अभ्रक भस्म कषाय, मधुर, शीतल,
आयुवर्धक और धातुवर्धक होने से त्रिदोष (कफ, पित्त,
वायु), वर्ण,
प्रमेह, कुष्ठ (Skin
Diseases), प्लीहावृद्धि (Spleen Enlargement), उदरग्रंथि,
विष (Toxin) और कृमि आदि रोगों को दूर करती है। शरीर
को द्रद्ध बनाती है और वीर्य की वृद्धि करती है। इसके सेवन से युवावस्था की
प्राप्ति होती है और सो स्त्रियों से रमण करने की शक्ति उत्पन्न होती है। इसके
सेवन करने वालो के पुत्र दिर्धायु और इंद्र सद्रश पराक्रमी होते है तथा अकाल
मृत्यु की भीती भी दूर होती है।
इसके अतिरिक्त यह
क्षय (TB), पांडु (Anaemia),
ग्रहणी (Duodenum), शूल (दर्द), आम (Toxin), श्वास,
अरुचि, दुर्धर कास (खांसी), मंदाग्नि, उदर व्यथा (पेट में दर्द), कामला (Jaundice), ज्वर (बुखार), गुल्म (Abdominal Lump), अर्श (बवासीर) आदि रोगों को अनुपान-भेद
से दूर करती है। एवं वातवाहिनी नाड़ियों में क्षोभ (Irritation)
या निर्बलता, श्वास,
उरःक्षत (Chest Pain), क्षय (Phthisis)
की प्रथमावस्था (प्रथम अवस्था), मानसिक दुर्बलता, अपस्मार (Epilepsy), उन्माद (Insanity),
ह्रदय रोग (Heart Diseases), पुरानी खांसी, प्रसूति रोग, पांडु रोग (Anaemia), धातुक्षीणता, संग्रहणी (Sprue) और ज्वर आदि सब रोगों में भी अभ्रक भस्म अति उपयोगी
है।
सगर्भा स्त्री को
थोड़ी मात्रा में सितोपलादि चूर्ण के साथ अभ्रक भस्म 3-4 मास तक सेवन कराने से गर्भ
बलवान और निरोगी बनता है। क्षयरोगी, जो बिलकुल हाड़पिंजर हो गये हो; जिनके जीवन की आशा न रही हो; डाक्टर और हकीमो ने जिनको जवाब दे दिया हो; वैसे रोगी भी सहस्त्र पुटी (1000 पुटी) अभ्रक, सुवर्ण भस्म और च्यवनप्राशावलेह के योग से बिलकुल
तंदुरुस्त हो गये है।
अभ्रक भस्म
मस्तिष्क, वातवह-मंडल, वातवाहिनियां, फुफ्फुस,
ह्रदय और शरीर के सब भागों में मास-ग्रंथियों के लिये बल्य, जीवनीय और शामक (Sedative)
गुण दर्शाती है। कफस्थान (उरः = Chest) के लिये बल्य है। अभ्रक भस्म कफ और वात
दोष और रस, रक्त,
मांस, अस्थि इन दुशयों के विकारों में लाभदायक
है।
अभ्रक भस्म के
मुख्य कार्य – चित्परमाणुओ को तरल और तरलतर बनाने में सहायता करना, संचालक इंद्रियों को शक्ति देना; और इनके पोशक द्रव्यों की पूर्ति करना, वातवाहिनी नसों के क्षोभ (Irritation) को दूर करना तथा स्नायु शैथिल्य, इंद्रियों की दुर्बलता और वातवाहिनियों की क्षीणता
दूर कर शरीर-संचालक प्राणो को उत्तेजना देना; और सब इंद्रिय समूह को कार्यक्षम बनाना
आदि कार्य है।
अभ्रक भस्म उत्तम
रसायन, वृष्य (पौष्टिक), मेघाजनक और योगवाही (जो पदार्थ अपने गुणों को न छोडते
हुए दूसरे औषधों के गुणों में वृद्धि करता है) है। रसायन गुणयुक्त होने से रस आदि
धातुओ को सुद्रद्ध बनाने में बहुत सहायक है। यद्यपि अभ्रक का वृषयत्व प्रत्यक्ष
नहीं है, तथापि अप्रत्यक्ष रूप से सब धातुओ की
समता होने पर वृष्यत्व उत्पन्न होता है। यह वृष्यत्व विशेष काल स्थायी और श्रेष्ठ
प्रकार का है।
