गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

महारास्नादि क्वाथ के फायदे / Benefits of Maha Rasnadi Kwath

यह महारास्नादि क्वाथ वातरोग की तीव्रावस्था में विशेष उपकारक है। सब प्रकार के वातरोग – सर्वांगवात (पूरे शरीर में वेदना), कंपवात, अर्धांगवात, गृघ्रसी (Sciatica), कमर, जंघा आदि स्थान में फिरता वात, स्लिपद (हाथीपगा), आमवात (Rheumatism), पक्षाघात, अपतानक, मूत्राशय और वीर्याशय में रही हुई वायु, अफरा, स्त्रियों के योनिदोष, वंध्यादोष आदि का नाश करता है। विविध स्थानो के वात रोगों में मुख्य विकृति वातनाड़ियों (Air Ducts) की होती है। इस हेतुसे सब प्रकार के वात रोगों पर यह क्वाथ उपयोगी है।

वात रोग की उत्पत्ति होने में आमप्रकोप (मंदाग्नि की वजह से अन्न का पूरा पाचन नहीं होता और अपक्व अन्न रस से आम उत्पन्न होता है और इसके बढ़ने पर आमप्रकोप होता है) और रक्त में विषवृद्धि भी कारण होते है। वात शमन के साथ उन कारणो को भी दूर करना चाहिये। इस हेतुसे रास्ना के साथ सहायक रूप से दीपन-पाचन, आमशोषक, मूत्रल और कफध्न (कफ का नाश करने वाली) औषधियों का मिश्रण किया है। जिससे यह आशुकारी (लंबे समय के) वातप्रकोप में तत्काल अपना प्रभाव दर्शाता है।

गृध्रसी नाड़ी (जिसे सायटिका नाड़ी भी कहते है), जो नितंब प्रदेश में रही है और नीचे पैरों की ओर गति करती है, उसमे प्रदाह (Inflammation) होने पर कटिप्रदेश, नितंब, पैरों की पिछली जंघा और टखने आदि में शूल (दर्द) निकलता है; पैरों में खिचाव होता है और पैर जकड़ जाते है। ऐसी अवस्था में एरंड तैल के साथ यह क्वाथ देने से उदरशुद्धि (पेट शुद्धि) होकर वात शमन में सहायता मिल जाती है। इसके सेवन करने पर भी शूल शमन न हुआ हो तो शूल शमन और निद्रा लाने के लिये अफीम प्रधान औषधि – निद्रोदय रस, महावातराज रस या समीरगजकेशरी या अन्य का सेवन कराया जाता है। अति तीव्र दर्द न हो तो महावातविध्वंसन रस प्रदाह शमन के लिये रास्नादि क्वाथ के साथ दिया जाता है। शरीर अधिक मेदमय (मोटा) हो या आमप्रकोप हो तो महायोगराज गुग्गुल के साथ यह क्वाथ देना चाहिये।

वातनाड़ियाँ, जो ऐच्छिक मांसपेशियों का संचालन करती है और चेतना प्रदान करती है; उनको शीत (ठंड) लग जाने, मानसविकृति, उपदंश आदि रोगों में विष प्रकोप और मधुमेह (Diabetes) में रक्त के भीतर विष की अति वृद्धि होकर रक्त दबाव अत्यधिक हो जाने पर वे नाड़ियाँ दूषित हो जाती है। फिर आक्षेप आ कर पक्षाघात हो जाता है। संचालन नाड़ियों का वध हो जाने पर मांसपेशियां क्रिया करने में असमर्थ हो जाती है। वातनाड़ी विकृति के साथ-साथ छोटी मोटी रक्तवाहिनियाँ टूट जाती है। फिर मस्तिष्कगत वातकेंद्र में रक्तदबाव बढ़ जाता है। यह रक्त संग्रह ज्ञान केंद्र के पास हो तो चेतना नाड़ियों से बोध होने वाले ज्ञान – शीत, उष्ण, सूची आदि के स्पर्श का ज्ञान नहीं होता।

यह विकार तुरंत दूर नहीं होता, तो दिर्धकाल स्थायी बन जाता है। प्रारम्भिक अवस्था में चन्द्रप्रभा, शिलाजीत अथवा योगराज गुग्गुल के साथ महारास्नादि क्वाथ का (एरंड तैल मिश्रित) सेवन कराया जाय, तो लाभ हो जाने की आशा रख सकते है। इसके सेवन से वातनाड़ियो की विकृति दूर होती है, मस्तिष्क का दबाव कम हो जाता है, रक्त प्रसादन में सहायता मिल जाती है। फिर रक्तवाहिनियों का संधान सरलता से हो जाता है।

यदि अंत्र (Intestine) चौडे और शिथिल हो गये हो, तो अंत्र में अफरा आता रहता है, अपानवायु (Fart) सरलता से नही सरती, मलावरोध (कब्ज), और व्याकुलता रहते है, ऐसी अवस्था में महारास्नादि क्वाथ के साथ हरड़ और हिंगवाष्टक चूर्ण या शिवाक्षार पाचन चूर्ण देते रहने से कुछ दिनों में लाभ पहुंचता है।

मूत्राशय की वातनाड़िया शिथिल हो जाने पर उसकी मांसपेशिया योग्य कार्य नही कर सकती। मूत्राशय फुला हुआ रहता है। मूत्र त्याग में कष्ट पहुंचता है। उस पर चंद्रप्रभा वटी या शिलाजीत के साथ इस क्वाथ का सेवन 1-2 मास तक कराने पर रोग निवृत होकर मूत्राशय सबल बन जाता है।

वीर्य उत्पन्न करने वाली ग्रंथिया या वीर्याशय की वातनाड़िया शिथिल बनने पर उस स्थान में वायु भरी रहती है। फिर पतले, उष्ण वीर्य का स्त्राव बार-बार होता रहता है; मन में कामोत्तेजना का विचार आने, स्त्री स्पर्श होने या स्त्री दर्शन होने मात्र से तत्काल वीर्य निकल जाता है। वीर्य को धारण करने की शक्ति का ह्रास हो जाता है। इस रोग पर वीर्य शोधन वटी या शिलाजीत के साथ इस महारास्नादि क्वाथ का सेवन 2-4 मास तक ब्रह्मचर्य के पालनसह कराने पर रोग निवृत हो जाता है।

संक्षेप में किसी भी स्थान या प्रकार के वात रोग पर यह महारास्नादि क्वाथ मुख्य औषधि के रूप में अथवा अनुपान रूप से उपयोग होता है। इसके सेवन में किसी भी प्रकार की हानि का भाय नहीं है। यह बालक, युवा, वृद्ध, प्रसूता और सगर्भा आदि सबको निर्भय रूप से दिया जाता है।

मात्रा: 10 से 20 ml समान जल मिलाकर सुबह-शाम।

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