यह चंद्रकला रस
सब प्रकार के रक्तपित्त (Haemoptysis), रक्तप्रदर (Metrorrhagia), मूत्रकृच्छ (पेशाब में जलन), अश्मरी (पथरी), दुस्तर प्रमेह, अम्लपित्त (Acidity), अंतर्दाह (शरीर के अंदरूनी हिस्से में
जलन), बाह्यदाह,
भ्रम, मूर्छा,
खून की उल्टी और बुखार आदि रोगों को दूर करता है। यह रसायन शीतल होने पर भी
जठराग्नि को मंद नहीं करता। एवं वात-पित्तप्रकोप तथा ऊर्ध्वगामी (नाक और मुंह
से खून निकलना) और अधोगामी (मूत्रेन्द्रिय और गुदा से खून निकलना) रक्तपित्त रोग
में ग्रीष्म जैसी उष्ण ऋतु में भी शांतिदायक है।
यह चंद्रकला रस
ऐसे विविध द्रव्यों के संयोग से तैयार हुआ है कि रक्तवाहिनी (Blood Vessel) के लिये प्रसादक (Propeller) और स्तंभक
(Anastaltic), दोनों कार्य
करता है। मुख्य कार्य समग्र रुधिराभिसरण और रुधिरवाहिनी पर शामक (Sedative) और प्रसादक है। जब-जब रक्त का दबाव बढ़ने से अंतर्दाह, बहिर्दाह और रुधिरवाहिनी मोटी होकर चक्कर, मूर्छा, भ्रम आदि उत्पन्न होते है, या रक्त में पित्त मिश्रित होकर रक्त (खून) विदग्ध
(जलन करने वाला) होता है, तथा इसी हेतु से अंतर्दाह और
रुधिरवाहिनियों की दीवार की विकृति होकर विविध व्याधियों की उत्पत्ति होती है, उस पर इसका अच्छा उपयोग होता है।
तीव्र सेंद्रिय
विष (Toxin) के योग से रक्त विकृति हो कर भ्रम, प्रलाप
(Delirium), बुखार आदि लक्षण
उपस्थित होने पर चंद्रकला रस का उपयोग किया जाता है। इस तरह पित्त की तीव्रता, विशिष्ट सेंद्रिय विष या विशिष्ट किटाणु के हेतु से
समग्र मूत्रमार्ग विकृत हो कर मूत्रकृच्छ (पेशाब में जलन) या मूत्राघात (पेशाब की
उत्पत्ति कम होना) होने पर इस चंद्रकला रस का सेवन कराया जाता है। इनके अतिरिक्त
मस्तिष्क, मध्यम कोष्ठ, मध्यम रोम मार्ग,
मूत्रमार्ग और विशेषतः रक्त, इनमें पित्त के तिक्षणत्व और उष्णत्व गुण
की वृद्धि होने पर भिन्न-भिन्न व्याधियों पर चंद्रकला रस उत्तम औषधि है।
चक्कर, दाह (जलन), नेत्र में व्यथा, नेत्र लाल-लाल हो जाना,
मस्तिष्क की शिराएँ खींचना, शिराएँ मोटी, भारी और रक्तपूर्ण होना, असंबद्ध प्रलाप और बुखार आदि की उत्पत्ति होना, बृहदमस्तिष्क, लघुमस्तिष्क, वातवाहिनियों के केंद्रस्थान तथा इनके समीप के सब
स्थानों की रक्तवाहिनियों के केंद्रस्थान, तथा इनके समीप के सब स्थानों की
रक्तवाहिनियाँ मोटी होकर इनका दबाव उन अवयवो पर पडने से प्रलाप आदि लक्षण उपस्थित
होते है। ऐसी परिस्थिति में रक्त के दबाव (Blood Pressure) को कम करने का महत्व का कार्य इस
चंद्रकला रस से सरलतापूर्वक हो जाता है।
सूर्य के ताप में
फिरना, अग्नि के समीप अति कार्य करना, शराब या अन्य उष्ण द्रव्य का अति सेवन, अति व्यायाम आदि के अति योग होने पर भी रक्त का दबाव
(Blood Pressure) बढ़कर ऊपर लिखे अनुसार लक्षण होते है। उस
व्याधि पर चंद्रकला रस का उपयोग करना चाहिये।
बुखार की ऊष्मा
अधिक बढ़ने पर शिरदर्द हो कर नासिका से रक्तस्त्राव होने लगता है। कितनेक रोगियों
को दाह (जलन) अधिक बढ़ने पर मुंह में से रक्त निकलने लगता है। ऐसे लक्षण होने पर
चंद्रकला रस मिश्री मिले दूध के साथ देकर ऊपर उशिरासव, सारिवालेह, हल्दी का अर्क और जल आदि का मिश्रण देना
चाहिये।
कंठ में वेदना, दाह (जलन), छाती में दर्द, जलन और सूजन आने समान भासना तथा सर्वांग (पूरे शरीर)
में दाह, रक्त गिरना, बुखार, तृषा (प्यास) आदि लक्षण होने पर चंद्रकला
रस दाड़ीमावलेह के साथ उत्तम उपयोग होता है।
क्षयरोग (TB) के प्रारंभ या मध्य में रक्तवमन (खून की उल्टी) होकर
रोगवृद्धि होती है, तो रक्तस्त्राव सत्वर बंद होने और बल के
संरक्षणार्थ चंद्रकला रस और चाँदी के वर्क को दाड़ीमावलेह या अनार शर्बत के साथ
देना चाहिये।
ऊर्ध्व रक्तपित्त
(नाक या मुख में से रक्त स्त्राव होना) में चंद्रकला रस का उत्तम उपयोग होता है।
रक्तपित्त अर्थात सतत होने वाले रक्तस्त्राव में पित्त के तीक्ष्णत्व आदि धर्म बढ़
जाते है। इस कारण रक्तवाहिनियों की श्लैष्मिक कला पतली और विकृत होकर फूटती है; फिर उसमें से रक्तस्त्राव होने लगता है। यह स्त्राव
कुछ काल तक बंद रहता है और फिर होने लग जाता है।
कभी-कभी
रक्तपित्त उपद्रव रूप से और कितनिक बार स्वतंत्र रोग रूप से होता है। यदि
रक्तपित्त की उत्पत्ति में विष (Toxin) कारण न हो,
केवल शारीरिक दोष विकृति से ही रोग की उत्पत्ति हुई हो, तो चंद्रकला रस अति लाभ पहुंचाता है।
रक्तपित्त के साथ
पेट में वेदना आदि लक्षण हो और वेदना हो कर वमन (उल्टी) द्वारा रक्त निकलता हो, मुंह में शुष्कता,
पेट में जलन-सी भासना, सर्वांग (पूरे शरीर) में दाह (जलन), तृषा बनी रहना, बार-बार पेट में पीड़ा होकर उल्टी होना
आदि अति पित्तप्रकोप जनित लक्षण प्रतीत होते हो,
तो उस पर चंद्रकला रस का अवश्य उपयोग करना चाहिये।
चंद्रकला रस दाहनाशक
(जलन का नाश करने वाला) है। इस लिये अतिशय दाह होकर उन्माद समान वेग उत्पन्न होता हो, मूत्रमार्ग, नेत्र,
हाथ-पैर इन सब में दाह (जलन), कभी-कभी नाक, मूत्रमार्ग या अन्य मार्ग से रक्तस्त्राव होना, मूत्र में चिकना श्लेष्म जाना, मूत्र लाल और परिमाण में कम होना आदि लक्षण होने पर ब्राह्मी, अनंतमूल, पित्तपापड़ा आदि के साथ चंद्रकला रस का उपयोग
किया जाता है।
पित्तजन्य प्रमेह
में विशेषतः कालमेह, नीलमेह,
हरिद्रमेह और मंजिष्ठमेह में चंद्रकला रस उत्तम औषधि है। इन विकारों में मूत्र का रंग
क्रमशः काला, नीला,
अति पीला और मंजिष्ठ के क्वाथ के सद्रश भासता है। सर्वांग में अतिशय दाह होता है। अति
तृषा, मूत्र के परिमाण में कमी, परंतु पेशाब अधिक बार होना, चक्कर आना, शुष्कता,
अति दाह, पंखे से निरंतर वायु करते ही रहना आदि लक्षण
उपस्थित होते है। पंखे को बंद करने पर रोगी चिल्लाता है। इस प्रकार के दाह में पित्त
का तीक्ष्णत्व धर्म बढ़कर रक्ताश्रित और त्वगाश्रित होता है। इस पर चंद्रकला रस का उपयोग
अच्छा होता है।
पित्त के तीक्ष्णत्व
और उष्णत्व धर्म की वृद्धि होने पर उनको चंद्रकला रस नष्ट करता है; तथा पित्त का साम्य (Balance)
प्रस्थापित करता है। यह रस दाहनाशक (जलन का नाश करने वाला), मूत्रल, शामक (Sedative),
कोष्ठस्थ पित्त का योग्य परिमाण में स्त्राव कराने वाला, यकृत (Liver) को शक्ति देकर पित्तसाम्य लाने वाला, वातवाहिनियों के केंद्रस्थान, वातवाहिनियाँ आदि स्थानो के क्षोभ (Irritability) को शमन करने वाला और सौम्य है। इस तरह शीतल
गुण होने पर भी अग्निमांद्य नहीं करता, समस्त शरीर में उत्पन्न क्षोभ, दाह और वेदना को शमन करता है। यह कफप्रधान और कफवातप्रधान
विकारों का भी निवारण करने वाली उत्तम वीर्यवान औषधि है।
मात्रा: 125 mg से 250 mg दिन में दो बार जीरा और मिश्री के साथ लेवें, ऊपर दूध पिवे या गुलकंद के साथ लेवें।
घटक द्रव्य: शुद्ध
पारा, ताम्र भस्म, अभ्रक भस्म, शुद्ध गंधक, कुटकी, गिलोय सत्व, पित्तपापड़ा, खस, चमेली के पुष्प, सफेद चंदन, सारिवा। स्वरस: नागरमोथा, दाड़िम के दाने, दूर्वामूल,
केतकी की कली, सहदेवी,
धृतकुमारी, पित्तपापड़ा, मरुवा और शतावर। भावना: द्राक्षा, दाड़िम, केला,
ताड़ का फल, बेलगिरी,
जामुन और आम।
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