अग्नितुंडी वटी
मंदाग्नि, अफरा,
शूल (दर्द), आमातिसार,
अजीर्ण, पागल कुत्ते का विष, निर्बलता, स्वप्नदोष,
ह्रदय रोग, वातरोग (पूरे शरीर में वेदना या शरीर के
किसी अंग में वेदना) और संग्रहणी (Chronic Diarrhoea) में लाभदायक है। सर्वांगशूल (पूरे शरीर
में वेदना) और परिणामशूल (खाने के बाद पेट में दर्द) का नाश करता है। एवं विशेषतः
आमवात (Rheumatism) को नष्ट कर अग्नि प्रदीप्त करता है।
अग्नितुंडी वटी
शूलध्न (दर्द का नाश करने वाली), पाचक और दीपक है। रसाजीर्ण (अजीर्ण का एक
प्रकार है) आदि पुराने त्रासदायक विकार में अति लाभदायक है। कफ से होने वाले विकार
और कफप्रधान लक्षणों में विशेष उपयोगी है। एवं मध्यम कोष्ट (Stomach) में वायु दूषित होने पर भी यह वटी हितकर है।
रसाजीर्ण वाले
रोगियों की अग्नि (पाचनशक्ति) ठीक नहीं होती। हमेसा पेट में जड़ता और भारीपन रहता
है, वृति में प्रसन्नता नहीं होती; कभी-कभी पेट की जड़ता इतनी बढ़ जाती है कि, पेट पत्थर समान कठोर प्रतीत होता है; नेत्रद्रष्टि (नजर) कमजोर होती है; किसी भी कार्य करने में उत्साह नहीं होता; अन्न का परिपाक ठीक नहीं होता, डकार मधुर या भोजन के दूषित स्वादयुक्त आती रहती है, जिह्वा का स्वाद चला जाता है, जिह्वा चिपचिपी सफेद मलयुक्त हो जाती है, भोजन करलेने पर तुरंत ही उल्टी हो जाती है, उल्टी में खाया हुआ अन्न और मधुर-सा पानी निकलता है, आमाशय (Stomach) में पित्त (पाचक रस – Gastric Juice) कि उत्पत्ति जितनी चाहिये उससे कम होती
है, तथा पेट के भीतर की त्वचा पर श्लेष्म का
आवरण आ जाता है। ऐसी स्थिति में अग्नितुंडी वटी उत्तम कार्य करती है।
यकृत (Liver) अशक्त बनने पर यकृत में पित्त स्त्राव (जो भोजन को
पचाने के काम करता है) कम होता है, या उस पित्त का पाचन करने का गुण कम होता
है, इस कारण अन्न का योग्य पचन नहीं होता, पेट में एक प्रकार की जड़ता भासती है, किसी-किसी समय पेट में दर्द होता है, एवं अपक्व दूषित अन्न का संचय हो जाने से अतिसार (Diarrhoea) हो जाता है, इस अतिसार में दुर्गंधयुक्त सफेद-सा
बिखरा हुआ (अपूर्ण रचना वाला) मल बार-बार आता रहता है, ऐसे लक्षण होने पर अग्नितुंडी वटी देनी चाहिये।
यकृतवृद्धि (Liver Enlargement) विकार में अग्नितुंडी वटी का उपयोग होता
है। परंतु बालको के लिये इस औषधि का उपयोग हो सके उतना कम करना चाहिये। विशेषतः
कफप्रधान और कफ-वातप्रधान यकृतवृद्धि विकार में त्वचा, नख, नेत्र,
ओष्ठ, मुख आदि श्वेत-निस्तेज जो जाते है, गाल फुले हुये भासते है, गालो पर एक प्रकार का चिकनापन आ जाता है, यकृत (Liver) का किनारा मोटा हो जाता है, उस भाग में सर्वत्र जड़ता आ जाती है, आमाशय (Stomach) में जड़ता,
पेट में भारीपना भासना, पेट में मंद-मंद दर्द होना, पाचक अग्नि अति मंद होना आदि लक्षण होते है। कोष्ट (Stomach) में दर्द तीव्र नहीं होता, फिर भी बेचैनी अधिक रहती है। इस प्रकार में विशेषता
यह है की, सब लक्षणों के साथ एक प्रकार की स्तब्धता
आ जाती है। सारे शरीर में जड़ता भासती है। इसी तरह रोगी की मानसिक स्थिति भी जड़-सी
हो जाती है। एक प्रकार का बुद्धिमांद्य आता है,
विचारशक्ति न्यून होती है। ऐसे प्रकार में अग्नितुंडी वटी के उत्तम उपयोग होने के
उदाहरण मिले है।
मध्यम कोष्ट (Stomach) और बृहदंत्र (Large Intestine) में पुरःसरण क्रिया (मल को आगे धकेलने की
