यह शतपत्र्यादि चूर्ण
विदग्धाजीर्ण (जिसके बारे में आगे नीचे वर्णन किया गया है), अम्लपित्त (Acidity), आमाशय (Stomach)
विकार से उतपन्न मुखपाक (मुंह में छाले) पर उपयोग होता है।
अधिक मिर्च और अधिक
नमक का सेवन, धूम्रपान,
तमाखू खाना, विष (Toxin),
संक्रामक तीव्र बुखार, शराब,
सड़े हुए अन्न या फल, अधकच्चे भोजन आदि करणों से आमाशय में विकृति
हो जाती है। तब आमाशय में पचन कराने के लिये जो आमाशयिक रस (Gastric Juice) बनता है उसमें लवणाम्ल (Hydrochloric Acid) विशेषांश में उत्पन्न होता है और आमाशय में
प्रदाह (Irritation) हो जाता है। फिर पित्तप्रकोपजनित विदग्धाजीर्ण
और अलपित्त आदि विकार उत्पन्न होते है। इन आमाशयिक पित्तप्रकोपज विकार में मुखपाक, दाह (जलन), भोजन कर लेने पर पेट में भारीपन, अपचन, प्यास अधिक लगना, पेशाब में पीलापन आ जाना आदि लक्षण उत्पन्न होते है। इन
विकारों पर यह शतपत्र्यादि चूर्ण अच्छा लाभ पहुंचाता है।
विदग्धाजीर्ण होने
पर खट्टी खट्टी डकार आना, छाती में जलन, तृषा (प्यास), पसीना अधिक आना, व्याकुलता, निद्रानाश,
चक्कर आना, मलमूत्र में पीलापन और पेट में भारीपन आदि
लक्षण प्रतीत होते है। इस अजीर्ण पर भूल करके अग्निकुमार रस या हिंग्वाष्टक, लवणभास्कर, वज्रक्षार आदि तिक्षण और पित्तवर्धक औषधि
नहीं देनी चाहिये। अन्यथा रोग बढ़ जाता है। उस पर यह शतपत्र्यादि चूर्ण विशेष कार्य
करता है।
विदग्धाजीर्ण के साथ
पेट में वायु उत्पन्न हुई हो, अफरा रहता हो तथा खट्टी डकारें बार-बार आती
रहती हों, तो इसके साथ सोडा बाई कार्ब मिलाकर शीतल जल
के साथ दिन में 3 बार लेते रहना चाहिये।
सूचना: अधिक नमक, अधिक मिर्च, अति गरम-गरम भोजन, अधिक चावल इनका त्याग करना चाहिये। तमाखू, शराब आदि का व्यसन हो तो उसे छोड़ देना चाहिये।
मात्रा: 1.5 ग्राम
से 3 ग्राम दिन में 2 बार जल के साथ।
घटक द्रव्य: गुलाब
के फूल, नागरमोथा,
जीरा, श्वेतचंदन का बुरादा, छोटी इलायची के दाने,
शीतलमिर्च, गिलोय सत्व, खस, वंशलोचन,
खसखस, इसबगोल की भूसी, गोखरू, दालचीनी,
तेजपात, नागकेशर,
लौंग, सारिवा (अनंतमूल), कमलगट्टा, नीलोफर,
कमल, तवखीर और मिश्री।
0 टिप्पणियाँ: