बुधवार, 11 जुलाई 2018

दशमूलारिष्ट के फायदे / Dashmoolarishta Benefits


दशमूलारिष्ट (Dashmoolarishta) के सेवनसे संग्रहणी (Chronic diarrhoea), अरुचि (Anorexia), श्वास (Asthma), कास (खांसी), गुल्म (Abdominal Lump), भगंदर, वातरोग, क्षय (TB) वमन (vomiting=उल्टी), पांडु (Anaemia), कामला (Jaundice), कुष्ट (Skin diseases), अर्श (Piles), प्रमेह (Spermatorrhoea), मंदाग्नि (Indigestion), उदररोग (पेट के रोग), अश्मरी (पथरी), मूत्रकुच्छ (मूत्र में जलन), धातुक्षय (Atrophy) आदि दोष दूर होते है। दुर्बलों को पुष्ट बनाता है। स्त्रियों के गर्भाशय की शुद्धि करता है। वंध्या स्त्री को संतान देता है। एवं तेज, वीर्य और बल को बढ़ाता है। यह औषधि विशेषतः वातविकार, मूत्ररोग और उदर रोग की नाशक है, और उदर (पेट)के अवयवो के लिये बल्य है।

दशमूलारिष्ट (Dashmoolarishta) प्रसूता स्त्रियों के लिये अत्यंत हितकर है। पहले 10 दिनमें  प्रसूता को देते रहने से मंदाग्नि, जीर्णज्वर (लंबे समय से आने वाला बुखार), कास (खांसी), श्वास, वातविकृति आदि रोगों के उत्पन्न होने का भय दूर होता है और प्रकृति स्वस्थ रहती है। इस अरिष्ट में थोड़ा स्तंभक गुण होने से प्रसूता के अतिसार (Diarrhoea), रकतातिसार, संग्रहणी आदि विकारों में भी उपकारक है।

गर्भाशय की शिथिलता या अन्य रोग विकृति के कारण बार-बार गर्भपात या गर्भस्त्राव हो जाना, या गर्भ धारण ही न होना, यदि संतान हुई तो भी रोगी और कृश (दुबली) होना, ऐसे विकारों में दशमूलारिष्ट उत्तम औषधि है। जिन स्त्रियो को गर्भाशय की अशक्ति के हेतु से गर्भ धारण नहीं होता, उनके गर्भाशय को पुष्ट बनाकर संतान प्राप्ति कराता है, एवं पुरुषों के लिए भी शुक्र शुद्धिकर और वृद्धिकर है।

यूं तो अकेला दशमूल ही त्रिदोष नाशक है। इसके सेवन से शीत, वात और कफ द्वारा उत्पन्न हुई अधिकतर व्याधियाँ नष्ट हो जाती है, इतना ही नहीं, बल्कि फुफ्फुस, ह्रदय, आमाशय (Stomach) और पक्वाशय (Duodenum) में संचित, प्रकुपित और स्थान-संश्रित दोष भी नष्ट हो जाते है तथा खांसी, श्वास, शिरशूल (शिर दर्द), तंद्रा, सूजन, पार्श्व शूल (पसली का दर्द), उरस्तोय (Pleurisy), अरुचि, आमाशय-आक्षेप, प्रतिश्याय (जुकाम), पूतिनश्य आदि अनेक वात-कफज व्याधियां भी इसके सेवन से नष्ट होती है।

दशमूल वात-कफज अर्थात शीत, स्निग्ध और रुक्षता जन्य व्याधियों के लिये श्रेष्ठ औषध है। यह श्लेष्मकलाओं (Mucous Membrane) की जड़ता को नष्ट करता है, अति श्लेष्मकला स्त्राव का शोषण करता है, मेद ग्रंथियों के दोषो का विनाश करता है और पेट की शिथिलता, सूजन और क्रिया-विषमता का नाश करता है तथा यकृत (Liver)-प्लीहा (Spleen) की निर्बलता और सूजन को मिटाता है। पाचन की वृद्धि करके निष्क्रिय स्थानों और धातुओ में अग्निवृद्धि करता है और गर्भाशय-श्लेष्मकला, पेट की आच्छादक कला, यकृत आवरण, फुफ्फुस आवरण, ह्रदय आवरण, कंठ, नासिका और मुख स्थित श्लेष्मकलाओं का पोषण करके इन स्थानों में नवीन शक्ति का संचार करता है।

दशमूलारिष्ट के अन्य द्रव्य भी दोषनाशक, कोष्टशोधक (पेट को शुद्ध करनेवाला), धात्वाग्निवर्धक, धातुओं के विकारों को नष्ट करनेवाले, रक्तवर्धक, वीर्य, बुद्धि, बल, वर्ण और ओज को बढ़ानेवाले तथा पुराना बुखार, सूजन, रक्तदोष, बवासीर, प्रमेह, पथरी आदि का नाश करनेवाला है।

दशमूलारिष्ट (Dashmoolarishta) पोषक, रस, रक्त, मांस आदि धातुशोधक, रक्तवर्धक, आक्षेपनाशक, आम (अपक्व अन्न रस जो एक प्रकार का विष है जो शरीर में रोग पैदा करता है) शोषक, वात-कफ नाशक, पित्तशामक तथा वात-श्लेष्म द्वारा उत्पन्न हुई शरीर की विविध विकृतिओ को नष्ट करता है। यह मेद और मेदजन्य विकारों को नष्ट करके मेद से विकृत हुई ग्रंथियो को सक्रिय करता है। प्रसूता को इसके सेवन से पोषण मिलता है तथा उसके प्रसूत पूर्व और पश्चात के विकार नष्ट हो जाते है।
  
