शुक्रवार, 12 अप्रैल 2019

महायोगराज गुग्गुल के फायदे / Mahayograj Guggul Benefits


महायोगराज गुग्गुल सम्पूर्ण वातव्याधि (Nervous Disorder), आमवात (Rheumatism), वातरक्त (Gout), अर्श (बवासीर), कुष्ठ (Skin Diseases), संग्रहणी, प्रमेह, नाभिशूल, भगंदर, उदावर्त (पेट में गेस उठना), क्षय (TB), गुल्म (Abdominal Lump), अपस्मार (Epilepsy), श्वास, खांसी, मंदाग्नि, अरुचि, पुरुषों के धातुविकार और स्त्रियों के गर्भाशय के सब दोषों को दूर करता है। वंध्या स्त्री को पुत्र की प्राप्ति कराता है।

महायोगराज गुग्गुल में पाचक, अग्निदीपक, वातनाशक, आमदोषध्न (अपक्व अन्न रस से आम (Toxin) बनता है), रसायन, योगवाही (जो औषध खुद के गुण न छोडते हुए दूसरी औषधियो के गुण को बढ़ाए उसे योगवाही कहते है) और धातु परिपोषक क्रम को नियमित बनाने वाली औषधियाँ होने से यह उत्कृष्ट प्रयोग बना है। यह रसायन आमवात, वातरक्त और आमयुक्त रोगों में विशेष उपयोगी है। यह आमदोषध्न औषधियों में उच्च कोटि की औषधि है। जिस-जिस वातविकार में आमानुबंध है उस-उस वातरोग और उससे उत्पन्न अन्य रोगों पर यह बहुत अच्छा कार्यकर है। आमविकार की दो उत्पत्ति आयुर्वेद ने दी है। पहली पाचक अग्नि का बल कम होने से आद्य रस धातु अपक्व रहकर दुष्ट हो जाती है। दूसरी अत्यंत दुष्ट दोषों के परस्पर मूर्छन होने पर भीतर में जो विष तैयार होता है, उसे भी आम संज्ञा दी है। जिन-जिन रोगों में यह आम विष कारणभूत है, उन-उन रोगों को आम रोग – आमप्रधान रोग कहते है। इस प्रकार के रोगों में यह महायोगराज गुग्गुल उत्तम कार्य करता है। इसके सेवन से पाचक अग्नि योग्य कार्य करती है, जिस से संचित आम का पचन और नया आम बनने में प्रतिबंध होता है। इस रीति से रोग के मूल को ही यह नष्ट करता है; और दोषदुष्टि (वातादि धातुविकृति) को भी दूर करता है।

मूल संस्कृत ग्रंथ में इस महायोगराज गुग्गुल का उपयोग सब प्रकार के वातव्याधि पर लिखा है। किन्तु विशेषतः उपयोग पुराने आमवात में ही अच्छा होता है। नये आमवात में भी उपयोगी तो होता है, परंतु तीक्ष्ण अवस्था निकल जाने के बाद बार-बार संधियो में सूजन आना, या रोग बढ़ कर स्नायु मोटे और कमजोर हो जाना, नाड़ीयां आमयुक्त मोटी हो जाना, सारे शरीर में शूल (दर्द) निकलना इत्यादि लक्षण होने पर यह रसायन उत्तम कार्य करता है।

वातार्श (वात के कारण उत्पन्न बवासीर) में शुष्क और रुक्ष मस्से हो, तो महायोगराज गुग्गुल के सेवन से पीड़ा का शमन होता है। सब प्रकार के वातज प्रमेह, जिन में वातकार्य में अनियमितता कारण हो, और आमज प्रमेह, जो अपचन के पुराने विकार से आमसंचय होकर होता है, इन दोनों प्रकार के विविध प्रमेहो के लिये यह गुग्गुल अति हितकर है।

आमज प्रमेह का उल्लेख यद्यपि प्राचीन ग्रंथो में नहीं है; तथापि अपचन के पुराने विकार के बाद आमसंचय होकर प्रमेह हो जाने के अनेक उदाहरण मिले है। अधिक शक्कर, अधिक द्विदल धान्य या मेंदे का पदार्थ अधिक खानेवालों को इस प्रकार का प्रमेह होता है। अन्न-रस में जो एक प्रकार की शक्कर है, उसका परिमाण बढ़ जाने पर उसका संशोषण कर रूपांतरित करने का कार्य यकृत (Liver) का है। परंतु यकृत में आम विकार से विकृति हो जाने या स्त्रोतोरोध हो जाने से रूपांतर नहीं करा सकता। फिर वह अभिसरण में मिश्र होने से प्रमेह की उत्पत्ति हो जाती है। इस पर यह रसायन अच्छा कार्य करता है।

कुष्ठरोग (Skin Diseases) में आमानुबंध होने पर यह रसायन लाभदायक है। पुराना क्षुद्र कुष्ठ, पामा या कच्छु समान क्षुद्र कुष्ठ दबकर वातविकार उत्पन्न होने पर महायोगराज गुग्गुल अति उपयोगी है।

