बुधवार, 19 दिसंबर 2018

लक्ष्मीविलास रस (सुवर्णयुक्त) के फायदे | Benefits of Laxmi Vilas Ras


लक्ष्मीविलास रस त्रिदोषज क्षय (T.B.), पाण्डु (Anaemia), कामला (Jaundice), सम्पूर्ण वातरोग (Body Ache), सूजन, प्रतिश्याय ( जुकाम, नजला ), शुक्र-क्षय (Low Sperm Count), अर्शशूल (बवासीर का दर्द), कुष्ठ (Skin Diseases), मंदाग्नि, सन्निपात (Putrid Fever), श्वास, कास (खांसी) आदि सब रोगोको नष्ट करता है। शरीर को तारुण्यरूपा  लक्ष्मी की प्राप्ति कराता है तथा शक्तिवर्धक, क्षयरोगनिवारक (Cures T.B.) और क्षय के किटाणुओ (Tuberculosis) को नष्ट करने वाला है। इसका उपयोग आयुर्वेदीय चिकित्सकगण शक्तिवर्धक  गुणकी प्राप्ति के लिए विशेष करते है। जिस तरह जलाभाव से मरणोन्मुख अवस्था प्राप्त वृक्ष के मूल मे जलसिंचन होने पर वह प्रफुल्लित होकर फल-पुष्प-पर्ण आदि से सुविकसित हो जाता है उसी तरह इस रसायन के सेवन से जीवन प्रदीप्त और सुप्रकासित हो जाने का अनुभव होता है।

क्षय (TB):

क्षय की बिलकुल प्रथमावस्था मे लक्षमीविलास रस का प्रयोग करने पर शक्तिपात दूर होता है। रक्त (खून) आदि धातु त्वरित वृद्धिगत होने लगती है, बल बढ़ने लगता है। इस तरह क्षय की द्रितीयावस्था मे भी इसका अच्छा उपयोग होता है। केवल तृतीयावस्था मे इस रसायन का विशेष उपयोग हुआ हो, एसा नहीं जाना गया।

राज्यक्षमा (TB)के निमित्त कारण- वेगरोध (कुदरती वेगों को दबाना, जैसेके मल, मूत्र आदि वेग), धातुक्षय, साहस और विषमाशन (आहार-विहार-मे विषमता) है। निश्चित कारण दोषप्रकोप है। इनमे क्षय अर्थात रस-रक्त आदि धातुओके ह्रास होने से उत्पन्न राज्यक्षमा (TB) मे इस लक्ष्मी विलास रसका उत्तम उपयोग होता है।

खांसी:

जीर्ण कफकास (लंबे समयसे आने वाले कफकी खांसी)मे भी लक्षमी विलास रस का उत्तम उपयोग होता है। रोग अति जीर्ण (बहोत लंबे समयका) हो, रोगी अति कृश (दुबला) हो गया हो, त्वचा शुष्क (सुखी) हो गई हो, कफ चिकना, गाढा, पीला और दुर्गंधयुक्त निकलता हो, त्रासदायक कास (खांसी) के साथ-साथ श्वास लक्षण प्रतीत होते हो, एसे युवा और हाडपिंजर समान बने हुए शक्तिहिन श्वासरोगियो को यह औषधि अति उपयोगी होती है। इसके सेवनसे जीवनीय शक्ति सबल होती है। फिर वह सरलतासे रोग के विष या किटाणुओ के साथ युद्ध कर सकती है।

अपचन:

