गुरुवार, 4 अक्तूबर 2018

चंद्रप्रभा वटी के फायदे / Benefits of Chandraprabha Vati


चंद्रप्रभा वटी मूत्रकुच्छ (Urine Irritation), पथरी, प्रमेह, भगंदर, अंडवृद्धि, पांडु (Anaemia), कामला (Jaundice), बवासीर, कमर का दर्द, नेत्ररोग, स्त्रियोके गर्भाशयके विकार, पुरुषोके धातु-संबंधी विकार आदि सबको दूर करती है। जीर्ण रोगमे (लंबे समय के रोग मे) इसका सेवन शांति-पूर्वक 3-4 मास तक करना चाहीये। ज्यादा समय तक इसके सेवन से असाध्य भगंदर जैसा रोग भी दूर हो जाता है। मानसिक श्रम करने वाले विध्यार्थियों के लिये चन्द्रप्रभा वटी अति लाभदायक है।

चन्द्रप्रभा वटी का मुख्य कार्य मूत्रेन्द्रिय और शुक्रार्तवकी उत्पादन इंद्रियपर शामक, बल्य और रसायन असर पहुंचानेका है। शरीर के धातु परिपोषण क्रममे प्रतिबंध आकार जो व्यवस्था भंग होती है, उसे यह व्यवस्थित बनाती है। अर्थात पूर्वधातुमे से परधातु निर्माण क्रिया बराबर होने लगती है और शरीर की सब धातु बढ़ने लगती है। यह वटी सर्व रोगो का नाश करती है।

सुजाक (शुक्रमेह=मूत्र के साथ पूय (Pus) जाना), उपदंश, शराबका सेवन, तीव्र रसायन आदि औषधि सेवन अथवा गरम मसालेका अधिक उपयोग करते रहना, तमाखु, गाँजा, सूर्य के ताप मे भ्रमण आदि कारणो से मूत्रकुच्छ (Urine Irritation=मूत्रमे जलन) उत्पन्न होता है। इसके परिणामरूप मूत्र की मात्रा कम बनती है और कमर मे दर्द, मूत्र मे अधिक जलन, मूत्र मे रेत, शर्करा जाना आदि लक्षण प्रतीत होते है। इसपर चन्द्रप्रभा वटीका उत्तम उपयोग होता है।    

मूत्राघात जिस रोगमे मूत्र की उत्पत्ति कम होती है और मूत्र द्वारा शरीरसे बाहर जानेवाले क्षार और विष (Toxin) शरीरमे ही रह जाते है और रोग उत्पन्न करते है। इस रोगमे चन्द्रप्रभा वटी का उत्तम उपयोग होता है। इस पर चंद्रप्रभा वटी , पुनर्नवासव या गोक्षुरादी अवलेहके साथ देना विशेष हितकर है।

अश्मरी (पथरी) रोग जब अधिक बढ़ जाता है, तब शस्त्रचिकित्सा करना ही इष्ट है; परंतु अश्मरी की अधिक वृद्धि न होने पर औषध चिकित्सा द्वारा अश्मरी-भेदन हो शकता है। इसके सूक्ष्म-सूक्ष्म कण मूत्र द्वारा बाहर निकल जाते है। इस कार्य के निमित्त चन्द्रप्रभा वटी का उपयोग तृणपंचमूल क्वाथ के साथ करना चाहिये।

हमने चंद्रप्रभा वटी और त्रिविक्रम रस का उपयोग करके अनुभव किया हुआ है। हम रोगी को दोनों में से 2-2 गोली सुबह-शाम देते थे। यह औषध पथरी को निकालने में बहुत कामयाब हुआ है; और एक पेटंटेड (patented) दवा भी मिलती है हमने उसका भी अनुभव करके कामयाब पाया है।

सुजाक (शुक्रमेह=Sparmatorrhoea), जिसमें मूत्र के साथ पूय (Pus) जाता है और मूत्र त्याग के समय जलन होता है वह रोग पुराना होने पर विविध रोग उत्पन्न होते है। जितना रोग पुराना और जितना अधिक गहराई में हो, उतना ही चंद्रप्रभा वटी का अधिक अच्छा उपयोग होता है। रोग नया हो, तो सुवर्ण वंग उपयोगी है। परंतु रोग का जहर खून में मिल गया हो और उसकी वजह से विविध विकार उत्पन्न हुए हो तो चंद्रप्रभा वटी उपयुक्त है। पुराने रोग में इसका सेवन अधिक काल करना चाहिये। अनुपान रूप से दारूहल्दी, गिलोय, गोखरू और आंवले का क्वाथ देवें।

गर्भाशय की अशक्ति से बीज का ग्रहण न होना, गर्भ न रहना, या रहने पर 3, 4 या 5 मास गर्भधारण होकर गर्भपात हो जाना, इस परिस्थिति में चन्द्रप्रभा वटी का उत्तम उपयोग होता है।

पूय-शुक्र के परिणाम से वंद्यत्व आया हो, अथवा बीजाशय और गर्भाशय को योग्य पोषण न मिलने या अकाल में दुरुपयोग होने के हेतु से विकृत हो गये हो, तो गर्भधारण में प्रतिबंध होता है। इस परिस्थिति में चंद्रप्रभा वटी लाभदायक है। इसके सेवन से विष निर्मूल होकर गर्भाशय और बीजाशय सुद्रद्ध बन जाते है।