क्रिया) मंद होने पर अन्न जहा का तहा रुक जाता है,
फिर पेट में जड़ता आ जाती है। अन्न का योग्य परीपाक नहीं होता। कुच्छ-न-कुच्छ अंश
में आहार दूषित होने लगता है। परिणाम में पेट में कदाच अधिक तीव्र दर्द न हो, तो भी मानसिक प्रसन्नता को नष्ट करने वाला एक प्रकार
का दर्द निकलता रहता है। आहार आगे गति नहीं करता। जहा का तहा स्थिर रह जाता है।
फिर अफरा आ कर पेट खींचने लगता है। मुंह में बार-बार पानी आना, उल्टी करने की इच्छा होना आदि लक्षण होने पर
अग्नितुंडी का उत्तम उपयोग होता है।
बद्धकोष्ट (कब्ज)
का विकार पुराना होने पर लघु अंत्र (Small Intestine), शेशांत्र (Ilium) के और अंत्रपुच्छ (Appendix)
के समीप के प्रदेश में अशक्तता आ जाती है। इस कारण अर्धपक्व अन्न अंत्र में
आवश्यकता की अपेक्षा अधिक समय तक रह जाता है; एवं मल को आगे धकेलने की क्रीया ठीक नहीं
होती। परिणाम में अंत्र विकृत होने लगता है। फिर वहां पर दर्द होता है; जडता भासती है; और वह फुले हुऐ सद्रश बन जाता है। इस
विकार में अग्नितुंडी का उपयोग किया जाता है।
अंत्रपुच्छ (Appendicitis) के विविध कारण होने पर भी इसका मुख्य
कारण दोषप्रकोप ही है। अंत्रपुच्छ अर्थात पेट के वक्षणोत्तरित प्रदेश (Right Iliac Region) में पत्थर बांधने समान जड़ता होती है; और वह भाग ऊंचा उठ जाता है। बार-बार उबाक आकार मधुर
लेसदार उल्टी होती है। कितने ही रोगियो को इस स्थान में होने वाला दर्द अति तीव्र
होता है। उसे सहन करना अति कठिन हो जाता है। इस प्रकार की व्याधि में अग्नितुंडी
वटी का उपयोग अप्रतिम होने के उदाहरण मिले है। व्याधि पुरानी हो जाने पर इसका
उपयोग उतना नहीं होता। पुरानी व्याधि में आरोग्यवर्धिनी वटी अधिक हितकारी है।
कफ के कारण होने
वाले पेट के रोग में हाथ, पैर,
मुख, नेत्र,
त्वचा, नख ये सब निस्तेज-सफेद हो जाते है। पेट
जड़, ऊपर अधिक उठा हुआ और स्तब्ध भासता है।
सारे शरीर में सूजन, इनमे भी हाथ-पैर पर अधिक सूजन और ह्रदय
में क्षीणता आ जाती है; तथा सब यंत्रो का व्यापार मंद हो जाने से
समस्त शरीर जड़-सा बन जाता है। मूत्र का वर्ण सफेद या सफेद-पीला-सा हो जाता है। ऐसी
स्थिति में अग्नितुंडी वटी का प्रयोग किया जाता है।
मात्रा: 1-1 गोली
दिन में 2 बार जल के साथ। याद रखे इसकी मात्रा कभी ज्यादा न ले। ज्यादा मात्र लेने
पर यह वटी नुकसान पहुंचा सकती है। बच्चों को न दें।
घटक द्रव्य: शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, शुद्ध बच्छनाग, हरड़, बहेड़ा, आंवला, सज्जीखार, जवाखार, चीतामूल, सैंधा नमक, जीरा, अजमोद, समुद्र नमक, वायविडंग, काला नमक, सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, शुद्ध कुचीला। भावना: नींबू का रस।
घटक द्रव्य: शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, शुद्ध बच्छनाग, हरड़, बहेड़ा, आंवला, सज्जीखार, जवाखार, चीतामूल, सैंधा नमक, जीरा, अजमोद, समुद्र नमक, वायविडंग, काला नमक, सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, शुद्ध कुचीला। भावना: नींबू का रस।
सूचना:
अग्नितुंडी वटी एक मास में सिर्फ 15 दिन ही सेवन करनी चाहिये। जरूरत हो तो 8 दिन
छोड कर देनी चाहिये। मात्रा ज्यादा नहीं देनी चाहिये। इस रीति से बार-बार
थोड़े-थोड़े दिन छोडकर सेवन करनी चाहिये।
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