अभ्रक भस्म योगवाही
है, अर्थात (1) अन्य औषधियों के गुणों को
बढ़ाती है। (2) अन्य औषधियों के गुणों में बाधा न पहुंचाते हुए सम्मिलित औषधि के
दोष को दूर करती है और (3) दोष दूर करते हुए गुण में वृद्धि करती है, इन तीन गुणों के हेतु से अभ्रक का उपयोग अत्यंत
विरुद्ध प्रकार के भिन्न-भिन्न योगों में किया जाता है; और परिणाम में अभ्रक-मिश्रित सब प्रयोग वीर्यवान बनते
है।
अभ्रक भस्म का
मुख्य कार्य तरल और तरलतर परमाणु बनाने का है। अतः संचालक इंद्रियों के भीतर जो
तरल परमाणुओ की न्यूनता हुई हो, उसे यह दूर करती है। किसी भी रोग में
शारीरिक घटक और परमाणु धीरे-धीरे क्षीण होते जाते हो; इंद्रियों की शक्ति का शोषण होता रहता हो, और इनकी कार्यक्षमता का ह्रास होता हो, ऐसे शोषरोग में अभ्रक का उत्तम उपयोग हुआ है। अनेक
बार घटक निर्बल होकर क्षीण हो जाते है, और अनेक बार सड़कर मृतवत हो जाते है।
इनमें से जहां घटक क्षीण हुए हो, वहाँ पर यह उपयोगी है, सड़े हुए पर इसका कार्य उतना अधिक नहीं हो सकता।
अनेक व्यक्तियों
को ऐसा संदेह हो जाता है कि, मुझे क्षय (TB) हो गया है। फिर बार-बार उदासीन-सा रहते है, किसी कार्य करने में उत्साहित नहीं होते, आनंद के प्रसंगों में भी वह चिंतातुर और व्याकुल रहते
है। ऐसे मनुष्य को थोड़े ही दिनों तक अभ्रक भस्म का सेवन कराने पर उनके मन और
इंद्रियाँ सबल बन जाती है, तथा वे स्वस्थ हो जाते है।
मस्तिष्क की
निर्बलता जब अधिक हो जाती है; कार्य करने का उत्साह नष्ट हो जाता है, बार-बार चक्कर आता है,
कपाल पर प्रस्वेद (पसीना) आता रहता है, मन अस्थिर रहता है, रोगी निस्तेज, चिंताग्रस्त, क्रोधी स्वभाव वाला और शुष्क हो जाता है, तब अभ्रक भस्म का सेवन करने से थोड़े ही दिनों में
प्रकृति स्वस्थ हो जाती है। मुखमंडल पर पांडुता (पीलापन) प्रतीत होती हो और
धमनियां कूदती हों, तो लोह भस्म देनी चाहिये; तथा मानसिक निरुत्साह हो, तो अभ्रक भस्म देनी चाहिये।
अपस्मार (Epilepsy), उन्माद (Insanity), स्मृतिनाश,
बुद्धिविभ्रम, इन सब में मानसिक यंत्र निर्बल हो जाता
है। रस आदि धातुओं में आवश्यक पोषण पदार्थ इन इंद्रिय-समूहो से ग्रहण नहीं हो
सकता। इस हेतु से ऐसी परिस्थिति उपस्थित होती है। इन विकारों में मानस-यंत्र को
पोषण पूर्ण रूप से मिल जाय, तो ये सब रोग शमन हो जाये। परंतु वर्तमान
में चिकित्सा इस तत्व के अनुसार नहीं करते। केवल रोगनाशक औषधि से वातवाहिनियों (Air Ducts) का क्षोभ (Irritation) निवृत करते है। इस हेतु से चिकित्सा फलप्रद नहीं
होती। उपरोक्त तत्व को लक्ष्य में रख कर चिकित्सा करें, तो अच्छा लाभ पहुंचता है; ऐसा अनुभव हुआ है।
जब किसी इंद्रिय
के घटकों को योग्य पोषण नही मिलता; तब वह क्षीण होती है। सामान्यतः घटकों के
लिये आवश्यक द्रव्य रक्त में शोषण कर उसे अपना बना लेने का शारीरिक परमाणुओ का
प्रयत्न सतत चालू रहता है; उसका अभाव होने पर इंद्रिय क्षीण होती