आमाशय (Stomach)की अशक्ति के कारण आमाशय रस (Gastric Juice) की उत्पत्ति योग्य नहीं होती। फिर भोजन का पचन भी ठीक नहीं होता। ग्रहणी (Duodenum), अन्नाशय (Stomach), यकृत (Liver) और लघु अंत्र (Small Intestine), सब निर्बल होनेसे, इन सब से उत्पन्न पाचक रस भी ठीक नहीं होता। इस हेतु से भी अन्न का पचन चाहिये वैसा नहीं होता। अन्नका विदाह (अन्न पचन होने की जगह जल जाता है) हो जाता है। भोजन परिपाक योग्य न होने से रसोत्पत्ति भी ठीक नहीं होती। फलतः शारीरिक सजीव घटको को पोषण नहीं मिलता। फिर इनकी वृद्धि या स्थिति मे प्रतिबंध होता है। रोगी दिन-प्रतिदिन क्षीण और कृश होता जाता है। थोडासा भोजन करने पर भी पेट मे भारीपन होजाता है। अन्न पर अरुचि होती है। ऐसी परिस्थिति मे लक्ष्मी विलास रस का अच्छा उपयोग होता है। इस के योग से समस्त पचनेन्द्रिय संस्थान के पित्तोत्पादक कोषाणु सशक्त बनते है। अन्नका विदाह होना बंद हो जाता है; उत्तम रीतिसे परिपाक होने लगता है; और नूतन अणुभवन क्रिया (Anabolism) नियमित होने लगती है।

यकृत की अशक्ति से यकृतमेसे उत्पन्न होने वाले पित्त (Bile) का स्त्रावनिर्माण पूरे परिणाम मे न होने से पक्वाशय (लघु अंत्र)मे अन्नका पचन और रस का संशोषण योग्य नहीं हो सकता। इस हेतु से शरीर मे पांडुता (पीलापन) प्राप्त होती है; तथा पेट मे अफरा, अपचन, पेट मे भारीपन, आंतों मे गुडगुड़ाहट, आंतों मे मंद-मंद व्यथा होना आदि लक्षण उपस्थित होते है। इन सब मे अग्निमांद्य प्रधान होता है। एसे विकार पर लक्ष्मी विलास रस उत्तम कार्य करता है।

ह्रदयकी निर्बलता से आने वाले सर्वांग शोथ (सारे शरीरमे सूजन) मे लक्ष्मी विलास रसका प्रयोग करने से ह्रदय सबल बनकर शोथ (सूजन) शमन हो जाता है।  

जुकाम:

प्रतिश्याय (जुकाम)के एक दुष्ट प्रकार मे नाक मे से जलस्त्राव सतत होते रहता है। रात्रि-दिन प्रवाह चालु रहता है। रात्रि मे निंद्रा के भीतर भी जलस्त्राव होता रहता है। यह केवल जल है परंतु गाढा हो जाता है। इस पर किसी प्रकार से नियंत्रण नहीं हो सकता। कभी-कभी कुच्छ समय के लिये बंद हो जाता है। परंतु जब होता है, तब स्त्राव निरंतर कुच्छ दिन तक होता रहता है। इस पर लक्ष्मी विलास रस का उपयोग होता है। इसके सेवन से स्त्राव रुक जाता है। फिर बार-बार जुकाम नहीं होता।

नपुंसकता:

नपुंसकता मे जब वीर्य और वीर्य मे रहे हुए शुक्राणु ठीक तरह से उत्पन्न न होने से नपुंसकता आती है तब रोगी बिलकुल निस्तेज और शक्तिहीन भासता है, मुखमण्डल उदास रहता है। सर्वदा विचारो मे डूबा हुआ प्रतीत होता है। किसी भी कार्य के लिये उत्साह नहीं होता। मुख पर किसी भी प्रकार की मनोवृति स्पष्ट प्रतीत नहीं होती। इस पर वंग भस्म के साथ लक्ष्मी विलास रस देने से पुरुषत्व की वृद्धि हो कर उत्साह आ जाता है। इसके सेवन से अंडकोष सबल बनता है। नपुंसकत्व, नष्टवीर्यत्व और शीघ्रपतन, तीनों विकृति नष्ट होकर तारुण्य-लक्ष्मी की पुनः प्राप्ति होती है।

संक्षेप में लक्ष्मी विलास रस किसी भी कारण से निर्बलता आ जाने पर सब इंद्रियो और अवयवो को योग्य परिमाण में पोशाक द्रव्यों की प्राप्ति करा कर सशक्त बनाने वाली मूल्यवान औषधि है। इस हेतु से शरीर-क्षयकारी अनेक व्याधियों में इसका उपयोग होता है।

मात्रा: ¼ से 1 रत्ती दिनमे दो बार।  ( 1 रत्ती = 121.5 mg)

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