गुरुवार, 7 मार्च 2019

एकांगवीर रस के फायदे / Ekangvir Ras Benefits


एकांगवीर रस पक्षाघात, अर्दित (Facial Paralysis), धनुर्वात (Tetanus), अर्धांगवात (Hemiplegia), गृध्रसी (Sciatica), विश्वाची (Cervical Spondylitis), अपबाहुक (Frozen Shoulder) आदि सर्व प्रकार के वातरोगों को निःसंदेह दूर करता है। यह रसायन अत्यंत तिक्षण होने से वातप्रधान और वातकफ प्रधान विकृति में हितकर है। इसमें बृहण (शरीर को मोटा करने वाला), वातप्रशमन, जीवनीय, रसायन, विषध्न (जहर का नाश करनेवाला) और किटाणुनाशक गुण अवस्थित है। बार-बार आक्षेप (झटका) आता हो, ऐसे अर्धांगवात, पक्षाघात, गृध्रसी आदि रोगों को यह दूर करता है।

पक्षाघात का अर्थ साधारण ऐच्छिक (Facultative) मांसपेशियों (Muscles) की क्रिया अथवा क्षमता का लोप होना है। इसमें सर्वांगिक या स्थानिक चेतनाशकित (Consciousness Power) का लोप या ह्रास हो जाता है। संचालन और चेतना, इन दोनों का लोप होनेपर पूर्ण पक्षाघात और इन दोनों में से एक का लोप होने पर आंशिक या अपूर्ण पक्षाघात कहलाता है। इस पक्षाघात के अनेक विभागों में जो अर्धांगवात (Hemiplegia) है, वह त्रासदायक, दिर्ध कालस्थायी और संतापकारक है। विशेषतः उपदंश (Soft Chancre) आदि रोगों से जिनकी रक्तवाहिनियां और वातवाहिनियां दूषित हो जाती है उनको होता है। कभी-कभी पित्तप्रकोप और शौत आदि कारणो से भी हो जाता है। निर्बल ह्रदयवाले असहनशील मनुष्य को मन के विरुद्ध कुछ बर्ताव या वार्तालाप होने पर अकस्मात संताप होकर तत्काल सारे शरीर में विकृति हो जाती है। फिर दूषित रक्तवाहिनियों (Blood Vessels) में रक्त-संचय अधिक होता है। परिणाम में मस्तिष्क और वातवहा केंद्र में रक्तभार की वृद्धि होकर पक्षाघात हो जाता है, रक्तवाहिनियां फुटकर रक्तस्त्राव हो जाता है। यदि रुधिरसंग्रह ज्ञान-केंद्र के समीप में होता है तो रोगी का ज्ञान सर्वांश या न्यूनांश में नष्ट हो जाता है। इस विकार में शरीर की संचालन क्रिया पर अधिकार नहीं रहता। स्नायुओ के बल से शारीरिक संचालन आदि व्यापार होता रहता है। परंतु स्नायुओ पर अधिकार कम होजाने से व्यापार शिथिल हो जाता है और रोगी विगलित (Deformed)-सा हो जाता है। चलने-फिरने में प्रतिबंध होता है; इसी हेतु से आयुर्वेद ने इस रोग की गणना वातविकृति में की है।  