आमोत्पत्ति, आमसंचय और तज्जन्य वातप्रकोप होकर रक्त में विकृति होना, यह वातरक्त (Gout) का कारण है। वातरक्त की उत्पत्ति, बिना आमसंचय नहीं हो सकती। विशेषतः इस रोग के प्रारंभ में अफरा, अपचन, आमाशय (Stomach) और अंत्र (Intestine) में शूल (दर्द) या वेदना, बार-बार कब्ज, फिर अतिसार (Diarrhoea), मूत्र का परिमाण अल्प हो जाना, मूत्र में प्रचुर मात्रा में कठिन पदार्थ जाना, शारीरिक और मानसिक बल का ह्रास, स्वभाव में उग्रता आ जाना आदि लक्षण होते है। सामान्यतः पचनेन्द्रिय को आमजनन की पुरानी व्याधि लगी रहती है। इस कारण वातरक्त का रोगी बहुधा सदा के लिये पीड़ित रहता है। वातरक्त और आमवात, दोनों भाई है। वातरक्त का प्रारंभ हाथ या पैर के अंगूठे से होता है। पहले अंगूठे सूजते है। फिर शूल के समान वेदना होती है, और सूजन आने लगती है। सब अंगुलियाँ मोटी-मोटी हो जाती है, एवं भूख न लगना, अति प्यास, मूत्र लाल, स्वच्छ और थोड़े परिमाण में होना, शूल, स्फुरण, कंप, रुक्षता, काले धब्बे, सूजन, वातवाहिनियाँ और संधिस्थानो का अकड़ना और खिचना, अत्यंत पीड़ा, ठंडी और शीत स्पर्श सहन न होना इत्यादि लक्षण होते है। इस रोग को महायोगराज गुग्गुल नष्ट करता है। वातरक्त से उत्पन्न विविध रोगसंकर – शिर दर्द, मन्यास्तंभ, हनुस्तंभ, इनको भी यह दूर करता है। किन्तु वातरक्त में जब निद्रा न आना, मांस कोथ (मांस सड़ना) आदि उपद्रव होने लगते है, तब इस रसायन का उपयोग नहीं होता। यद्यपि वातरक्त में अमृता गुग्गुल और कैशोर गुग्गुल का उपयोग भी होता है; तथापि नया विकार और तीव्रावस्था में ये उपयोगी है, और महायोगराज गुग्गुल पुरानी अवस्था में विशेष उपयोगी है; यह इनके गुणों में अंतर है।

पेट में आम संचय होने से नाभि प्रदेश में बार-बार दर्द उत्पन्न होना, कब्ज, मलसंचय, अरुचि, मल आम-मिश्रित होना आदि लक्षण होने पर यह महायोगराज गुग्गुल लाभदायक है। भगंदर जो एक मार्गी हो, अधिक गहरा न हो, विशेषतः वातज अथवा आमवातज हो, उस पर गुग्गुल वाली औषध लाभदायक है। नये विकार में सप्तविशती गुग्गुल और पुराने विकार में महायोगराज गुग्गुल लाभदायक है।

उदावर्त रोग में यदि स्थूलांत्र में मलावरोध या अपक्व अन्न शेष से अवरोध होकर पेट में अफरा, अपानवायु (Fart) और शोच-प्रवृति का निरोध, ह्रदय के समीप में दर्द, मुंह में पानी आना, बेचैनी, मूत्र-प्रवृति कम होना, बस्ती (मूत्राशय) मूत्र से भर जाना, परंतु अवरोध के कारण मूत्रोत्सर्ग न होना, श्वास, खांसी, जलन, प्यास, उल्टी, बुखार, हिक्का, तंद्रा, शिरदर्द, भ्रम, कान में आवाज आना, सारे शरीर में पीड़ा इत्यादि लक्षण होने पर पहले तीक्ष्ण स्नेह बस्ती से मलशुद्धि करके महा योगरण गुग्गुल दिया जाय, अथवा एरंड तैल में मिलाकर दिया जाय तो उत्तम कार्य करता है।

वातगुल्म (वात के कारण उत्पन्न पेट की गांठ) में विशेषतः आमानुबंध हो, कंठ और मुंह में शुष्कता, बार-बार शीतज्वर (ठंड लगकर बुखार आना), अधोवायु की मंद प्रवृति, मलसंचय, अपचन होजाने पर गुल्म के स्थान पर पीड़ा, गुल्म घड़ी में छोटा घड़ी में बड़ा होना, रुक्ष, चरपरे और कडवे पदार्थ सहन न होना, पेट आदि में वेदना होना, मुंह और कंठ में शुष्कता, त्वचा का रंग बदल जाना, शीतसह ज्वर आना इत्यादि स्थिति में महायोगराज गुग्गुल घी के साथ देना चाहिये। इस रोग में रुक्ष, चरपरे और कडवे पदार्थ सहन नहीं होते, अतः इनका त्याग करना चाहिये।

