एवं इनसे उत्पन्न होनेवाले स्नायुसंकोच
अथवा वातवाहिनियों की शुष्कता इन सब विकारों पर बहुत अच्छा काम देता है।
इसी कारण से
प्रमेह आदि रोग से उत्पन्न कोथ (घटको का गलना-Gangrene)
को बिलकुल प्रथम अवस्था में ताप्यादि लोह का सेवन करने से आगे होनेवाले सब अरिष्ट
दूर हो जाते है, ऐसा अनुभव है। त्वचा में या त्वचा के
भीतर के भाग में भयंकर जलन, कालापन,
साथ-साथ सूक्ष्म बुखार, बेचैनी,
घबराहट, मानसिक अस्वस्थता, प्यास आदि लक्षण अति बढने पर त्वचा बिलकुल काली-डामर
के समान रंग वाली हो जाती है। इस तरह कोई रोग अत्यंत बढ गया हो, तो इस औषधि का उपयोग ज्यादा नहीं हो सकेगा। परंतु
प्रारंभ काल में यदि इसकी योजना की हो, तो रोग की वृद्धि रुक जाती है और
धीरे-धीरे रोग कम हो जाता है।
शरीर पर भयंकर
खाज, छोटी-छोटी फुंसिया होना, त्वचा पर काले धब्बे हो जाना, फुंसियों का विष (Toxin)
फैल कर दाद के समान खाज आते रहना, और यह विकार कभी ज्यादा कभी कम हो जाना।
ऐसी स्थिति में ताप्यादि लोह अच्छा उपयोगी है। ऐसे त्वचा रोग में गंधक रसायन की
अपेक्षा ताप्यादि लोह ही युक्त औषधि है।
आयुर्वेद में
अम्लपित्त रोग (Acidity) में अनेक भिन्न-भिन्न कारणो का अर्थात
शरीरावयव विकृति का समावेश होता है। साधारण रूप से पित्त ज्यादा उत्पन्न होने से
होनेवाला, पित्त ज्यादा तीव्र होने से होनेवाला, पित्तोत्पादक पिंड का क्षोभ (Irritation) होने से होनेवाला,
अन्तर व्रण (Ulcer) होकर पेट की आकृति बढ़ जाने से होनेवाला, इस रीति से अम्लपित्त के अनेक प्रकार होते है। इनमें
से पेट की आकृति बढ़ जाने से होनेवाले अम्लपित्त में सुबह उल्टी अवश्य करानी पड़ती
है, यह विशेष लक्षण है, तथा कंठदाह, पेट में जलन, थोड़ा पेट दर्द, उल्टी हो जाने पर अच्छा लगना आदि लक्षण
हो, तो ताप्यादि लोह मक्खन-मिश्री के साथ
देना चाहिये।
बद्धकोष्ठ
(कब्जियत) रोग अंत्र (Intestine) की निर्बलता के कारण से होता है। अन्न का
पचन अच्छी रीति से न होना, मलोत्सर्ग बराबर न होना, खाये हुए भोजन का विदाह (जलन), सेंदरीय विष पेट में संचित होकर आम संचय हो जाना, इन कारणों से बद्धकोष्ठ उत्पन्न होता है। इन में से
वर्तमान में अंत्र निर्बलता और इस अंत्र निर्बलता के कारण उसकी संचालन क्रिया कम
होकर उत्पन्न मलावरोध अधिकांश में प्रतीत होता है। अंत्र शक्ति कम हो जाने से किसी
भी प्रकार की विरेचन औषधि का इष्ट परिणाम नहीं होता; बल्कि
अनिष्ट परिणाम होता है। कारण, विरेचन औषधि से अंत्रशक्ति में न्यूनता
होती है और विष (Toxin) की वृद्धि होती है। फिर आम संचय होकर
अंत्र में निर्बलता आ जाती है। इसी कारण से बद्धकोष्ठ निर्माण होता है। ऐसे रोगी
को विरेचन देने से बद्धकोष्ठ बढ़ने का ही अनुभव में आता है। इस कारण से ऐसे रोगी को
विरेचन नहीं देना चाहिये।
इसके विपरीत अंत्र को
