महावातविध्वंसन
रस वातविकार (Musculoskeletal Disorder), शूल (दर्द), कफप्रकोप से होने वाले रोग, ग्रहणी (Duodenum), सन्निपात,
मूढ़ता, अपस्मार (Epilepsy),
मंदाग्नि, शरीर शीतल होना, पित्तोदर, प्लीहावृद्धि (Spleen Enlargement), कुष्ठ (Skin
Diseases), अर्श (बवासीर), स्त्रियों के गर्भाशय की विकृति से होने वाले रोग, सबको नष्ट करता है।
महावातविध्वंसन
रस वातवृद्धि और वातवाहिनियों के क्षोभ (Irritability) को शमन करने वाली उत्तम शामक (Sedative) औषधि है। एवं इसमें शूलध्न (दर्द का नाश करने वाला)
गुण भी विशेषांक में है। यह रसायन वातवाहिनियों के क्षोभ में उपयोगी होने से
अपतानक, अपतंत्रक,
आक्षेपक और तीव्र वेगवाले आशुकरी (लंबे समय का) पक्षाघात में वातवृद्धि के लक्षण
अधिक होने पर इसके सेवन से वातप्रकोप का शमन हो कर वात साम्य (Balance) प्रस्थापित होता है। किसी भी निमित्त कारण से उत्पन्न
किसी भी रोग में वातवाहिनियों (Air Ducts) में क्षोभ (Irritation) होने पर तीव्रावस्था में महावातविध्वंसन रस उपयोग में
आता है। केवल वातविकृति होने पर यह दिया जाता है;
परंतु वातपित्तात्मक (वायु और पित्त दोनों की) दुष्टि हो, तो सूतशेखर रस देना चाहिये। यह इन दोनों
(महावातविध्वंसन रस और सूतशेखर रस) में अंतर है।
वातवाहिनियों के
कार्य में किसी कारण से प्रतिबंध होने पर वातक्षोभ (Irritation due to air) होता है। फिर किसी भी अवयव में शूल
(दर्द) निकलता है, उस पर यह महावातविध्वंसन रस दीया जाता
है। यद्यपि आमवात (Rheumatism) और संधिवात की जीर्णवस्था (पुरानी
अवस्था) में तो योगराज गुग्गुल और गोक्षुरादि गुग्गुल हितकर है, तथापि जब बिच्छू के काटने के समान अत्यंत तीव्र वेदना, शोथ (सूजन) वाले स्थान में भयंकर वेदना, शूल, बेचैनी,
प्रलाप (Delirium=बड़ बड़ करना)
आदि लक्षण हों; तब आमशोषक (आम=Toxin का शोषण करने वाला) और वेदनाशामक, ये दोनों कार्य इस महावातविध्वंसन रस के सेवन से होते
है। रोगी को थोड़े ही समय में बहुत लाभ हो जाता है। आमवात की तीव्रावस्था में यह
अप्रतिम औषध है।
मानसिक रोगों में
भी वातक्षोभ (Irritation
due to Air) होकर वेदना होती
है। अपस्मार, उन्माद (Insanity),
मनोव्याघात आदि विकारों में होने वाली वेदना स्वतः संवेदनाजन्य है। इन रोगों पर
विशेषतः द्राक्षारिष्ट या अभ्रक-प्रधान औषधि दी जाती है। किन्तु जो शूल (दर्द)
शारीरिक दोषों से विशेषतः वातदुष्टि से उत्पन्न होता है; उस पर इस रसायन का कार्य होता है। इससे वातप्रकोप दूर
होकर वातसाम्य प्रस्थापित होता है। इसी हेतु से किसी भी प्रकार के शूल में इस
महावातविध्वंसन रस का उत्तम उपयोग होता है।
केवल वातक्षोभ से
शिरदर्द होता हो, वह अति त्रासदायक होता है। उस समय व्याकुलता
बनी रहती है; शरीर में कील गाड़ने समान वेदना होती है; रोगी गला इधर-उधर फिराता रहता है; बिल्कुल चैन नहीं पड़ता। निरर्थक विचार आते रहना, विशेषतः मस्तिष्क की दाहिनी ओर में अतिशय व्यथा होना
आदि लक्षण होते है। इस व्यथा के मारे रोगी शिर पीटता है, और रो देता है। इस तरह कुछ समय तक दर्द होकर स्वमेव
कम हो जाता है, अर्थात वेदना सहन हो सके उतनी होती है। फिर
पहिले के समान तीव्र वेदना होने लगती है। इस तरह बार-बार आक्षेप सद्रश तीव्रवेग
उत्पन्न होता रहता है। ऐसे शिरदर्द पर महावातविध्वंसन रस लाभदायक है।
शीर्षशूल के समान
कुक्षिशूल (Abdominal