जाती है। इस वैगुण्य का निवारण अत्यंत वीर्यवान तथा रस-रक्त आदि धातुओ को ओज और
तेज समर्पक औषध द्वारा हो सकता है, ऐसी औषधि अभ्रक भस्म है।
अभ्रक भस्म के
सेवन से थोड़े ही दिनों में शारीरिक परमाणुओ को ओज की प्राप्ति होने से व सुद्रद्ध
बन जाते है। ऐसे समय पर स्मृति-केंद्र की क्षीणता नष्ट कर उसे पूर्व स्थिति की
प्राप्ति कराना, यही सच्ची चिकित्सा कहलाती है।
अभ्रक भस्म से मन
का तरल अंश धीरे-धीरे सबल होता जाता है। फिर संज्ञावाहिनियों और आज्ञावाहिनियों की
क्षीणता कम होने लगती है। तत्पश्चात अपस्मार आदि की क्षोभ प्रवृति नष्ट हो जाती
है।
अपस्मार और
उन्माद की जीर्णावस्था (पुरानी अवस्था) में जब रोगी निस्तेज, डरपोक, निर्बल और चिंतातुर हो गया हो, स्मरण-शक्ति नष्ट हो गई हो, तब अभ्रक भस्म एक आध मास तक सेवन कराने से रोगी की
इंद्रियाँ बलवान बन जाती है और रोग शमन हो जाता है।
अर्धांग वात की
जीर्णावस्था में रक्तवाहिनियों की विकृति और मानसिक क्षोभ होते है, तब रोगनाशक औषधि के साथ अभ्रक भस्म का उपयोग करने से
सत्वर लाभ होता है।
छोटे बालको की
बुद्धि का विकास, आयु के परिमाण में जब न हुआ हो, या मूढ़ता बढ़ती जाती हो,
शरीर कृश, निर्बल और निस्तेज रहता हो, शुद्ध बोल भी न सकता हो या अच्छी रीति से चल न सकता
हो; तथा मुंह से लार गिरती रहती हो, तब अभ्रक भस्म से लाभ हो जाता है।
मस्तिष्क के किसी
एक भाग का उचित विकास न होने से बाल्यावस्था में वैगुण्य उपस्थित होता है। इस हेतु
से बालक मस्तिष्क को सीधा नहीं रख सकता। उसका हाथ-पैर पर अधिकार न होने से वह चल
नहीं सकता। एवं अच्छी तरह बोल भी नहीं सकता। ऐसी स्थिति में अकेली अभ्रक भस्म या
अन्य सहायक औषधि के मिश्रण सहित सेवन कराने से बालक स्वस्थ हो जाता है।
अभ्रक भस्म में
रसायन गुण होने से धातु-परिपोषण क्रम को सुव्यवस्थित करती है। इसी कारण से पांडु (Anaemia), रक्तपित्त (Haemoptysis), अम्लपित्त (Acidity), क्षतक्षय आदि तीव्र और जीर्ण (पुरानी) व्याधियों में
इसके सेवन से लाभ होता है।
रक्त में से
रक्ताणुओ की न्यूनता और मानसिक चिंता के कारण नवयुवा स्त्री को हारिद्रक रोग हुआ
हो, बुखार रहता हो, शरीर पीला, शुष्क,
निस्तेज हो तथा कभी-कभी वमन (उल्टी) आदि लक्षण होते हो, तो अभ्रक भस्म और लोह भस्म मिलाकर देने से रोग थोड़े
ही दिनों में चला जाता है।
पांडु (Anaemia) रोग में मानसिक चिंता कारण हो, अथवा अर्श (बवासीर) में बार-बार खून जाने से पांडुता
(पीलापन) आई हो, तो इसका उपयोग लाभदायक है। ऐसे ही अंत्र
(Intestine) में निर्बलता आने पर गुद-त्रिवली पर बोझा
आकर शोथ (सूजन) आ गया हो। फिर शौच में रक्तस्त्राव होकर निर्बलता आई हो, तो अभ्रक भस्म का उपयोग करने से अंत्र बलवान होकर रोग
का शमन होता है। किन्तु यकृत के समीप रुधिराभिसरण के दबाव में वृद्धि होने से इस
स्थिति की प्राप्ति हुई हो, तो अभ्रक भस्म के सेवन से यथोचित लाभ
नहीं हो सकेगा। ऐसी परिस्थिति में विरेचन या रक्त के दबाव की शामक औषधि की योजना