बलवान बनाकर मलोत्सर्ग कराने वाली औषधि देना, यही श्रेयस्कर है। इस अवस्था में
ताप्यादि लोह के सेवन से धीरे-धीरे आंते बलवान बनकर बद्धकोष्ठ की आदत कम हो जाती
है। यदि यह ताप्यादि लोह देने पर कोई समय मलावरोध हो जाय; और अति आवश्यकता हो,
तो बस्ती देनी चाहिये; परंतु विरेचन नहीं देना चाहिये।
किसी भी अवयव में
रक्त का दबाव बढ़ने पर उसका प्रसादन करना, यह ताप्यादि लोह में बड़ा भारी गुण है। यह
गुण शिलाजीत, रौप्य और सुवर्णमाक्षिक के कारण से
दृष्टिगोचर होता है। इस कारण रक्तज मूर्छा, पक्षाघात और आंत्रिक सन्निपात (Typhoid) में होनेवाले रक्तजन्य वातप्रकोप के शमनार्थ ताप्यादि
लोह अति उपयोगी है।
पक्षाघात के
बिलकुल प्रारंभिक एक दो दिन में रोगी बेहोश, नेत्र लाल,
बुखार, रक्तहीनता,
हाथ-पैरों की शक्ति बिलकुल नष्ट हो जाना, जड़ता,
जिह्वा की बोलने की शक्ति कम हो जाना, अंग का एक ओरका अर्ध भाग अकस्मात
शक्तिहीन होकर काष्ठवत हो जाना आदि लक्षणो से युक्त पक्षाघात में प्रारंभ के दो
दिन जाने के पश्चात रोग कुछ स्थिर हो जाने पर लोह का उपयोग करना हितकर है।
पक्षाघात की इस अवस्था में ताप्यादि लोह का एकांगवीर की अपेक्षा भी अच्छा उपयोग
होता है। परंतु पक्षाघात की पुरानी अवस्था में इस औषधि का चाहिये वैसा उपयोग नहीं
होता।
ताप्यादि लोह का
उपयोग रक्तप्रसादन गुण के कारण दुष्ट रक्तजन्य ज्वर (बुखार), सूतिकाज्वर और पूय (Puss)
जन्य ज्वर में आक्षेपक, झटके,
तंद्रा और मूर्छा, इन विकारों पर अच्छी रीति से होता है।
इस औषधि में
रक्तप्रसादन और बद्धकोष्ठनाशक गुण होने से अर्श (बवासीर) की प्रारंभिक अवस्था में
उत्पन्न मस्से पर इसका उत्तम उपयोग होता है। वे ही मस्से बड़े हो जाने पर या अधिक
सूजन आ जाने पर बाह्य उपचार द्वारा निकाल देने के सिवा अन्य उपाय नहीं है।
ह्रदय की अशक्तता
या ह्रदयस्पंद विकार से उत्पन्न कास (खांसी) रोग में फुफ्फुसों के भीतर विदाह, सूक्ष्म ज्वर, मुंह में शुष्कता। चाहे जितना जलपान करने
पर भी तृप्ति न होना, खाँसते-खाँसते पीली, कड़वी, खट्टी और गरम-गरम उल्टी हो जाना, वेग उत्पन्न होने पर खूब खांसी चलना, मुंह और सारा शरीर निस्तेज और पीला-सा होजाना, बार-बार खाँसते रहने से मुंह, विशेषतः गाल थोड़े फुले हुए दिखना और घबराहट आदि लक्षण
होते है, उस पर ताप्यादि लोह दाडिमावलेह के साथ
देना चाहिये।
आमाशय (Stomach), पक्वाशय (Duodenum), ऊर्ध्व और मध्यम बृहदंत्र (Large Intestine) में समान वायु का कार्य योग्य प्रकार से
न होने से बार-बार अपचन होने की आदत पड़ जाती है। साथ-साथ अरुचि, उबाक, पेट में जड़ता, अन्न समीप आने पर मुंह में जल आ जाना आदि लक्षण अधिक
हो एवं मर्यादा में या थोड़े परिमाण में भोजन करने पर भी पचन न होता हो, तो उस विकार पर ताप्यादि लोह अच्छा काम करता है।
