इस गंधक रसायन के
सेवन से वीर्य की वृद्धि और शरीर की द्रढता होती है। पाचनशक्ति बलवान बनती है। खाज, कुष्ट (Skin Diseases) और उग्र विषदोष (Toxicity) दो मास के सेवन मात्र से नष्ट हो जाते है। घोर अतिसार
(Diarrhoea), ग्रहणी (Duodenum),
खून और दर्द सहित ग्रहणी, पुराना बुखार, सब प्रकार के प्रमेह,
सब प्रकार के वातरोग (Rheumatism, Sciatica, Arthritis, Back Pain), सब प्रकार के पेट के रोग, अंडकोष वृद्धि (Testicle
Enlargement) और सोम रोग को यह रसायन दूर करता है। 6
मास सेवन करने से बाल काले हो जाते है और युवावस्था के समान बल की प्राप्ति होती
है। संक्षेप में यह रसायन सब प्रकार की व्याधियों को दूर करता है। बिलकुल मरणतुल्य
शरीर वालों को भी बलवान, निरोग और दिर्ध आयुवाला बनाता है। वीर्य
की वृद्धि करता है। वात, पित्त और कफ तीनों दोषोंमें से बढ़े हुए
को घटाता है; और घटे हुए को बढ़ाता है। पुराना बुखार, सब प्रकार के पुराने रोग, प्रमेह, पांडु (Anaemia),
क्षय (TB), श्वास,
अर्श (Piles=बवासीर),
आदि रोगों को दूर करके शरीर को तेजस्वी बना देता है। इस गंधक रसायन के साथ यदि
सुवर्ण भस्म का सेवन किया जाय, तो बलवृद्धि के लिये विशेष लाभ पहुंचाता
है।
गंधक रसायन का
कार्यक्षेत्र रक्त (खून) और त्वचा है। किसी भी कारण से खून दूषित हुआ हो, तो उसे शुद्ध बनाना यह गुणधर्म इसमे मुख्य है। ऐसे ही
शरीर में संचित हुए विकृत द्रव्यों का रूपांतर और भेदन करके शुद्ध बनाने का कार्य
भी करता है।
पूरे शरीर में
संचारित विष (Toxin) लंबे समय तक रह जाने से सप्त धातुओ
(रक्त, रस, मांस,
मेद, अस्थि,
मज्जा और शुक्र) में लिन होकर विशेष प्रकार की चिरकारी (लंबे समय तक चलने वाली) और
जिद्दी व्याधिया उत्पन्न करते है। इस प्रकार के दोष-दुष्यों के पुराने संयोग में
यह अमृत के समान कार्य करता है।
गंधक रसायन जिन
रोगों में उपयोगी होता है, उन रोगों में मुख्य लक्षण दाह (जलन) होना
चाहिये। मूत्र में जलन, हाथ-पैर में जलन, पेट में जलन, समस्त शरीर में जलन, जिह्वा आदि पर दाह,
शौच जलता हुआ होना, थोड़ा चलने-फिरने पर सारे शरीर में जलन-सी
होजाना, हाथ-पैर किसी स्थान पर रखने पर दाह होना, हाथ-पैर पर शीतल जल की पट्टी रखने की इच्छा होना आदि
लक्षण उपस्थित होने पर पित्त की तीक्ष्णता समजनी चाहिये। ये लक्षण किसी विशिष्ट
विष (Toxin) (संक्रामक किटाणु) का शरीर में संचय होने
पर ही होते है। इस दोष-दुष्य युक्त संयोग में यह विशेष उपयोगी है।
त्वचा पर
सूक्ष्म-सूक्ष्म पिटिका या स्फोट, अतिशय शुष्क खुजली होना, शौचशुद्धि न होना,
शरीर पर अति खुजलाने से उस स्थान पर जलन होना,
कभी रक्त निकल जाना आदि लक्षण होने पर गंधक रसायन को मिश्री के साथ देना चाहिये।
खुजली के विशिष्ट
प्रकार के किटाणु (Parasites) होते है;
जो अति जिद्दी और त्रासदायक होते है। गंधक रसायन के सेवन से इन किटाणुओं को पोषण
मिलना बंद हो जाता है। इस कारण रक्त और त्वचा में किटाणु का बल कम होकर रोग शमन
होने लगता है। इसके सेवन से दो-तीन दिन के भीतर पामा (Scabies) आदि के फोड़े बड़े हो जाते है; जिससे किंचित विकार बढ़ाने का भ्रम होता है; परंतु यह सचमुच में इसके लागू होने के चिन्ह है। बरसो
तक त्रास भोगने वाले रोगी इस रसायन के सेवन से सुधर गये है। जितना विकार पुराना
उतना ही यह अधिक कार्य करता है।
पामा की तरह अन्य
क्षुद्र कुष्ट में भी गंधक रसायन उपयोगी होता है। मात्रा 1-2 रत्ती (125 mg-250 mg) तक। जैसे-जैसे रोग बल कम हो; वैसे-वैसे मात्रा कम करनी चाहिये। उतने तक कि एक
सप्ताह में एक बार केवल एक ही रत्ती, त्वचा साफ होने तक देते रहना चाहिये।
पामा (Scabies) दब जाने पर अनेक बार विविध विकारों की उत्पत्ति होती
है। कितनी ही बार तो पामा और अन्य विकार घटमाल के समान एक पीछे एक, क्रमशः होते और मिटते रहते है। अर्थात पामा मिटने पर
दूसरा रोग उत्पन्न होता है; और उसे शमन करने पर पामा तैयार हो जाता
है। यह रोगानुबंध का क्रम लंबे समय तक सतत चलता रहता है। ऐसे विकारों पर यह उत्तम