पुराना संग्रहणी रोग में मंदाग्नि होकर शरीर कृश (अशक्त, दुबला) हो जाता है। ऐसे समय भोजन कर लेनेपर दशमूलारिष्ट देना अति लाभदायक है।

सूतिका ज्वर (प्रसूता स्त्रियों को आने वाला बुखार) की तीव्रावस्था में प्रतापलंकेश्वर और दशमूलारिष्ट उत्तम काम करते है। प्रसूतावस्था मेंअपवित्रता और सावधानता न रखने पर सूतिका ज्वर की उत्पत्ति होती है। यह बुखार अति भयंकर है। इसमें एक प्रकार के किटाणुका संक्रामण होता है। प्रसवके 1-2 दिन में ही यह ज्वर उत्पन्न हो जाता है। इस ज्वर में शारीरिक उत्ताप 103 से 105 डिग्री तक बढ़ जाता है। भयंकर प्यास, अत्यंत व्याकुलता, भयंकर शिरदर्द, योनिस्त्राव में दो-तीन दिन बाद दुर्गंध आना, योग्य उपचार न होने पर सन्निपातिक लक्षणो की उत्पत्ति, बेसुधी तथा किसी-किसी रुग्णा को धनुर्वात, दांत भिचना आदि लक्षण होते है। इस बुखार पर दशमूलारिष्ट उत्तम उपयोगी है।

दशमूलारिष्ट में रहे हुए अनेक जीवनीय द्रव्यों के कारण प्रत्यनिक शक्ति प्रबल होती है। इस हेतु से प्रसव होने पर तुरंत इस औषधि का सेवन प्रारंभ कराया जाय, तो रोगप्रतिकारक शक्ति की उत्पत्ति हो जाती है। जिससे सूतिका ज्वर की संप्राप्ति ही नहीं होती।

वातज श्वास रोग में दशमूलारिष्ट का अच्छा उपयोग होता है। श्वास के साथ शुष्क कास (सुखी खांसी) होने पर वह भी शांत हो जाती है। वातज कास और श्वास में शुष्क कास बहुत आती है। फिर ऐसे ही शुष्क कास का वेग आता है, जिसमें कफ अधिक नहीं गिरता। शुष्क वेग वाली खांसी और हांफ के हेतु से रोगी व्याकुल होजाता है। कितने ही रोगी बेहोस होजाते है; या कुच्छ अंश में मूर्छा आ जाती है और नाड़ीका वेग प्रबल होजाता है। इस अवस्था में दशमूलारिष्ट जलमे मिलाकर थोड़ा-थोड़ा 2-2 घंटे पर देना चाहिये। सन्निपातिक ज्वर (Eruptive fever)मे ऐसी अवस्था होने पर यह दिया जाता है।

जब भगंदर बार-बार शस्त्र-चिकित्सा (operation) कराने पर भी नहीं भरता; बार-बार पूय भरते है; फूटते है और अन्य मुख उत्पन्न होते है; ऐसे लक्षण युक्त भगंदर को “शतपोनक” कहते है। उस स्थान में व्रण भरने की क्रिया करने वाली शक्ति क्षीण हो जाती है। इस पर दशमूलारिष्ट अत्युत्तम औषधि है।

सूचना: जिस प्रसूता के मुह में छाले, दाह (जलन), गरम-गरम जल सदृश पतले दस्त (Diarrhoea), प्यास आदि लक्षण हो, ऐसी पित्तप्रधान प्रकृति में दशमूलारिष्ट न दे।

मात्रा: 10 से 20 ml बराबर मात्रा में पानी मिलाकर भोजन के बाद शुबह-शाम।

दशमूलारिष्ट घटक द्रव्य (Dashmoolarishta Ingredients): दशमूल 200 तोले, चित्रक छाल 100 तोले, पुष्कर मूल 100 तोले, लोद 80 तोले, गिलोय 80 तोले, आंवला 64 तोले, धमाशा 48 तोले, खैर की छाल, विजयसार की छाल, हरड़ की छाल, सब 32-32 तोले; कूठ, मजीठ, देवदारु, वायविडंग, मुलहठी, भारंगी, कबीठ, बहेड़ा, सांठी की जड़, चव्य, जटामांसी, गऊंला, अनंतमूल, स्याह जीरा, निसोत, रेणुक बीज, रास्ना, पीपल, सुपारी, कचूर, हल्दी, सुवा, पध्मकाष्ठ, नागकेशर, नागरमोथा, इंद्रजौ, काकड़ासिंगी प्रत्येक 8-8 तोले; विदारीकंद, असगंध, मुलहठी और बाराहीकंद 16-16 तोले, मुनक्का 256 तोले, शहद 128 तोले, गुड 160 तोले, धाय के फूल 120 तोले, शीतलमिर्च, नेत्रबाला, सफेद चंदन, जायफल, लौंग, दालचीनी, इलायची, तेजपात, पीपल, नागकेशर प्रत्येक 8-8 तोले और कस्तुरी 3 माशा।

Ref: भैषज्य रत्नावली

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