करनी चाहिये।
अनेक बार रकतार्श
(खूनी बवासीर) उत्पन्न होकर पुराना हो जाता है। फिर बार-बार रक्त गिरता रहता है।
इस रक्त गिरने के अभ्यास को नष्ट करने के लीये अभ्रक भस्म-घटित औषधि का उपयोग किया
जाता है। अभ्रक से अर्श के मस्से तो नष्ट नहीं होते;
परंतु रक्त गिरना कम हो जाता है; और शरीर में निर्बलता नहीं आती।
अर्श के मस्से का
ऑपरेशन कराने के बाद अनेक समय भगंदर या नाड़ी-व्रण हो जाता है। ऐसे समय पर व्रण को
भरने के लिये अभ्रक भस्म का सेवन सहायक होता है। ऐसे ही जीर्ण (पुराने) व्रण रोगों
में शारीरिक शक्ति को स्थिर रखने वाली और व्रण को सत्वर भरने में सहायता पहुंचाने
वाली औषधियों में अभ्रक भस्म उत्तम औषधि है।
यदि फुफ्फुसों की
अशक्ति से कफविकार हुआ हो; एवं आघात,
मानसिक चिंता, बुखार ज्यादा समय तक रहने या अन्य कारण
से ह्रदय निर्बल हो गया हो तो फुफ्फुस और ह्रदय को शक्ति देनेवाली औषधियो में
अभ्रक भस्म सबसे उत्तम है।
आयुर्वेद में कहे
हुए निर्जन्तुक, अनुलोम (सीधा)
और प्रतिलोम (उल्टा) क्षय में अभ्रक भस्म को शृंग भस्म और गिलोय सत्व के साथ देते
रहने से रोग शमन हो जाता है। परंतु आधुनिक युग में फैले हुए किटाणु जन्य क्षय की
सब अवस्थाओं में अभ्रक भस्म का उपयोग होता ही है;
ऐसे नहीं कह सकेंगे। प्रथम अवस्था में बुखार बिलकुल कम रहता हो; उस समय तो अभ्रक भस्म का उपयोग निःसंदेह होता है। इस
प्राथमिक अवस्था में फुफ्फुस और अन्य शारीरिक घटकों को सबल बना देने से क्षय के
विष (Toxin) की प्रगति का अवरोध हो जाता है।
जीर्ण (पुराना)
कफप्रकोप, जीर्ण कास (खांसी), कफात्मक और कफ-वातात्मक जीर्ण श्वास, जिसमें श्वास-वाहिनियाँ विकृत हो गई हों, और उनमें व्रण हो गये हों; अति खांसने पर सफेद चिकना कफ निकलता हों; थोड़े श्रम से प्रस्वेद (पसीना) आता हों, रोगी अत्यंत अशक्त हो गया हों, तो ऐसे समय पर कफध्न अनुपान के साथ या शहद-पीपल के
साथ अभ्रक भस्म देने से रोग निर्मूल हों जाता है।
ह्रदय की
निर्बलता से एवं वयोवृद्ध और निर्बल मनुष्यो को वर्षा ऋतु में या शीतकाल में बादल
होने पर श्वास रोग हो जाता है, कितनेको को बैठने से श्वास शमन हो जाता
है, और थोड़े परिश्रम से श्वास भर जाता है, उन सब के लिये अभ्रक भस्म अति लाभदायक है।
पांडु-रोगिणी
स्त्रियो को श्वास-वाहिनियों के संकोच होने से अतिशय घबराहट और श्वासरोग हो जाता
है, पंखा से हवा करने पर अच्छा लगता है, अन्यथा दिन-रात बेचैनी रहती है, शीतल या उष्ण औषधि सहन नहीं होती, ऐसे समय पर श्वासवाहिनियों को विकसित करने वाली और
पित्त को शमन करने वाली औषधियो में अभ्रक भस्म उत्तम है। ऐसे प्रसंग पर कार्यकर
औषधियाँ अभ्रक भस्म, रुद्रवंती,
शिलाजीत, चंद्रप्रभा और आरोग्यवर्धीनी है। उनमें
मानसिक क्षोभ (Irritation) दूर करने के लिये अभ्रक है, विष (Toxin) मूत्र द्वारा बाहर निकालने और विकार का
शोषण करने के लिये रुद्रवंती, शिलाजीत और चंद्रप्रभा है, एवं मलशुद्धि की आवश्यकता हो, तो आरोग्यवर्धीनी का उपयोग किया जाता है। इन सब