कार्यकर औषधि है। कभी कभी पामा बिलकुल शमन होकर दूसरे रोग के निदानार्थकर होती है।
फिरसे पामा की उत्पत्ति नहीं होती। परंतु नया उत्पन्न रोग लंबे समय तक त्रास देता
रहता है। अतिसार (Diarrhoea), संग्रहणी (Chronic Diarrhoea), शीर्षशूल (Headache), मुखपाक, पेट में वायु की गुड्गुड़ाहट और जलन आदि
विकारों में से कोई उत्पन्न होने पर यह लाभदायक है। मात्रा अति कम देने से उत्तम
काम होता है।
उपदंश (Soft Chancre) का लंबे समय का विष (Toxin), अन्य दुषी विष, पारद विष (दूषित रसकपूर का सेवन, हिंगुल का धूम्रपान या अन्य) और जंगम विष की जीर्णावस्था
(लंबे समय तक चलता) आदि करणों से घोर अतिसार या ग्रहणी रोग होना, साथ में रक्त और आम जाना, पेट में वेदना आदि लक्षण होने पर यह अत्यंत उपयुक्त
है।
प्रमेह और मधुमेह
(Diabetes), ये स्थूल और अति कृश मनुष्यों को भी हो
जाते है। स्थूल मनुष्य को गुगुलू, शिलाजीत,
त्रिफला आदि अधिक हितकर है, तथा कृश मनुष्यों में जिनको जननेन्द्रिय
(Penis)-संबंधी रोग होने से ये विकार हुए हो उनको
गंधक रसायन देना चाहिये।
उपदंश आदि रोगो
का विष (Toxin) पुराना हो जाने पर वातवाहिनियों (Air Ducts) पर असर पहुंचाता है,
तब वातवाहिनियों
की विकृति होकर
सर्वांगवात (पूरे शरीर में वेदना), पक्षाघात अथवा अन्य शारीरिक व्यापार को
नष्ट करने वाला रोग उत्पन्न होता है। ऐसे विकारों पर यह उत्तम कार्य करता है। इस
शारीरिक व्यापार की न्यूनता का परिणाम अंत्र (Intestine)
पर होने पर अंत्र बिलकुल अशक्त हो जाती है। फिर कोष्टबद्धता (कब्ज), मल में सुपारी के समान गाँठे होजाना, गाँठो को बाहार निकालने की शक्ति अंत्र में न रहना, पेट में अशक्ति और जलन आदि लक्षण उत्पन्न होते है, उस पर पहले स्नेहन करा कर फिर गंधक रसायन का उपयोग
करना चाहिये।
उपदंश पुराना
होने पर सांधों में शोथ (सूजन), दाँतो में रक्तस्त्राव, सारे शरीर में स्थान-स्थान पर गाँठे होना, रक्तवाहिनिया मोटी-मोटी हो जाना, खड़े रहने की शक्ति नष्ट होना, हाथ-पैरो में कंप होना,
कभी-कभी विकार की तीव्रता बढ़ने से जमीन पर पड़े रहना,
छाती और पूरे शरीर में दर्द होना, ह्रदय में खुजली चलना, सूक्ष्म-सूक्ष्म पिटिका निकलना आदि लक्षण होने पर
गंधक रसायन उत्तम काम करता है।
विशेष किसी भी
प्रकार के स्पष्ट कारण न होने पर रोगी दिन-प्रतिदिन निर्बल होता जाता है, और बल-मांस विहीनवत्व की प्राप्ति होती है। शरीर के
अंदर जो-जो अवयव-समूह अशक्त होते जाते है; उन-उन अवयवसमूहो के विकार अर्थात
पित्तप्रधान विकार प्रतीत होने लगते है। कितनी ही सूक्ष्म जांच की, तो भी रोग का विशिष्ट कारण नहीं मिलता। ऐसे रोग में
उत्पन्न हुए बलमांसविहीनत्व, नष्ट हुए वीर्य, लुप्त हुई शक्ति,
मंद हुई अग्नि, शिथिल हुए स्नायु, इन सब को समस्थिति में लाकर योग्य कार्यक्षम बनाने की
शक्ति गंधक रसायन में है।
पथ्यापथ्य: शक्कर,
साठी चावल, गोधृत (गाय का घी), केला, सैंधा नमक,
आम के पक्के मधुर फल, दालचीनी,
पुराना शहद, मांस,
नागरवेल का पान, सुपारी-कत्था आदि पथ्य है। नमक, खट्टे पदार्थ, शाक-भाजी,
सब प्रकार की दाल, चाय,
कॉफी, तैल,
गुड, बीड़ी या सिगारेट पीना, स्त्री-प्रसंग (Sex),
सवारी पर बैठना और कसरत अपथ्य है। अग्निसेवन और सूर्य के ताप से हो सके उतना बचना
चाहिये।
मात्रा: 125 से
500 mg सुबह-शाम दूध के साथ।
घटक द्रव्य: शुद्ध गंधक को गाय के दूध, चतुर्जात (इलायची, दालचीनी, तेजपत्र, नागकेसर) का क्वाथ, गिलोय का स्वरस, हरड़, बहेड़ा, आंवला, इनका अलग-अलग क्वाथ, भंगरे का रस और अदरख का रस, इन वस्तुओ की आठ-आठ भावना दे सूखाकर बारीक चूर्ण करें।
घटक द्रव्य: शुद्ध गंधक को गाय के दूध, चतुर्जात (इलायची, दालचीनी, तेजपत्र, नागकेसर) का क्वाथ, गिलोय का स्वरस, हरड़, बहेड़ा, आंवला, इनका अलग-अलग क्वाथ, भंगरे का रस और अदरख का रस, इन वस्तुओ की आठ-आठ भावना दे सूखाकर बारीक चूर्ण करें।
Ref: यो. र. (योगरत्नाकर)
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