त्रिवंग भस्म
शक्तिदायक होने से नपुंसकत्व, मांस पेशीयां और रक्तवाहिनियां गत वात पर
उत्तम लाभदायक है। यह भस्म प्रमेहो में इक्षुमेह,
हरिद्रामेह और लालामेह पर अधिक गुण पहुंचाती है। इसके सेवन से बार-बार
मुत्रोत्सर्ग की शंका होना, मूत्र की उत्पत्ति ज्यादा होना, ये विकार दूर होते है। मुत्रोत्सर्ग क्रिया पर इसका
मुख्य उपयोग होता है।
इस हेतु से मधुमेह (Diabetes) में भी इसका उपयोग किया जाता है, परंतु अकेली नागभस्म के सेवन से मधुमेह में प्रायः
अधिक लाभ होता है। मधुमेह संधिवात के बाद उत्पन्न हुआ हो, या मधुमेही रोगी को बहुत समय पहले संधिवात हुआ हो, अथवा शिर दर्द, पेट दर्द,
या अन्य अजीर्ण रोग पहले से रहा हो और पश्चयात मधुमेह की उत्पत्ति हुई हो, तो नाग भस्म की अपेक्षा त्रिवंग भस्म अधिक हितकारक है।
मधुमेह की अत्यंत अवस्था प्राप्त हो गई हो, और उसमें प्रमेहपिटिका (अदीठ फोड़ा आदि) हो
गई हो, तो त्रिवंग और नाग की अपेक्षा अकेले शिलाजीत
का ही उत्तम उपयोग होता है।
त्रिवंग भस्म
उत्तम वाजीकर है। नपुंसकता को दूर करने में अच्छी उपयोगी है। अति वीर्यपात या अति
स्त्रीसेवन से मांसपेशीयां शिथिल होकर नपुंसकता हुई हो, बार-बार स्वप्नावस्था होने से नपुंसकता आई हो, या कामेच्छा तृप्त करने को बढ़ी हुई लालसा से नपुंसकता
आई हो, आदि कारण होने पर त्रिवंग भस्म का उपयोग
उत्कृष्ट है।
यह भस्म वीर्य
वर्धक होने से जननेन्द्रिय की मांसपेशियों को शक्ति प्रदान करती है। इस कारण
नपुंसकत्व न होने पर भी स्वप्नावस्था या अन्य कारणो से स्वतः शुक्रस्त्राव होता हो, तो उस विकार पर त्रिवंग भस्म का उत्तम उपयोग होता है।
नपुंसकत्व का एक प्रकार ऐसा है कि, पहले पुरुषार्थ प्रतीत होता है, परंतु स्त्री द्रष्टिगोचर होने पर तुरंत नष्ट हो जाता
है। भीति, घबराहट,
लज्जा और चिंता अधिक होना आदि लक्षण होते है। इस विकार पर यह लाभदायक है।
स्त्रियों के
वंध्यत्व में त्रिवंग भस्म का उपयोग होता है। गर्भाशय या योनि मार्ग में शारीरिक
प्रतिबंध आने से वंध्यत्व आया हो, तो उस प्रतिबंध को बाह्य-क्रिया या
शस्त्र से दूर करना ही अच्छा है। ऐसा प्रतिबंध न हो,
बीजाधारो (Ovaries) की अशक्ति,
या संकोच अथवा फलवाहिनियों (Oviducts) की अशक्ति या संकोच हो, किवा इन अवयवों का पूरा विकास न होने से वंध्यत्व आया
हो, तो इसके सेवन से लाभ हो जाता है। जब
बीजकोषो का विकास नही होता, तब शरीर सुंदर नही दिखता, नितंब भाग पूर्ण भरा हुआ नही भासता, बिलकुल शुष्क बैठा हुआ होता है। ऐसे ही छाती भी योग्य
परिमाण में उठी हुई नही दिखती, संकुचित होती है। मासिक धर्म प्रारम्भ हो
जाने पर भी चेहरे पर योग्य स्त्रीभाव नही आता,
इन लक्षणो से अंतर (Internal) अवयव पूर्ण विकसित नही है, ऐसा जानकर त्रिवंग भस्म का सेवन कराना चाहिये।
यह त्रिवंग भस्म