प्रयोगो में जीर्ण दोष या स्वभाव को नष्ट करने के लिये बार-बार शहद के साथ अभ्रक
भस्म का सेवन कराना चाहिये।
ह्रदय की अशक्ति
के कारण से बार-बार थोड़े परिश्रम से श्वास भर जाता हो, नाड़ी क्षीण, मंद और बार-बार अनियमित रहती हो, तो अभ्रक भस्म के सेवन से प्रकृति स्वस्थ हो जाती है।
यदि रक्तवाहिनियों की दीवार पतली हो गई हो, फिर उन उन स्थानो में रक्त संगृहीत हो
गया हो, तो इस विकार में एवं इससे उत्पन्न
रक्तपित्त में भी यह हितकर है। प्रवालपिष्टी और गिलोयसत्व मिलाना और अधिक लाभदायक
है। यदि इस रोग की उत्पत्ति उपदंश (Syphilis) से हुई हो,
तो अनुपान अनंतमूल का अवलेह अथवा रक्तशोधक अरिष्ट या रक्तशोधक क्वाथ दे।
अभ्रक भस्म
निमोनिया रोग में दालचीनी के साथ देने से रोग के करणभूत किटाणुओ को नष्ट करती है।
लोह भस्म के साथ देने से रक्ताणुओ को बढ़ाती है। इस कारण पांडु रोग में अभ्रक भस्म, लोह भस्म, त्रिफला और शहद मिलाकर दिया जाता है।
अभ्रक भस्म
ह्रदयोत्तेजक है। फिर भी कुचीला अथवा कर्पूर के समान ह्रदय-उत्तेजक नहीं है। अभ्रक
भस्म तो ह्रदय के स्नायुमय घटको को शक्ति देकर ह्रदय को उत्तेजना देती है। इस कारण
ह्रदय-विकार से होने वाले शोथ (सूजन) रोग में इसके सेवन से लाभ होता है।
उदर (पेट) की
अशक्ति और पित्तोत्पादक पिंड की अशक्ति के कारण से पित्त की उत्पत्ति योग्य न होती
हो, फिर इसी से अपचन और मंदाग्नि रोग हुआ हो, तो पित्तोत्पादक पिंड और उदर के अवयवों को शक्ति देकर
रोग को दूर करने का काम यह करती है।
अरुचि अर्थात जिस
में भोजन करने में प्रीति न हो, स्वादिष्ट वस्तु भी बेस्वादु लगती हो, यह विकार उदरविकृति और अशक्ति होने के बाद या
अरुचिरूप उपद्रव क्षय (TB), पांडु (Anaemia),
कामला (Jaundice), ज्वर (बुखार) आदि रोगो के पश्चात हुआ हो, तो अभ्रक भस्म का उपयोग लाभदायक है।
पुराना अम्लपित्त
(Acidity) रोग में यदि सूतशेखर रस आदि औषधि से लाभ
न होता हो, सर्वदा उबाक (उल्टी करने की इच्छा) बनी
रहती हो, उदर में पीड़ा रहती हो, और वमन (उल्टी) के साथ रक्त निकलता हो, परंतु उदर में कर्कस्फोट न हो, तो अभ्रक भस्म का उपयोग करना हितकर है। एवं पेट की
आकृति बड़ी हो गई हो, और भोजन के पश्चात वमन हो जाती हो, तो अभ्रक भस्म का उपयोग वंग भस्म के साथ करना लाभदायक
है।
उदर में रसवाहिनी
और रसोत्पादक पिंड की विकृति अथवा रसवहन कार्य में प्रतिबंध होने से उदर-ग्रंथियां
बढ़ गई हो; साथ-साथ मंद-मंद शूल (दर्द) घंटों तक
बार-बार चलता रहता हो, रोगी अशक्त हो जाता हो, मंद ज्वर, मलावरोध (कब्ज) और अपचन भी साथ-साथ रहते
हो, तो अभ्रक भस्म का उपयोग हितकारक माना गया
है।
छोटी आंत और बड़ी
आंत की निर्बलता के कारण मलावरोध रहता हो; फिर रोग जीर्ण (पुराना) होने पर मल में
दुर्गंध, रक्तविकार (खून की खराबी), फोड़े-फुंसियाँ, छोटे-छोटे दूषित रक्त के मंडल आदि भीषण
स्वरूप की प्राप्ति हुई हो, तो इस भस्म का सेवन रक्तशोधक अनुपान के