मंदाग्नि और कब्ज से सेंद्रिय विष संचित होकर अनेक व्याधियाँ उत्पन्न होती है। पेट में विशेषतः बृहदंत्र (Large Intestine) में मल संगृहीत होता है। सेंद्रिय विष उत्पन्न होकर शरीर में शोषित होने लगता है। फिर विविध व्याधियाँ निर्माण होती है। इन सब में कारण कोष्ठस्थ (पेट में रहा) आम विष या घोर अन्न-विष है। इनका भी कारण अग्निमांद्य है। इस प्रकार के अग्निमांद्य पर यह महायोगराज गुग्गुल भांगरे के रस (6 ग्राम) के साथ देने से अति उत्तम कार्य करता है।

आमवात (Rheumatism) से ह्रदयग्रह होता है; तब ह्रदय जकड़ा-सा भासता है; ह्रदय को किसीने दृद्ध बांध दिया हो, ऐसा भान होता है। इस विकार पर यह रसायन उपयुक्त है।

पक्षाघात आदि पुराने विविध वात रोगों पर यह रसायन प्राचीन वृद्ध परंपरानुसार रास्नादि कषाय के साथ दिया जाता है। वात विकार में आमानुबंध होने पर रास्नादि कषाय देने पर निःसंदेह उत्तम कार्य होता है।

आमवातज और वातरक्तज शिरदर्द, दाँतो का दर्द, कान में दर्द, संधि में दर्द, हड्डी में दर्द, मूत्रमार्ग में दर्द तथा आमवातज ह्रदय रोग और उससे उत्पन्न श्वास, खांसी, सब पर यह लाभदायक है।

स्त्रियों के आर्तवशूल (मासिक धर्म के समय वेदना), अनार्तव (मासिक धर्म न आना), साथ में पांडुता (शरीर पीला पड़जाना), कथन मात्र का मासिक धर्म (मासिक धर्म बहुत कम आना) भयंकर त्रास के साथ आना, कमर, पीठ, पेट में भयंकर वेदना, सब पर महायोगराज गुग्गुल लाभदायक है। वात की अधिकता के कारण गर्भधारण में प्रतिबंध होता हो, तो इस के साथ वंग भस्म देना चाहिये।

आंत्रिक सन्निपात (Typhoid) में यदि सारे शरीर में जड़पना, हाथ-पैरों की संधियों में सूजन समान भास होना और जड़ता, जीभ मोटी और जड़, कंठ जड़, नेत्र पर परदा-सा होजाना, छाती भर जाना, नाड़ी का वेग मंद, थोड़ा-थोड़ा पेट में दर्द, पेट में जड़ता के समान लगना, उन्माद के समान थोड़ा प्रलाप (बेहोशी में बोलना), थोड़ी बेहोशी इत्यादि लक्षणो की उत्पत्ति हो जाय, तो महायोगराज गुग्गुल उत्तम कार्य करता है। (यह आमविष और वातप्रकोप को नष्ट कर मधुरा (Typhoid) को दूर करता है। इस रोग पर अनुपान रूप से भांगरे का रस देना चाहिये।)

यह रसायन विशेषतः वातदोष, रस और आम इन दूष्य, तथा यकृत (Liver), प्लीहा (Spleen), अंत्र, ह्रदय और संधि स्थानों पर कार्य करता है।

मस्तिष्क में सेंद्रिय विष पहुंच जाने पर भ्रम (चक्कर) रोग उत्पन्न होता है। चक्कर आने पर नेत्र के समक्ष अंधकार हो जाता है। रोगी खड़ा रहे तो गिर जाता है। कितनेक रोगियो को यह चक्कर 5-10 मिनट तक रहता है। उस रोग पर महायोगराज गुग्गुल प्रवाल पिष्टी और गिलोय सत्व मिलाकर शहद से दें और ऊपर धमासे का क्वाथ पिलाते रहने से लाभ हो जाता है।     

मात्रा: 1 से 2 गोली दिन में दो बार दें।

अनुपान: वातव्याधि में रास्नादि क्वाथ या जल। कफ विकार में आरग्वधादि क्वाथ। प्रमेह में दारूहल्दी का क्वाथ। मेदवृद्धि (Obesity) में शहद। कुष्ठ में निम्ब पंचांग का क्वाथ या महामंजिष्ठादि अर्क। पीड़ीतार्तव में अशोकारिष्ट या महामंजिष्ठादि अर्क। पूय (Puss) प्रधान रोगों पर नीम की अंतरछाल और निर्गुंडी मूल या पान का क्वाथ। वातरक्त में गिलोय का क्वाथ। शूल (दर्द) और शोथ (सूजन) पर पीपल का क्वाथ। नेत्र पीड़ा पर त्रिफला का क्वाथ। समस्त पेट के रोगों पर पुनर्नवादि क्वाथ।

घटक द्रव्य (Mahayograj Guggul Ingredients): सोंठ, पीपल, चव्य, पिपलामूल, चित्रकमूल, भुनी हिंग, अजमोद, सारसो, जीरा, कलौंजी, रेणुक बीज, इन्द्रजौ, पाठा, वायविडंग, गजपीपल, कुटकी, अतीस, भारंगी, बच, मूर्वा, त्रिफला, शुद्ध गुग्गुल, वंग भस्म, चाँदी भस्म, नाग भस्म, लोह भस्म, अभ्रक भस्म, मंडूर भस्म और रस सिंदूर

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