अग्निप्रदीपक गुटिका मंदाग्नि, पुराना अजीर्ण रोग, कब्ज, अरुचि, पेट दर्द, मूत्रविकार, खून की खराबी, खट्टी डकार आना आदि दोषों को दूरकर
जठराग्नि को प्रदीप्त करती है।
जब पित्तप्रकोप
होकर विग्धाजीर्ण रोग (पित्त से उत्पन्न अजीर्ण रोग) उत्पन्न होता है, फिर रोग पुराना होने पर कफ और आम की वृद्धि
होती है, ह्रदय की गति मंद होती है, और शरीर बहुत अशक्त होजाता है; ऐसी स्थिति में अग्निप्रदीपक गुटिका अच्छा प्रभाव दिखाती है।
पथ्य: मुली अथवा
चौलाई का शाक और बाजरे तथा गेहूं की रोटी। खट्टा पदार्थ और पक्का भोजन छोड़ देना चाहिये।
मात्रा: 1 से 2
गोली दिन में 2 बार जल के साथ लेवे। औषध लेने के पहले 1 मूली खा लेवे।
अग्निप्रदीपक गुटिका घटक द्रव्य और निर्माण विधि: हरड़, आंवला, बहेड़ा, जवा हरड़, चित्रकमूल, अजमोद, काला जीरा, सफ़ेद जीरा, सैंधा नमक प्रत्येक 4-4 तोले मिलाकर जौकूट चूर्ण करें। पश्चात 10 सेर अमरबेल के
रस में 7 दिन भिगो दें। औषधि के 1 इंच ऊपर रहे, उतना रस भरें। 8 वें दिन कड़ाही में डाल चूल्हे पर चढ़ा मंदाग्नि देकर रस सूखा देवें।
कड़ाही शीतल होने पर 8 माशे शुक्ति भस्म मिला खरल करके छोटे बेर के समान गोलियाँ बनावें।
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