स्त्रियों की अंतरेंद्रिय को उत्तम शक्तिदायक है। ज्यादा संतति या थोड़े-थोड़े समय
में संतानोत्पत्ति होने और बार-बार गर्भपात होने का स्वभाव होने से स्त्रियों की
अंतरेंद्रिय में निर्बलता आ जाती है। इस कारण बाह्य अवयव और शरीर भी कमजोर हो जाता
है। ऐसे समय पर त्रिवंग भस्म का उत्तम उपयोग होता है।
बाल अवस्था में
असमय पर मासिक धर्म का प्रारंभ होने या किशोरावस्था में अधिक पुरुष-समागम होने से
स्त्रियों की अंतरेंद्रिय पीड़ित और निर्बल हो जाती है। इस कारण से गर्भ नही रहता
और कदाच रह जाय, तो भी गर्भ की वृद्धि योग्य परिमाण में न
होकर गर्भस्त्राव या गर्भपात हो जाता है। प्रसव पूर्ण समय पर नही होता। यदि पूर्ण
समय पर प्रसव हुआ, तो भी संतान बिलकुल कृश (दुबला) और
टेढ़ी-बोकी जन्मती है। ऐसी स्त्रियों की अंतरेंद्रिय को शक्ति देने और कार्यक्षम
बनाने के लिये त्रिवंग भस्म का सेवन लाभदायक है।
कामेच्छा मर्यादा
बाहर होने से या अधिक समय पुरुष-समागम होने से स्त्रियों के योनिमुख में सफेद, चिपचिपा या पतला स्त्राव (श्वेतप्रदर) होता है, यह स्त्राव कुछ समय इतना अधिक होता है, कि इस स्त्राव के कारण स्त्री लाचार हो जाती है।
इनमें से अनेकों के मन में उपभोग-चित्र आने पर तत्काल अति स्त्राव हो जाता है, एवं आनुषंगिक कृत्य देखने, सुनने या स्मरण आ जाने पर भी स्त्राव हो जाता है। इस
रोग में त्रिवंग भस्म का अच्छा उपयोग होता है।
छोटी लड़कियो की
खराब आदत के कारण या ऋतुस्नाता होने के पहले पुरुष-समागम होने से अंतरेंद्रिय
निर्बल हो जाती है, जिससे थोड़े-थोड़े श्रम से थक जाती है।
योनि मुख में से जल जैसा पतला स्त्राव सारे दिन होता रहता है। यह स्त्राव त्रिवंग
भस्म के सेवन से बंद हो जाता है और शरीर में बल आ जाता है। (अनुपान रूप से गिलोय
सत्व, शीतल मिर्च और गोखरू का चूर्ण देवें। ऊपर
से दूध पिलावे। दिन में दो बार)
मांसपेशियों और
रक्तवाहिनियों की विकृति से सर्वांग में (सारे शरीर में) विशेषतः मस्तिष्क में शूल
(दर्द) निकलता रहता है। भीतर से रक्तवाहिनियों का आकुंचन होता है और शूल भी निकलता
है। क्वचित ऊपर से रक्तवाहिनी मोटी बनकर अशक्त हो जाती है। एवं जीवनीय-शक्ति का इन
रक्तवाहिनियों के ऊपर का अधिकार नष्ट होने से हाथ-पैर उठाना या अन्य क्रिया करना
अशक्यप्राय हो जाता है, हाथ-पैर की शक्ति नष्ट होने से हाथ-पैरो
में कंप होता है और शरीर कुब्ज बन जाता है। इस विकार पर त्रिवंग भस्म का अच्छा
उपयोग होता है।
त्रिवंग भस्म वात
और वातपित्त दोष, रक्त,
मांस, अस्थि और शुक्र, ये दूष्य तथा मगज,
वातवाहिनियां, वातवहमंडल,
शुक्रस्थान, गर्भाशय,
अंडकोष और स्त्री बीजकोष, इन स्थानो में विशेष लाभ पहुंचाती है।
मात्रा: 125 mg से 250 mg शहद,
शर्बत बनफसा, शर्बत नीलोफर, आंवले का मुरब्बा,
दूध, घी या रोगानुसार अनुपान के साथ देवें।
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