Pain), उरशूल (Abdominal Pain), पार्श्वशूल (Back Pain) – इनमें भी अकस्मात तीव्र वेदना होने लगती है। फिर
कुछ समय के लिये वेदना कम होकर रोगी को अच्छा लगता है। पुनः शीर्षशूल की तरह तीव्र
असह्य वेदना हो जाती है, छुरा मारने के समान दर्द होता है, जिस से रोगी रोने लगता है। फिर वेदना शमन हो जाती है।
इस प्रकार के रोगों पर महावातविध्वंसन रस कफध्न (कफनाशक)
अनुपान के साथ देना चाहिये।
ह्रदय के शूल
(दर्द) में उक्त प्रकार के आक्षेप सद्रश वेदना होने पर भी यही रसायन देना चाहिये।
परंतु जब तीव्र वेदना ह्रदय में से निकल कर बाये हाथ की ओर फैलती हो, और साथ में घबराहट,
प्रस्वेद (पसीना) आदि लक्षण प्रतीत होते हो, तब यह नहीं दिया जाता। (अल्प मात्रा में
सूतराज रस अथवा मुक्ता या प्रवाल प्रधान शामक औषधि देनी चाहिये)। यदि वातक्षोभ से
छाती या पीठ में शूल (दर्द) निकलता है, तो महावातविध्वंसन रस का उपयोग करना
चाहिये। इस तरह फुफ्फुसप्रदाह (Pneumonia) के प्रारंभ में छाती में शूल चलता हो और
वेदना वातक्षोभ से होती हो, वेदना के साथ बुखार और सूजन मर्यादा में
हो, उस पर भी यह रस देना चाहिये।
श्लैष्मिक और
श्वसनक सन्निपात की प्रथम अवस्था में यदि कफवृद्धि सामान्य और वातप्रकोप अधिक हो, तो महावातविध्वंसन रस लाभदायक है। परंतु जब गले में
कफ की घरघर आवाज होती है, तब इस रस से अधिक लाभ नहीं होता।
आंत्रिक सन्निपात
(मधुरा=Typhoid), ग्रंथिक सन्निपात (प्लेग) और संधि के
सन्निपात में बेहोशी, कंठ चलाते रहना, प्रलाप (बड़-बड़ करना),
चित्तविभ्रम, नेत्र भरे हुए भासना, जिह्वा शुष्क, जिह्वा पर काटे, ऐसी वातक्षोभयुक्त अवस्था में, महावातविध्वंसन रस के समान निश्चयपूर्वक लाभ करने
वाली दूसरी औषधि नहीं है।
प्रसूता
स्त्रियों के ज्वर (बुखार) न होने पर भी मक्कलशूल होता है, जिसमें भयंकर शिरदर्द,
बस्ति, कोष्ठ (Stomach)
और गर्भाशय में अति तीव्र शूल या आक्षेप के समान वेदना, वेदना गर्भाशय में से निकलकर बस्ति और उदर (पेट) में
फैल जाना आदि लक्षण होते है। इस पर यह महावातविध्वंसन रस अति उत्तम लाभदायक है।
महावातविध्वंसन
रस का कार्य वातवाहिनियां, वातवहमंडल और वातस्थानों पर क्षोभनाशक
होता है। यह रसायन वातदोष तथा मांस और अस्थि (हड्डी), इन दुष्यों पर लाभ पहुंचाता है। इस में कज्जली रस
(पारद और गंधक) किटाणु नाशक और योगवाही (अपना गुण न छोडते हुए दूसरी औषधियों के
गुणों में वृद्धि करने वाला पदार्थ) है। नाग, वंग और लोह भस्म शक्तिवर्धक और बल्यत्व
के हेतु से वातशामक है। ताम्र आक्षेप नाशक और वातशामक है। अभ्रक भस्म वातवाहिनियों
पर बल्य और शामक असर पहुंचाती है। सोहागा किटाणुनाशक और शामक है; तथा बच्छनाग अवसादक,
क्षोभनाशक (Cures Irritability) और शूलध्न (दर्द का नाश करने वाला) है।
मात्रा: 1 से 2
गोली दिन में 3 बार तीव्र वात रोग पर अदरख के रस,
भंगरे के रस या शहद के साथ और आमवात (Rheumatism) पर अरंडी के तैल, घी या गुनगुने जल के साथ दें।
घटक द्रव्य: शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, नाग भस्म, वंग भस्म,
लोह भस्म, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, पीपल,
सोहागे का फूला, कालीमिर्च और शुद्ध बच्छनाग। भावना:
त्रिकटु का क्वाथ, त्रिफला का क्वाथ, चित्रकमूल का क्वाथ,
भांगरे का स्वरस, कूठ का क्वाथ, निर्गुडी के पत्तों का स्वरस, आक का दूध, आंवले का स्वरस, अदरख का रस और नींबू का रस।
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