आर्तवस्त्राव (मासिक धर्म) में अनियमितता, अत्यार्तव (मासिक के समय ज्यादा खून निकलना), पीडितार्तव (मासिक के वक्त दर्द), अनार्तव (मासिक न आना) इन सब विकारों के मूल में ऊपर कही हुई कारणपरंपरा हो, (गर्भाशय की शिथिलता हो), तो चंद्रप्रभा वटी स्त्रियों का उत्तम मित्र है।

छोटी आयु में हस्तमैथुन की दुष्ट आदत पड़ जाने से कितनेक व्यक्तियों की मूत्रेन्द्रिय शिथिल बन जाती है, और शुक्रस्त्राव (वीर्यस्त्राव) बार-बार होता रहता है। फिर स्वप्न के भीतर अज्ञानावस्था में शुक्रस्त्राव हो जाना, मूत्र में शुक्र निकलना, मूत्र के पश्चयात शुक्रस्त्राव हो जाना, प्रत्येक स्त्राव के बाद पूरे शरीर में अशक्ति आना, विशेषतः इंद्रिया शिथिल हो जाना आदि लक्षण होते है। कितनेक मनुष्यो को स्त्री-संबंधी विचार आने पर तत्काल शुक्र-स्खलन और कभी स्त्री के दर्शन-मात्र से शुक्रस्त्राव हो जाता है। इस परिस्थिति में चंद्रप्रभा वटी उत्तम लाभदायक है। योग्य आयु हो गई हो तो चंद्रप्रभा वटी की अपेक्षा वंग भस्म विशेष उपयोगी है। यदि शुक्र की अशक्ति के कारण गर्भधारण न होता हो, तो ब्रह्मचर्य के पालन के साथ चंद्रप्रभा वटी का सेवन करना चाहिये।

अति व्यवाय (Sex) से स्त्री और पुरुष दोनों के शरीर निर्बल हो जाते है। फिर लंबे समय तक चलने वाले अजीर्ण (Indigestion) और कोष्टबद्धता (कब्ज) जैसे रोग उपस्थित होते है। परिणाम में सर्वधातु परिपोषण क्रम विकृत होता है। इसके कारण सारा शरीर पीला पड़ जाना, कितनेको को कामला (Jaundice) के समान और कितनेको को हलिमक समान चिरकारी और त्रासदायक रोग हो जाते है। ये विकार हस्त मैथुन की आदत से भी उत्पन्न होते है। इन विकारों में चन्द्रप्रभा वटी उत्तम काम करती है।

शुक्रक्षय की आदत (वीर्य को निकालने की आदत) से अपचन और कोष्टबद्धता (कब्ज) उत्पन्न होते है। फिर उदर (पेट) में वायु भरा रहना, शौचशुद्धि न होना, किसी-किसी को अर्श (Piles) हो जाना, रक्त गिरना, गुदाद्वार में जलन, अतिशय थकावट आ जाना आदि लक्षण होने पर चंद्रप्रभा वटी का उत्तम उपयोग होता है।

रक्त दबाव वृद्धि (High Blood Pressure) के शराब आदि अनेक कारण है। किन्तु विशेषतः इसकी उत्पत्ति बृहदंत्र (Large Intestine) में आमविष (Toxin) संगृहीत होने पर होती है। जिन व्यक्तियों को बार-बार भोजन करने या अधिक भोजन करने की आदत होती है, उनके अंत्र (Intestine) में आमविष का संचय होता है, उस हेतु से बार-बार अपचन होता रहता है। पश्चयात आहार रस दूषित होने से रक्तादि धातु दुष्ट होती है। परिणाम में रक्त दबाव वृद्धि होती है। इस विकार में अगर आमविष कारण हो और रोगी दद्ध पथ्य पालन करें, द्विदल धान्य, मांस, शराब और भारी भोजन का त्याग करे, तो चन्द्रप्रभा वटी के सेवन से रक्त दबाव कम हो जाता है।

संक्षेप में चंद्रप्रभा वटी असंयमजनित सभी प्रकार के विकार, मूत्राशय की दुर्बलता, स्नायु दौर्बल्य, सब प्रकार के प्रमेह, पथरी, सुजाक, मूत्र दोष, धातु क्षीणता, पेसाब में धातु जाना, प्रदर व रजोधर्म संबंधी रोगों पर अत्यंत लाभकारी है। इसके सेवन से बल, स्फूर्ति और शक्ति का संचानर होता है। 

मात्रा: 1 से 2 गोली सुबह-शाम दूध के साथ।


घटक द्रव्य: कपूर, बच, नागरमोथा, चिरायता, गिलोय, देवदारू, हल्दी, अतीस, दारूहल्दी, पिपलामूल, चित्रक, धनिया, हरड़, बहेड़ा, आंवला, चव्य, वायविडंग, गजपीपल, सोंठ, कालीमिर्च, पीपल, सुवर्णमक्षिक भस्म, सज्जीखार, जवाखार, सैंधानमक, कालानमक, काँचनमक, ये सब तीन तीन माशे, निसोत, दंतीमूल, तेजपत्र, दालचीनी, छोटी इलायची के दाने, वंशलोचन एक-एक तोला, लोह भस्म 2 तोले, मिश्री 4 तोले, शुद्ध शिलाजीत 8 तोले और शुद्ध गुग्गुल 8 तोले।

ग्रंथ: शा.सं. (शार्गंधर संहिता)

Chandraprabha vati is useful in urine irritation, stone, anaemia, jaundice, piles, back pain, eye diseases and impotency.

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