इस व्याधि में सामान्यतः अवस्था के भेद से दो प्रकार की चिकित्सा की जाती है। तीव्र अवस्था में रक्तवाहिनी (Blood Vessel) फुटकर स्त्राव हो जाता है। अतः इसका प्रसादन (Incitement=बहलाव) और फूटी हुई रक्तवाहिनी के घटक नये तैयार हो जाय; ऐसी योजना करना, यह दो कार्य करने चाहिये। जिर्णावस्था (पुरानी अवस्था) में रक्तवाहिनी फूटने या फूटने की आदत को नष्ट करनी चाहिये। आयुर्वेद में रक्तप्रसादक (Blood Propeller = खून का बहाव करनेवाली) औधाधियों में ताप्यादि लोह, सुवर्णमाक्षिक भस्म, शीलाजतु और गुग्गुल मुख्य है। इनके योग से रक्तवाहिनीयों की टूटी हुई संधि मिल जाती है। फिर कुछ काल तक अच्छा रहता है। परंतु फिर पहिले के समान कारण मिलने पर पक्षाघात का झटका आता है। इस झटके को रोकने, आक्षेपक विष को नष्ट करने और रक्तवाहिनी की फूटने की आदत को दूर करने के लिये कोई औषधि देनी चाहिये। आयुर्वेद की उपपत्ति अनुसार रक्त का वहन-कार्य वायु के प्रेरकत्व के कारण होता है। वायु के उद्रेक (Outbreak=प्रकोप) अधिक होने पर रक्त का उद्वहन कार्य भी अधिक वेग से होता है। इस उद्वहन कार्य को मर्यादित करने से रक्तवाहिनी फूटने की आदत दूर होती है। यह कार्य एकांगवीर रस से उत्तम होता है। अर्धांग वायु के समान पक्षाघात कभी-कभी एक हाथ, एक पैर, कमर के नीचे का भाग, मुख की एक ओर या अन्य किसी स्थान में होता है। इन सब पर भिन्न-भिन्न अनुपान के साथ इसका उपयोग होता है।

देह के किसी भी भाग में अभिघातज (Traumatic) या अन्य व्रण (घाव) होने के बाद व्रण चिकित्सा के अनुरोध से उचित चिकित्सा न होने पर उसमें धनुर्वात उत्पादक विशिष्ट किटाणुओं का प्रवेश हो जाता है; जो वातप्रकोप का निमित कारण बनता है। फिर स्नायु और रक्तवाहिनियों में प्रवेशित वायु सारे शरीर को धनुष के समान मोड देती है; उसे धनुर्वात कहते है। इसको ही अपतानक, आयाम आदि संज्ञा, लक्षणानुरोध से दि जाती है। इस रोग की प्रथम अवस्था में बड़े-बड़े आक्षेप आकर सारा शरीर मुड़ जाता है, दांत भींचते है। शुद्धि होने पर कंठ से निगलने की शक्ति नहीं रहती। इस अवस्था में कालकूट रस अच्छा उपयोगी है। परंतु तीव्र अवस्था शमन हो जाने पर सर्वांग में पंगुता (Paralysis=लूलापन) आई हो, और स्नायुओ की शक्ति क्षीण हो गई हो, तो एकांगवीर रस का उपयोग होता है।

गृध्रसी रोग (Sciatica) में नितंब से लेकर कमर, जंघा, टखने और पैर तक बार-बार शूल (दर्द) निकलना, सारा पैर तंग हो जाना, पैर पंगुसा हो जाना, क्वचित (Occasionally) अति वेदना होना, पैर जकड़ जाना और थोड़ा समय खड़े रहने पर उसमें स्पंदन होना आदि लक्षण होते है। इस रोग में वातप्रधान लक्षण अधिक होने पर एकांगवीर रस देना चाहिये।

हाथो की अंगुलिया से वेदना बढ़ते-बढ़ते हाथ बिलकुल भारी हो जाना, अंगुलियो से कुछ कार्य न होना, थोड़ा सा कुछ उठाया या पकड़ा कि अंगुलियो में झनझनाहट होकर वस्तु गिर जाना, वस्तु कब गिरी यह भी बोध न रहना आदि अवस्था होने पर भी एकांगवीर रस का अच्छा उपयोग होता है।

सूचना: वात रोग में जब पित्त की अधिकता हो तब इस औषधि का उपयोग नहीं करना चाहिये, अथवा संभालपूर्वक प्रवालपिष्टी या शिलाजीत आदि शीतल औषधि के साथ सेवन कराना चाहिये।

मात्रा: 1 से 2 गोली दिन में 3 बार रास्नादि अर्क के साथ दें।

घटक द्रव्य: रस सिंदूर, शुद्ध गंधक, कांतलोह भस्म, वंग भस्म, नाग भस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, लोह भस्म, सौंठ, मिर्च, और पीपल। भावना: त्रिफला, त्रिकटु, निर्गुंडी, अदरख, चित्रकमूल, सुहिंजने की छाल, कुठ, आंवला, कुचीला, आक का मूल और हारसिंगार। 

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