बुधवार, 2 जनवरी 2019

जटामांसी के फायदे | मानसिक रोगों में उत्तम औषध | Benefits of Jatamansi


जटामांसी शीतल, सुगंधी, दीपन, बल्य, रक्ताभिसरण (Blood Circulation) को उत्तेजना देने वाली, वातानुलोमक (वात=वायु को बराबर करने वाली), मूत्रल, मृदुविरेचक (कब्ज को दूर करने वाली), आर्तवजनन (मासिकधर्म को लाने वाली), वातनाडीशामक, मेध्य (दिमाग को ताकत देने वाली), केश्य (बालों को हितकर), ज्वरहर (बुखार का नाश करने वाली), कांतिवर्धक, वेदनास्थापन और ह्रदय को ताकत देने वाली है।

जटामांसी के सेवन से क्षुधा (भूख) बढ़ती है, पाचन ठीक होता है और कब्ज नहीं रहता। इसके सेवन से पेट में उष्णता मालूम होती है, डकार आती है, संपूर्ण शरीर में उष्णता मालूम होकर पसीना आता है, मूत्र की मात्र बढ़ती है तथा नाडी सबल होती है। मस्तिष्क एवं नाडी तंतुओ पर इसकी पोषक तथा उत्तेजक क्रिया होती है। अल्प मात्रा में बहुत दिन देते रहने से मन की चंचलता शांत होती है, काम करने में उत्साह बढ़ता है तथा नाडी का बल बढ़ता है। अपस्मार (Epilepsy), अपतंत्रक तथा अन्य आक्षेपयुक्त व्याधियों में इसका बहुत प्रयोग किया जाता है।

अगर किसी का मन बहुत चंचल हो, बार-बार मन में विचार आते रहते हो, मन में ऐसे बुरे विचार आते हो के रोगी उससे थक चुका हो, ऐसे रोगी को शंखपुष्पी, ब्राह्मी और जटामांसी तीनों के चूर्ण को समान मात्रा में मिलाकर सुबह-शाम एक-एक छोटा चम्मच देते रहने से एक महीने में उसका मन बिलकुल शांत हो जायेगा और विचार आना बंद हो जायेगे। यह अनुभूत है।

मस्तिष्क तथा नाडी तंतुओं के विकार में जटामांसी बहुत लाभप्रद होती है। शराबियों को व्रण (घाव) होने पर या उनपर कोई शस्त्रक्रिया करने पर उनको एक तरह का भ्रमणयुक्त कंप उत्पन्न होता है। ऐसी अवस्था में जटामांसी के प्रयोग से पर्याप्त लाभ होता है।

अत्यंत मानसिक परिश्रम से थकावट उत्पन्न होने पर इसका सेवन नाड़ियो के लिए बलकारक तथा श्रमहर होता है। शिरःशूल (शिर दर्द) के लिये यह उत्कृष्ट औषधि है। मानसिक आघात में यह बहुत जलदी काम करती है। हिंग, कस्तुरी आदि की अपेक्षा जटामांसी इन विकारों में अधिक उपयोगी तथा शीघ्र कार्यकर मानी जाती है। अपस्मार, अपतंत्रक, ह्रदय की धड़कन, कंपवात तथा अन्य आक्षेपयुक्त व्याधियों में इसका फांट (शाम को इसके चूर्ण को पानी में डालकर सुबह वह पानी छानकर पीना) बहुत प्रभावशाली माना जाता है।

रक्ताभिसरण (Blood Circulation) ठीक न होता हो तो यह बहुत ही उपयुक्त औषधि है। इससे मस्तिष्कगत रक्तप्रवाह संतुलित होता है जिससे सिर का भारीपन, चक्कर, मूर्छा, आंखों के सामने अधियारी, सुनाई कम पड़ना आदि में लाभ होता है। ह्रदय की धड़कन, कमजोरी तथा ह्रदय के कारण पेट में वायु संचित होने पर जटामांसी को सुगंधित द्रव्य तथा नवसादर के साथ खिलाते है। इससे रक्तवाहिनियों का संकोच होकर रक्तपित्त, विसर्प तथा रक्तस्त्राव में लाभ होता है।

औपसर्गिक शोथयुक्त ज्वरों (बुखार के साथ शरीर में सूजन होना) में त्रिदोष की वृद्धि होने से रोगी प्रलाप करता है तथा सन्निपात के लक्षण दिखाई देने लगते है। इन अवस्थाओं में जटामांसी के प्रयोग से शीघ्र लक्षणिक लाभ होता है। इससे रक्ताभिसरण ठीक होता है, नाड़ी तंतुओं को बल मिलता है, कफ ढीला होता है, जलन कम होती है तथा सूजन में भी लाभ होता है। विषम ज्वर (Malaria) में भी इससे पर्याप्त लाभ होता है।

विस्फोटक एवं व्रणों में जटामांसी के लेप से जलन तथा पीड़ा कम होती है। मुखपाक (मुह के छाले) में भी इससे जलन तथा पीड़ा का शमन होता है। यह बालों के लिये भी लाभदायक है। मुखदुर्गंध में इसे चबाते है। स्वेदाधिक्य (पसीना अधिक आना) में इसके चूर्ण का उपयोग मर्दन (शरीर पर मालिश करना या रगड़ना) के लिये करते है। बेहोशी में जटामांसी को पीस कर आंखों पर लेप करते है।

पीडितार्तव (मासिकधर्म के वक्त पीड़ा होना) में इसके सेवन से पीड़ा कम होती है तथा आर्तव स्त्राव ठीक होने लगता है। स्त्रियों में रजोनिवृति के काल (Menopause) में कुच्छ विशिष्ट मानसिक तथा शारीरिक अवसाद के लक्षण उत्पन्न होते है। ऐसी अवस्थाओं में जटामांसी बहुत उपयोगी होती है।

मात्रा: 5 से 10 रत्ती (1 रत्ती = 121.5 mg)

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