कामधेनु रस
धातुक्षय (शरीर की साथ धातुएं होती है; रस=Plasma,
रक्त=Blood, मांस=Muscles,
मेद=fat, अस्थि=Bone,
मज्जा=Nerves, Marrow और शुक्र= Reproductive, Semen, इन सब धातुओ का कम होने को धातुक्षय कहते है), पांडुरोग (Anaemia), पुराना विषमज्वर (Malaria), प्रमेह, रक्तपित्त (Haemoptysis), अम्लपित्त (Acidity), सन्निपात,
घोर वातव्याधि (शरीर के किसी अंग में वेदना या पूरे शरीर में वेदना), कृमि, अर्श (बवासीर), ग्रहणी (Sprue) आदि रोगों को नष्ट करता है।
यह कामधेनु रस, रसायन, पचनक्रिया-वर्धक तथा धातु-परिपोषण क्रम
को सहायक है। रस से लेकर शुक्र तक सर्व धातु क्षीण होते जाना, इस अवस्था को धातु क्षय कहते है। इसमें अन्न रस से
बनने वाली रस धातु योग्य नहीं बनती। परिणाम में रक्त आदि; धातुएँ भी क्षीण होती जाती है। इनमें से रस और रक्त
धातु में क्रिया योग्य न होने पर रसक्षय और रक्तक्षय होता है। इन दोनों पर कामधेनु
रस अति उपयोगी है। इसके सेवन से रसक्षय में रस धातु बनने की क्रिया योग्य होने
लगती है। पेट में अफरा, बड़े-बड़े पानी के समान पतले दस्त, पेट में जड़ता, रात्रि-दिवस उबाक (उल्टी करने की इच्छा), मुंह और जीभ पर चिपचिपापन आदि लक्षण हों, तो इसकी योजना करनी चाहिये।
रक्तक्षय में रक्त
में से रक्त कण कम हो जाते है, फिर रक्त धातु कम होती है। रक्तकण कम होने
पर निस्तेजता बढ़ती है, तथा रक्त-धातु कम होने पर बुखार, दाह (जलन), चक्कर,
घबराहट, नाड़ियों में वेगपूर्वक स्पंदन, बार-बार श्वास भर जाना,
जिह्वा शुष्क, फिक्की और स्वाद रहित, चाहे उतना जल पीने पर भी तृप्ति न होना, यकृत (Liver) और प्लीहा (Spleen) की थोड़ी वृद्धि, त्वचा और सर्वांग (पूरे शरीर ) में विवर्णता
(शरीर का रंग योग्य न होना), विशेषतः कालापन आदि लक्षण होते है, उस पर इसकी योजना की जाती है। इस व्याधि के कारण चिंता, शोक, भय, मनोव्याघात, अति चिंतन, अभ्यास या मानसिक श्रम अधिक होना आदि हो तो
यह उत्तम लाभ पहुंचाता है। इस विकार में बुखार और अपचन ये लक्षण मुख्य होने चाहिये।
पुराना विषम ज्वर
(malaria) में विविध औषध की योजना की जाती है। संतत
(एक सा बना रहने वाला बुखार), सतत (महीनों तक रहने वाला बुखार) दोनों प्रकार
के बुखारों की तीव्रावस्था में कामधेनु रस का उपयोग नहीं होता। परंतु इनकी जीर्ण (पुरानी)
अवस्था में बुखार का जहर रस और रक्त धातु में प्रवेश कर उनको क्षीण बनाता रहता है; उस अवस्था में कामधेनु रस प्रायोजित होता है। संतत ज्वर
के परिणाम में तीसरे या चौथे रोज से इसके विष (जहर) का रस-धातु पर आक्रमण होता है। सर्वांग (पूरे शरीर में) जड़ता, विशेषतः पेट में जड़ता,
उबाक, मुख में जल भर जाना, अंग गलना, वमन (उल्टी), वमन में मीठासा जल गिरना, अरुचि, मलिन,
दिन मुखमुद्रा आदि लक्षण होने पर इसकी योजना करनी चाहिये।
जो सतत ज्वर अनेक
मास तक आता रहता है, उसका असर रक्तधातु पर होता है। फिर दाह (जलन), निस्तेजता, बेचैनी,
मन में विविध विचार आ कर मन शून्यसा बन जाना, कड़वी और खट्टी उल्टी, शरीर पर पिटकाएं हो जाना, दाह, तृषा (प्यास), कुछ-कुछ प्रलाप अर्थात बड़-बड़ करते रहना, निस्तेजता, दीन वाणी,
चिंताग्रस्त-सा बन जाना आदि लक्षण होने पर कामधेनु रस का
उपयोग करना चाहिये।
अधोग रक्तपित्त या
रक्तार्श (खूनी बवासीर), दोनों विकार में रक्तधातु क्षीण (कम) हो कर
दाह, तृषा,
भ्रम, घबराहट आदि लक्षण होने पर कामधेनु रस की योजना
करनी चाहिये।
आमाशय (Stomach) की अशक्ति से आमाशय पित्त (Bile) की उत्पत्ति में आवश्यक रक्त की पूर्ति न होने से पित्तस्त्राव
योग्य और सवगुणयुक्त नहीं होता। इस कारण पित्त के कितने ही गुण बढ़कर अम्लपित्त (Acidity) व्याधि हो जाती है। अन्न का विदाह (अन्न पचने की जगह जल
जाता है), अन्न का पचन न होना, आमाशय में अन्न दिर्धकाल तक पड़ा रहना, फिर उस हेतु से पेट में भारीपन, मुंह में बार-बार जल भर जाना, मुंह का बेस्वादुपन,
घबराहट, बेचैनी,
मन की अस्थिरता, खाया हुआ अन्न कुछ समय में जलमय, दुर्गंधित और क्लेदयुक्त बन जाना और वान्ति (उल्टी) हो
कर बाहर निकल जाना आदि लक्षण उपस्थित होते है। ऐसे अम्लपित्त पर इस कामधेनु रक की योजना
करनी चाहिये। भोजन में पथ्य हल्का अन्न, फलरस आदि देना चाहिये।
घटक द्रव्य: शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, शुद्ध बच्छनाग, सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, लोह भस्म, अभ्रक भस्म, इन 8 औषधियों को समभाग
मिलाकर त्रिफला के क्वाथ में एक दिन खरल करके 1-1 रत्ती (1 रत्ती=121.5 mg) की गोलियां बना लें।
मात्रा: 1 से 2 रत्ती (1 रत्ती=121.5 mg) शहद-पीपल के साथ। इस औषधि में बच्छनाग है इसलिये इसकी प्रमाण से अधिक मात्रा न लें।
Ref: रसयोगसार
पूर्णचंद्र रस केफायदे
Ref: रसयोगसार
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