साथ हितकर है।
मूत्राशय (Urinary Bladder) की अशक्ति के कारण बूंद-बूंद मूत्र होता
रहता हो, और बार-बार पेशाब करना पड़ता हो, अथवा मूत्र में रक्त भी जाता हो, एवं मूत्रकृच्छ रोग (पेशाब में जलन) जीर्ण हुआ हो, तो इस भस्म के सेवन से मूत्राशय बलवान बन जाता है।
मधुमेह (Diabetes) में अभ्रक भस्म, शिलाजीत और जामुन के बीज के चूर्ण के साथ देते रहने
से शक्ति क्षीण नहीं होती, और रोग का बल धीरे-धीरे न्यून होकर
अनेकांश में रोग दब जाता है।
वातवाहिनियों की
निर्बलता के कारण या मानसिक आघात पहुँचने से नपुंसकता आई हो, वह अभ्रक भस्म के सेवन से दूर होती है। अभ्रक भस्म
जननेन्द्रिय (Penis) के स्नायु,
जननेन्द्रिय के घटक, जननेन्द्रिय को उत्तेजना देने वाली वातवह
नाड़ीयो के केंद्र और वातवाहिनियाँ, इन सबको शक्ति देकर नपुंसकता को दूर करती
है।
योगवाही होने से
अभ्रक भस्म का कार्य संयोजित द्रव्य अनुसार त्वरित और मंद वेगवाला हो जाता है।
लक्ष्मीविलास रस (सन्निपात नाशक और ह्रदय पौष्टिक रसायन) में कर्पूरादि औषधि का
संयोग होने से यह तीव्र और शीघ्र गुण करती है। आरोग्यवर्धीनी में ताम्र आदि औषधि
संयुक्त होने से गुण धीरे-धीरे दर्शाती है। लक्ष्मीविलास में उत्तेजक कार्य और
आरोग्यवर्धीनी में निर्बल बने हुए घटकों को दूर कर नये सबल घटको को तैयार करने का
कार्य अभ्रक भस्म के संयोग से होता है।
अभ्रक भस्म का
उपयोग कफ कास (कफ की खांसी) पर उत्तम होता है। किन्तु शुष्क कास (सुखी खांसी) में
उपयोग नहीं होती। फुफ्फुस प्रणालिकाएं और वायुकोष निर्बल बनने पर उनमें कफ संगृहीत
हो जाता है। उसके साथ कंठ में शुष्कता हो, तो शुष्क कास चलती रहती है और सरलता से
कफ नहीं निकलता। रोगी अति बेचैन हो जाता है, प्रस्वेद आ जाता है, कंठ सुख जाता है फिर थोड़ा कफ गिरता है। ऐसी अवस्था
में अभ्रक भस्म, शृंग भस्म,
छोटी इलायची के दाने और प्रवालपिष्टी 1-1 रत्ती (1 रत्ती = 121.5 mg), गिलोय सत्व और वंशलोचन 2-2 रत्ती मिला, उसकी 4 पूड़ी बनाकर दिन में 4 बार आम के मुरब्बे के
साथ सेवन कराने पर पहले ही दिन से आराम होने लगता है।
सूचना: अभ्रक
भस्म किसी को भी हानी नहीं पहुंचाती, फिर भी किसी-किसी को इसकी मात्रा ज्यादा
लेने से नाड़ी का वेग बढ़ जाता है और रक्ताभिसरण क्रिया ज्यादा वेग से होने लगती है।
ऐसे समय पर अभ्रक भस्म थोड़े दिनों के लिये बंद कर देनी चाहिये। पश्चात थोड़े परिमाण
में सेवन करानी चाहिये और मुक्ता या प्रवाल-पिष्टी साथ में मिला लेनी चाहिये।
अभ्रक भस्म को 10
से 1000 गजपुट तक देने का शास्त्रविधान है। जीतने अधिक पुट देने में आवे उतने
परिमाण में गुण की वृद्धि होती है। अभ्रक के सेवन करने वाले अकाल मृत्यु से बच जाते
है। अनुपान-भेद से यह सब रोगों पर उपयोगी है। इसलिये इसे मनुष्य लोक का अमृत माना
है।
मात्रा: 1 से 2
रत्ती दिन में 2 समय। (1 रत्ती = 121.5 mg)
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