काल मेह, नील मेह, हरिद्र मेह, मंजिष्ठामेह, इन प्रमेहों में विशेषतः पित्त-प्राधान्य
लक्षण होते है। इन पर चन्द्रप्रभा, नाग भस्म और ताप्यादि लोह उपयोग में आते
है। अपचन से होनेवाले या इन रोगोंवाले रोगियों को अधिकतर अपचन रहती हो; निश्चितता, स्थिरता और लक्षणों की दृद्धता ज्यादा न
हो; लक्षणों की चंचलता हो, तो इन प्रमेहो में ताप्यादि लोह का सेवन हितकर होता
है।
रक्त की अशक्तता
के कारण से शरीर फूलकर आया हुआ सर्वांग शोथ (सारे शरीर में सूजन), बवासीर या अन्य मार्ग से रक्तस्त्राव अधिक होने पर
आया हुआ शोथ, यकृतवृद्धि (Liver Enlargement), प्लीहावृद्धि (Spleen Enlargement), कब्ज या मूत्रपिंड (Kidney) की विकृति से उत्पन्न शोथ, रक्तस्त्राव अधिक हो जाने से आई हुई निर्बलता और उससे
उत्पन्न क्षय, विशेषतः रक्त धातु का क्षय तथा तदनन्तर
उत्पन्न शोथ, इन सब प्रकारों पर ताप्यादि लोह उत्तम
कार्य करता है।
संक्षेप में
ताप्यादि लोह पांडु, कामला,
अपस्मार, बालकों के बालग्रह, पुराना वातविकार,
कोथ (शरीर के घटकों का गलना), खुजली,
अम्लपित्त, कब्ज,
रक्तदबाव वृद्धि, वातप्रकोप,
नूतन पक्षाघात, पूयजन्य ज्वर, सूतिकाज्वर, दुष्ट रक्तजन्य ज्वर, धनुर्वात, पुराना विषप्रकोप; ह्रदय विकृति से होनेवाला कासरोग, क्षतक्षय, अनियमित विषमज्वर, पुराना अजीर्ण रोग,
पित्तप्रधान प्रमेह, शोथ रोग,
रक्त में विष अथवा क्षारवृद्धि, स्त्रियों के गर्भाशय के दोष, मूर्छा, त्वचारोग इत्यादि को दूर करने में उत्तम
लाभदायक जाना गया है।
ताप्यादि लोह में
रक्तप्रसादक, रक्त के रक्ताणुवर्धक, मूत्रल, बल्य,
रसायन, आक्षेपध्न,
पाचन और दीपन गुण है। इस में सुवर्णमाक्षिक पाचन,
दीपन, आक्षेपध्न,
पांडुत्वनाशक (रक्ताणुवर्धक), बल्य और रसायन है। शिलाजीत रसायन, धातुपरिपोषण क्रम में सहायक और मेहनाशक है। रौप्य
मूत्रल, वृष्य (पौष्टिक) और आक्षेपध्न है। मंडूर
रक्तवृद्धिकर, रक्तस्तंभक, रक्तकणवर्धक और इस कारण से धातुवर्धक है। चित्रक पाचक, अग्निप्रदीपक, वातनाशक और अर्शोध्न (बवासीर का नाश
करनेवाला) है। त्रिफला रसायन, मृदु सारक और पचनेन्द्रिय को शक्ति देकर
पचनक्रिया बढ़ानेवाला है। त्रिकटु पाचक और अग्निप्रदीपक है। वायविडंग कृमिध्न और
पाचक है।
मात्रा: 1 से 3
रत्ती तक दिन में 2 समय मूली के रस या जल के साथ। (1 रत्ती = 121.5 mg)
घटक द्रव्य (Tapyadi Loha Ingredients): हरड़,
बहेड़ा, आंवला,
सोंठ, कालीमिर्च,
पीपल, चित्रकमूल,
वायविडंग प्रत्येक 2.5-2.5 तोले; नागरमोथा 1.5 तोले, पिपलामूल, देवदारु,
दारूहल्दी, दालचीनी और चव्य 1-1 तोला; शुद्ध शिलाजीत, सुवर्णमाक्षिक भस्म, रौप्य भस्म और लोह भस्म प्रत्येक 10-10 तोले; मंडूर भस्म 20 तोले और मिश्री 32 तोले।
Ref: ओ. गु. शा. (आयुर्वेदीय औषध गुणधर्म
शास्त्र), र. त. सा. (रस तंत्र सार)
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