शुक्ति भस्म क्षय
(TB), खांसी,
पुराना बुखार, आंखों में जलन, पेट की गेस, पित्तज गुल्म (Abdominal Lump), श्वास,
ह्रदय रोग (पित्तप्रकोपज), पित्तप्रधान अरुचि, पित्तज परिणामशूल (भोजन के बाद पेट में दर्द होना), यकृत शूल (Hepatalgia), पित्तज वमन (पित्त की वजह से होने वाली
उल्टी), पित्तातिसार (पित्त की वजह से होने वाला
दस्त), अम्लपित्त (Acidity), डकार आना, रक्त प्रदर और निर्बलता को दूर करती है।
शुक्ति भस्म में मुक्ता भस्म की अपेक्षा कम गुण है।
शुक्ति भस्म में
शंख भस्म की अपेक्षा तीव्रता कम है। वस्तुतः शुक्ति,
शंख, वराटिका,
तीनों भस्म स्थूल रसायनशस्त्र की दृष्टि से एक ही प्रकार की है। तीनों ही चुने के
सेंद्रिय कल्प है। परंतु जीवन रसायन शास्त्र या गुणधर्म शास्त्र की दृष्टि से
तीनों में कुछ कुछ अंतर है। शंख और वराटिका में अधिक समान गुण है, एवं शुक्ति और मुक्ता में भी विशेष समान गुण है। शुक्ति भस्म में वराटिका और शंख भस्म से तीव्रता न्यून
ही है। इसी हेतु से शुक्ति भस्म छोटे बच्चों, सुकुमार तथा नाजुक प्रकृति के
स्त्री-पुरुषों को दी जाती है।
शुक्ति भस्म के
सेवन से स्वादुता उत्पन्न होती है, जिससे अम्लपित्त, पित्तज शूल, परिणामशूल और अंत्रद्रवशूल में पित्त की
तीव्रता कम होती है।
अम्लपित्त (Acidity) में शुक्ति और माक्षिक का अच्छा उपयोग होता है।
विदग्धाजीर्ण में दूषित डकारें बहुत आती हो और कंठ में जलन होती हो, तो शंख भस्म की अपेक्षा शुक्ति भस्म विशेष हितकर है।
रसाजीर्ण की तीव्र और पुरानी अवस्था में नाजुक मनुष्यों को शुक्ति भस्म से ज्यादा
लाभ होता है।
पित्तातिसार
(पित्त के दस्त) में बार-बार दस्त होते हो, दस्त का रंग पीला, नीला अथवा लाल-नीला हो,
साथ में विलक्षण प्यास, बार-बार चक्कर आना, मूर्च्छा, सारे शरीर में जलन, गुदा के बाहर के अंश में त्वचा फटना, छोटी-छोटी फुंसियाँ हो जाना आदि लक्षण हो, तो शुक्ति भस्म देनी चाहिये। अनुपान – अनारपाक, आम का मुरब्बा, मक्खन या अनार शर्बत।
पित्तजन्य उल्टी
में शुक्ति भस्म का उपयोग होता है। अत्यंत गरम-गरम कड़वी, पीली, नीली उल्टी, कंठ में जलन, पेट में जलन, आंखों के समक्ष अंधकार,
चक्कर आना आदि लक्षण हो, तो यह हितावह है।
पित्तज गुल्म
(पित्त की वजह से होने वाली पेट के अंदर की गांठ) में यह भस्म हितकर है। मुंह, आँख और सारा शरीर लाल हो जाना, बुखार, प्यास,
अन्न का पचन होने पर पेट में भयंकर पीड़ा, व्रण (घाव) के समान गुल्म पर हाथ या अन्य
वस्तु का स्पर्श सहन न होना आदि लक्षणों से युक्त गुल्म में शुक्ति भस्म दी जाती
है।
पित्तज शिर दर्द
में भी इसका उपयोग होता है। मूत्रकृच्छ (पेशाब में जलन), दांत या अन्य भाग से रक्तस्त्राव होने की प्रकृति हो, तो शंख या वराटिका भस्म दी जाती है। परंतु कोमल
प्रकृति वाले के लीये इस भस्म का उपयोग करना चाहिये।
शुक्ति भस्म से
कोष्ठगत वात (पेट की गेस) का शमन होता है। कोष्ठगत वात के साथ श्वास हो, तो भी इसका उपयोग लाभदायक है। ह्रदय में वात की
रुकावट होना, ह्रदय में वात के योग से बोझा-सा मालूम
होना, पीड़ा
होना, शूल चलना,
कोष्ठ में जलन होने के समान भासना, हाथ-पैर शून्य से होकर झनझनाहट होना, हाथ-पैर में शीतलता का भास होना, इत्यादि लक्षण होते है,
और डकार आने पर व्यथा कम हो जाती है या बिल्कुल शमन हो जाती है। ऐसी स्थिति में
शंख तथा वराटिका की अपेक्षा शुक्ति भस्म का अधिक उपयोग होता है।
अरुचि में, विशेषतः पित्तप्रधान अरुचि में, शुक्ति भस्म का उपयोग किया जाता है। इस भस्म के सेवन
से मुंह की बेस्वादुता, मुंह में से दुर्गंध आना, मुंह का कड़वा, खट्टा,
खारा या चरपरा हो जाना, मुंह में से गरम-गरम भाप निकलना, ये सब लक्षण दूर होते है।
शुक्ति भस्म
पित्त और किंचित कफ दोष; रस, रक्त,
मांस, अस्थि ये दूष्य; और आमाशय (Stomach), यकृत (Liver),
प्लीहा (Spleen) और ग्रहणी (Duodenum), इन सब पर लाभ पहुंचाती है।
सूचना: मुक्ता, प्रवाल, शुक्ति,
वराटिका, शंख,
इनकी भसमे क्षार-रूप होने से सुखी औषधियों के साथ सेवन करने पर किसी-किसी के मुख
में छाले हो जाते है। अतः घी मिलाकर सेवन करें या गिलोय सत्व और शहद को अच्छी तरह
मिला लें। अथवा मुक्तापिष्टी या प्रवालपिष्टी सेवन करें।
मात्रा: 1 रत्ती
से 3 रत्ती (1 रत्ती =121.5 mg) दिन में 2 बार मक्खन मिश्री अथवा शहद या
पान में अथवा सितोपलादि चूर्ण, घी और शहद मिलाकर देवें। घी और शहद विषम
मात्रा में लें। समान मात्रा में कभी न लें। या घी को शहद से कम लें या शहद को घी
से कम लें।
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